17 दिसंबर, 2016
14 दिसंबर, 2016
অন্তহীন ভাসান - -
অবশেষে সে ছুঁয়েছে গভীরতম বিন্দু -
যেন শীতের শেষে ঋতুরাজের
উড়ো চিঠি, অরণ্য গন্ধে
মাখা গোপন হৃদয়ের
লিপি। অন্তত সে
ভুলে নি সেই
উত্তর
দিকের জানালা, হারানো কোন শিহরণ
জড়িয়ে বুকে, সে রেখে গেছে
অনুরাগের ছোঁয়া উড়ন্ত -
পর্দার গায়ে।তার
পরশে ছিল
অদ্ভুত
কুহকের ছায়া, যেন দেহ ও প্রাণে, ঘিরে
আছে অদৃশ্য জগতের মায়া। জানি
না তার মুক্ত স্রোতের উৎস,
শুধুই ভেসে চলেছি
সুদূর অজানা
ভাসন্ত
দ্বীপের সমান্তরালে।চার দিকে শুধুই অথৈ
জলরাশি - - !
* *
- শান্তনু সান্যাল
যেন শীতের শেষে ঋতুরাজের
উড়ো চিঠি, অরণ্য গন্ধে
মাখা গোপন হৃদয়ের
লিপি। অন্তত সে
ভুলে নি সেই
উত্তর
দিকের জানালা, হারানো কোন শিহরণ
জড়িয়ে বুকে, সে রেখে গেছে
অনুরাগের ছোঁয়া উড়ন্ত -
পর্দার গায়ে।তার
পরশে ছিল
অদ্ভুত
কুহকের ছায়া, যেন দেহ ও প্রাণে, ঘিরে
আছে অদৃশ্য জগতের মায়া। জানি
না তার মুক্ত স্রোতের উৎস,
শুধুই ভেসে চলেছি
সুদূর অজানা
ভাসন্ত
দ্বীপের সমান্তরালে।চার দিকে শুধুই অথৈ
জলরাশি - - !
* *
- শান্তনু সান্যাল
07 दिसंबर, 2016
फिर भी अच्छा लगता है - -
वो मिले इक ज़माने के बाद, ये सच है
लेकिन, आज भी कहीं उनकी
आँखों में है इक मुन्तज़िर
तिश्नगी। वक़्त
उतार देता
है हर
इक मुलम्मा मेरे दोस्त, आईने से -
शिकायत है बेमानी, न जाने
किस जानिब बह गए वो
तमाम दावा - ए -
वाबस्तगी।
फिर भी
अच्छा
लगता है, इक ज़माने के बाद तुमसे
मिलना ऐ लापता ज़िन्दगी।
* *
- शांतनु सान्याल
लेकिन, आज भी कहीं उनकी
आँखों में है इक मुन्तज़िर
तिश्नगी। वक़्त
उतार देता
है हर
इक मुलम्मा मेरे दोस्त, आईने से -
शिकायत है बेमानी, न जाने
किस जानिब बह गए वो
तमाम दावा - ए -
वाबस्तगी।
फिर भी
अच्छा
लगता है, इक ज़माने के बाद तुमसे
मिलना ऐ लापता ज़िन्दगी।
* *
- शांतनु सान्याल
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...