13 दिसंबर, 2014

संदली परछाइयाँ - -

कभी फूलों से लदी लदी डालियाँ,
कभी दूर तक छायी रहीं
ख़मोशियाँ, कभी
तुम ख़ुद
में रहे उलझे उलझे से, तमाम -
दुनिया से अलग थलग,
कभी मुझे तलाशती
रही मेरे अंदर
माज़ी की
थकन भरी तन्हाइयाँ, न कोई
दस्तक, न ही ख़ैर ख़बर,
इक ज़माने से है
ज़िन्दगी
मुन्तज़िर कि इश्तबाहा ही सही,
सुलगते रूह को, छू जाए
यूँ ही उनकी संदली
परछाइयाँ - -

* *
- शांतनु सान्याल

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painting by artist Qiang Huang 2

22 नवंबर, 2014

मन्नतों की दुनिया - -

फिर तेरी निगाहों में उतर चले हैं कुछ
अक्स आसमानी, या आने को
है पुरअमन ज़िन्दगी में
तूफ़ान सा कोई !
इक ख़ौफ़
सा रहता है दिल के कोने में कहीं, न
बदल जाए कहीं तू राह अपना,
मौसमी हवाओं के हमराह,
न लूट ले सरे आम
कोई, मन्नतों
की दुनिया,
फ़रेब ए दस्तक दे के, बड़ी मुश्किलों
से हम ने माँगा है ख़ुदा से तुझ को।

* *
- शांतनु सान्याल


 

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Brita Seinfeld art

14 नवंबर, 2014

कुछ भी नहीं निःशर्त - -

,
इस दुनिया में कुछ भी नहीं
निःशर्त, हर कोई चाहे
किसी न किसी
रूप में
प्रतिदान,  कुछ भी नहीं यहाँ - -
शाश्वत, उस पल मुझे
उसकी बातें लगी
थीं बहुत ही
विषाक्त,
निर्मम समय और स्व - छाया
ने समझाया, मुझे जीवन
का कड़वा सच,
ढलती उम्र
के साथ
सभी रिश्ते नाते, धीरे धीरे खो -
जाते हैं कहीं, ठीक, जाड़े
की धूप की तरह,
ज़रा देर
के लिए, औपचारिकता निभाते
हुए छू जाते हैं, ईशान -
कोणीय गलियारा,
केवल कुछ
पलों के लिए इक गर्म अहसास,
साथ रह जाती है लम्बी
ठिठुरन भरी रात
और एक दीर्घ
निःश्वास।

* *
- शांतनु सान्याल 

11 नवंबर, 2014

दर्द गुज़िश्ता - -

बेहतर है न कुरेद बार बार, यूँ
दर्द गुज़िश्ता, तमाम
रात सुलगता
रहा नीला
आसमान, और गिरे चश्म ए
ओस आहिस्ता आहिस्ता,
न जाने वो ख़्वाब था,
या साहब नफ़स
मेरा, नादीद
हो कर
भी कर गया मुझे यूँ वाबस्ता, -
जब होश लौटे, उठ चुका
था नूर शामियाना
दूर तक थी
ख़मोशी
और इक अंतहीन लम्बा सा
रस्ता, बेहतर है न कुरेद
बार बार, यूँ दर्द
गुज़िश्ता,

* *
-  शांतनु सान्याल 


 

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Lorraine Christie Art 2

09 नवंबर, 2014

पोशीदा नज़्म कोई - -

कभी कभी, यूँ ही बेवजह, किसी
सुनसान से, पहाड़ी स्टेशन
के प्लेटफ़ार्म पे, रहता
है खड़ा मेरा वजूद,
कुछ अनमना,
तन्हा सा !
आधी रात की, वो आख़री रेल - 
जब गुज़रती है, धड़धड़ाती
हुई, पुरअसरार वादियों
की जानिब, दूर दूर
तक फैली
हुई चाँदनी में करती है मेरी रूह  
गुमशुदा नज़्म की तलाश, 

किसी जंगली नदी के 
किनारे, महुवा या 
खैर के तने
पे कहीं
जहाँ कभी मिलकर हमने उकेरा
था इक दिल का निशान, और
लिखी थी ख़ूबसूरत सी,
पोशीदा नज़्म कोई
ला उन्वान !

