20 नवंबर, 2020

परिभाषा विहीन - -

दो बूंदों का वो शब्द जो निगाहों
से  उभर कर पलकों में खो
जाए, तुम पूछते हो
उसका पता, ये
जान के भी
कि वो है,
लापता,
सर्द रातों में, तारों की चादर ओढ़  
कर, वो फुटपाथ में कहीं सो
जाए, उस दो बून्द में  
है कहीं, नवांकुर
का प्रसवन
शामिल,
क्रूर
समय के हाथों, वही दिव्य शरीर -
एक दिन वृद्धाश्रम का हो
जाए, कैसे समझाएं
दर्द की परिभाषा,
जिसे सिर्फ़
अनुभव
किया
जा सकता है, ये वो बूंद हैं जो - -
पत्थरों में भी गिरे तो कुछ
पल सही धड़कने का
बीज बो जाए,  
इन बूंदों
की वो
तासीर है कि बहा ले जाए तमाम
साम्राज्य, कितनी कोशिशें
क्यों न कर लें, दर्द के
सहभागी लौटते
नहीं, चाहे
वक़्त
उन्हें कितना भी बुलाए, वो शब्द
निगाहों से  उभर कर पलकों
में खो जाए - -

* *
- - शांतनु सान्याल
 
 

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