19 नवंबर, 2020

शब्दों के परे - -

उस तमिस्रा, अंध रात्रि में, हाथों में -
थामे अजर लावा पात्र, हमने
पाया था, शब्दों के परे
का वो आकाश,
जहाँ जीवन
था पूर्ण
निर्लिप्त, सुख दुःख के पाशों से मुक्त,
सभी उत्कण्ठाओं से अवकाश, उस
चन्द्र विहीन उल्का पात के
नभ में, हमने देखा
था परस्पर
का वो
श्वासरोधी मिलन, नव जागरण का -
अग्निचूर्णक उदय, हिमयुग का
पुनर्विगलन, उस महाकाश
में उभरे थे, दिव्य
मन्त्रों के
प्रभा -
मंडल "सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु
निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चित् दुःखभाग् -
भवेत्।।" इन से
परावर्तित
किरणों
के
सिवा कुछ भी न था हमारे पास, हमने
पाया था, शब्दों के परे का
वो नील निःसीम
आकाश।

* *
- - शांतनु सान्याल


 
 



16 टिप्‍पणियां:

  1. सद्भावों का असीम आकाश झलकाता प्रभावशाली लेखन!

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  2. शब्दों के परे... जाता-
    श्वासरोधी मिलन, नव जागरण का -
    अग्निचूर्णक उदय, हिमयुग का
    पुनर्विगलन...अद्भुत कव‍िता ...सुम‍ित्रानंदन पंत की भांत‍ि प्रकृत‍ि में प्रेम को ढूढ़ती...वाह

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  3. उस तमिस्रा, अंध रात्रि में, हाथों में -
    थामे अजर लावा पात्र, हमने
    पाया था, शब्दों के परे
    का वो आकाश,
    जहाँ जीवन
    था पूर्ण
    निर्लिप्त, सुख दुःख के पाशों से मुक्त,
    सभी उत्कण्ठाओं से अवकाश,
    वाह!!!
    बहुत ही लाजवाब सृजन।

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  4. नील निःसीम
    आकाश।
    अद्भुत, अप्रतिम
    आपकी लेखन प्रतिभा लाजवाब है।
    शब्दों का शानदार समन्वय और जादूगरी।
    अभिनव।

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