* *
- शांतनु सान्याल 


 
 

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Still Life After Shirley Trevena

31 अक्तूबर, 2014

तारुफ़ नामा - -

मुड़ कर भी उसने देखा नहीं इक बार,
मुन्तज़िर रही मेरी आँखें, यूँ तो
उम्र भर, कि फिर दोबारा
बस न पायी उजड़ी
हुई दिल की
दुनिया,
कहने को यूँ तो दस्तक आते रहे बहार
के, अपने ही घर में रहे गुमसुम
किसी मुहाजिर की तरह,
कि उनसे बिछड़
कर, वाक़िफ़
आईना भी मुझसे पूछता रहा तारुफ़ -
नामा ! कैसे बताएं उसको कि
अब हमें ख़ुद का चेहरा
भी याद नहीं - -

* *
- शांतनु सान्याल

 

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उड़ते बादलों का साया - -

उड़ते बादलों का साया है वो कोई, -
या मृगजल का साकार होना,
न कोई आहट, न ही
निशानदेही,
बहोत
ही ख़तरनाक था, उस इक नज़र का
यूँ ख़मोश, जिगर के पार होना !
वो तमाम जादू - टोने, या थे
निगाहों के खिलौने !
कहना है बहोत
मुश्किल,
किसी हसीं क़ातिल का यूँ खुल के -
तलबगार होना, न जाने क्या
राज़ ए कशिश है, उसके
नाज़ुक ओंठों के
आसपास,
क्यूँ न चाहे दिल, क़ुर्बान उसपे, एक
नहीं हज़ार बार होना - -

* *
- शांतनु सान्याल


 

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17 अक्तूबर, 2014

ख़ूबसूरत वजह - -

बहोत मुश्किल है ज़िन्दगी में,
मन माफ़िक़ चीज़ का
मय्यसर होना,
ज़मीं ओ
आसमां उम्र भर मिलते नहीं,
फिर भी, इक अहसास
रखती है ज़िंदा
उफ़क़ की
लकीर
को, कि तू ख़्वाब ही सही फिर
भी है, इक ख़ूबसूरत वजह !
ज़िन्दगी जीने के लिए,
लहूलुहान है जिस्म
मेरा, तो क्या
हुआ,
रूह की कोई इंतहा नहीं कि -
डूबती सांसों को भी होती
है आख़री लम्हे
तक, उभरते
किनारों
की ख़्वाहिश, ये दीगर बात है
कि फ़रेब ए क़िस्मत
मेहरबां न हो !

* *
- शांतनु सान्याल

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05 अक्तूबर, 2014

कोहरे में कहीं - -

वो बार बार यक़ीं दिलाता है मुझे,
कि उसके और मेरे दरमियां
अभी तक है, कुछ न
कुछ बाक़ी !
जबकि
ज़माना हुआ उसकी दी हुई, वो -
ख़ूबसूरत रेशमी रुमाल
गुमाए हुए, कि
वो इक
मीठा अहसास है कोई, या टीस
ऊँगली की नोक का, इक
सिहरन सी होती
है जब कभी
खिलते
हैं, गुलाब नज़र के सामने, फिर
भी काँटों की है, अपनी ही
ख़ूबसूरती, ख़ामोश
करते हैं बयां,
की इक
दूरी बहोत है ज़रूरी, हद पार - -
करने से पहले।

* *
- शांतनु सान्याल
 
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30 सितंबर, 2014

ख़्वाब कोई अंतिम पहर वाले - -

कदाचित वो बरसे, आधी रात महीन
मेघ बन कर, अस्तित्व मेरा
फिर बनना चाहे मरू -
उद्यान कोई !
निःशर्त
हो आँखों का मौन अनुबंध, आजन्म
किसी के लिए फिर जागे है दिल
में अरमान कोई ! उड़ रहे
हैं, रंगीन शलभ या
निगाहों में
तैरते
हैं, ख़्वाब कोई अंतिम पहर वाले, पास
रह कर भी न जाने क्यों इतना
है अनजान कोई ! बदल
तो लूँ ज़िन्दगी की
तमाम
नाकामियां, दर्द भरी परछाइयाँ, काश,
कहीं से मिल जाए, ख़ानाबदोश
मेहरबान कोई, अस्तित्व
मेरा फिर बनना चाहे
मरू उद्यान
कोई !

