साँझ के गहराते ही मुखरित हो
उठते हैं, सभी ज़िन्दगी के
कैनवास, सजल पलों
को समेटता हूँ
मैं अपने
देह
के आसपास, डूबता है सूरज या
उभारता है किसी और रात
का फीकापन, अंधकार
के उसपार एक नए
सुबह का रहता
है साम्राज्य,
पाप -
पुण्य के कांटेदार सीमारेखा रोक
नहीं पाते प्रकृत अपनापन,
नदी खोना चाहती है
अपना सब कुछ
सागर के
हाथ,
प्रकाश स्तम्भ के खिड़कियों में
परिंदे करते हैं रात्रि निवास,
निहारिकाओं के देश में
उस पल हम होते
हैं एक साथ,
मुहाने के
निर्जन
तट
में आख़री पहर होती है, सहस्त्र
उजालों की बरसात, उन
मन्त्रमुग्ध लम्हों का
हिसाब रखता है,
आदिम -
शैल
चित्रकार, न कोई लिपि न कोई
भाषा, निःशब्द विनिमय का
है वो संसार, अंग प्रत्यंग
से उभरते है अंतरंग
उद्गार - -
* *
- - शांतनु सान्याल
01 नवंबर, 2020
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"अंधकार के उसपार एक नए सुबह का रहता
जवाब देंहटाएंहै साम्राज्य..."
बहुत सुंदर लिखा है आपने।
हार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंअर्थपूर्ण शब्दों को सजा देखकर प्रफुल्लित हो जाती हूँ
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंसाँझ के गहराते ही मुखरित हो
जवाब देंहटाएंउठते हैं, सभी ज़िन्दगी के
कैनवास, सजल पलो
मैं अपने
देह
भावपूर्ण शब्द चित्र
सादर
हार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंखुद से खुद का संवाद! गहन चिंतन👌👌
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
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