* *
- शांतनु सान्याल

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29 सितंबर, 2014

बूंदों का हिसाब - -

उन गर्म बूंदों का हिसाब न दे - -
सका कोई, जो आँखों से
टूट कर निःशब्द,
भाप बन गए,
वो तमाम
दर्द
जो मरियम के सीने में थे दफ़्न
कहीं, वक़्त के साथ बंजर
ज़मीं बन गए, फिर
भी निकलती
है दिल
से दुआएँ दूर तक, मसीहा न सही
वो तमाम अपने पराए, कम
अज़ कम इंसान तो बन
गए होते, क्या
मानी है
उन पवित्र गुम्बदों की रौशनी का,
ग़र इतिहास लिखा जाए
मासूमों के ख़ून से,
काश वो समझ
पाते दर्द,
किसी बिलखती माँ की आँखों का.

* *
- शांतनु सान्याल

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In the Mist of a Memory by Hanne Lore Koehler

12 सितंबर, 2014

तख़लीक़ ए साज़िश - -

वो तमाम वाक़िफ़ चेहरे, और
उनका यूँ ख़ूबसूरती से
रुख़ बदलना क्या
कहिए, जो
भी हो
तल्ख़ी ए ज़िन्दगी क्या चीज़
है, इस बहाने मालूम तो
हुआ, वो शख़्स
जो अक्सर
करता
रहा दावा, उम्र भर की दोस्ती
का, उसी ने बरख़िलाफ़
मेरे की थी तख़लीक़
ए साज़िश !
लम्हा
लम्हा सांसों में घुल कर, यूँ -
उसका रूह ए क़ातिल
में बदलना क्या
कहिए - -

* *
- शांतनु सान्याल

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painting by artist Fabio Cembranelli

10 सितंबर, 2014

घूमता रंगमंच - -

मुझे मालूम है अच्छी तरह, दुनिया
का वही अनवरत लेनदेन,
निःशर्त यहाँ कोई
नहीं चलता
साथ
दो क़दम, यूँ तो कहने को है अनंत -
अनुबंध का साथ अपना, न
तेरे चेहरे में होगी कोई
दीर्घ, दुःख की
लकीर !
न मेरी निगाहों में है बाक़ी क़तरा ए
नमी, कि वक़्त हर घाव को
भर देता है बिना कुछ
कहे, जानता हूँ
तुम भी
इक दिन भूला दोगे सब कुछ, पलक
गिरते ही बदल जाते हैं सभी
मंज़र, सिर्फ़ घूमता रह
जाता है रंगमंच
सामने।

* *
- शांतनु सान्याल

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art by Colleen Sanchez

06 सितंबर, 2014

शीशे के ख़्वाब - -

कोई पारदर्शी पंखों वाला ख़्वाब, अक्सर
मुझे ले जाता है बहोत दूर, इक
महाशून्य के बहोत अंदर,
जहाँ बसती है रंगीन
तितलियों की
ख़ूबसूरत
दुनिया, फूलों के आकाशगंगा, ज़िन्दगी
जहाँ झूलती है सप्तरंगी झूला,
हर चेहरे में है उभरती
ताज़गी, हर इक
छुअन में
जहाँ है मौजूद दुआओं का असर, इक - -
ऐसी दिलकश हक़ीक़त, जिसमें
बसते हैं ख़ालिस जज़्बात,
या यूँ कह लें जहाँ
हर दिल में,
कहीं न कहीं बसता है इक मासूम बच्चा,
और उसकी आँखों में उभरते हैं
मुक़द्दस सपने, जो गुमनाम
रह कर भी ज़िन्दगी
में रंग भरते हैं
बेशुमार।

* *
- शांतनु सान्याल
 

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art by samir mondal India

28 अगस्त, 2014

शायद उसने सोचा था - -

 शायद उसने सोचा था, कि उसके बग़ैर
मेरी ज़िन्दगी, इक ठूंठ से कुछ
कम न होगी, लेकिन
ऐसा कभी नहीं
होता, हर
ज़ख्म
का इलाज है मुमकिन, पतझड़ के बाद
बहार का लौटना है मुक़र्रर, इक
दिल ही टूटा था वरना हर
शै थी अपनी जगह
बतौर मामूल !
सो हमने
भी दर्दो ग़म से समझौता सीख लिया -
सूखे पत्तों की थीं अपनी क़िस्मत,
या उम्र का तक़ाज़ा, जो भी
कह लीजिए, शाख़
से गिरना था
तै इक
दिन, कोंपलों की है अपनी दुनिया, हर
हाल में था उन्हें उभरना, चुनांचे
हमने भी मौसमी हवाओँ
से बख़ुदा, दोस्ती
करना सीख
लिया,
ये सच है कि तेरी मुहोब्बत इक नेमत
से कम न थी, फिर भी हर हाल
में हमने जीना सीख
लिया।

* *
- शांतनु सान्याल

 

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art by Karen Margulis
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26 अगस्त, 2014

किसे यहाँ ख़बर - -

नाकामियों से ही, मैंने सीखा है -
ज़िन्दगी जीना, चैन कहाँ
मिलता है हार जाने
के बाद, कि इक
बेक़रारी
मुझको रुकने नहीं देती शिकस्त
बिंदु पर, जहाँ रुकते  हैं मेरे
क़दम, वही से मेरा 
आग़ाज़ ए
सफ़र
होता है, ये तै नहीं कि आसमानी
लकीर ही है मेरी मंज़िल,
सुना है, कहकशाँ से
भी आगे है कोई
ख़ूबसूरत
जहां !
चाहे जितनी भी बुलंद क्यूँ न हो
ज़माने की तंज़िया हंसी !
हर शै की उम्र है
मुक़र्रर
कौन किस पल बिखर जाए - - -
किसे यहाँ ख़बर - -

* *
- शांतनु सान्याल 


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art by Karen Margulis

06 अगस्त, 2014

सब कुछ था उसमे लेकिन - -

कुछ रंगीन कांच के टुकड़े या
फ़र्श में बिखरे हुए हैं टूटे
ख़्वाब के आंसू,
लेकिन
शीशे की थी अपनी मजबूरी -
सो टूट गया, मेरे चेहरे
में वो अक्सर न
जाने क्या
ढूंढते
हैं, जबकि मुद्दतों से हमने - -
आईना नहीं देखा, वो
गुलदान था कोई
दिलकश, जो
ज़माने
से रहा दिल में क़ाबिज़, ये -
और बात है कि उसके
सीने में सजे थे
सिर्फ़
काग़ज़ के फूल, सब कुछ - -
था उसमे लेकिन ख़ुश्बू
ए वफ़ा न थी - -

* *
- - शांतनु सान्याल 


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29 जुलाई, 2014

बाज़ार ए हिराज - -

 न जाने कैसी बेबसी थी उनको,
देखता रहा यूँ ख़ामोश
खड़ा सारा समाज,
ये कैसी
तहज़ीब ओ सफ़ाक़त का मंज़र
था नज़र के सामने, कि फिर
सजी, खुलेआम बाज़ार
ए हिराज,
इस दौर को क्या नाम दें, हर - -
चीज़ यहाँ है बिकने को
तैयार, न रहा अब
कोई शाहजहाँ,
न कोई
रूहे मुमताज़, कहने को यूँ तो
है हर दिल में यहाँ, इक
ताजमहल, ख़ूबसूरत
बहोत लेकिन
बग़ैर
आवाज़, बेड़ियों में घुटती हुई
हो जैसे परवाज़।

* *
- शांतनु सान्याल
अर्थ : 
तहज़ीब ओ सफ़ाक़त  - सभ्यता और संस्कृति
बाज़ार ए हिराज - नीलामी बाज़ार
परवाज़ - उड़ान
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20 जुलाई, 2014

कुछ भी याद न रहा - -

 तारों के झूमर में कहीं आसमां था
गुम, तमाम रात, दिल मेरा
यूँ ही जलता बुझता
रहा मद्धम -
मद्धम,
सांसों में थी इक अजीब सी बेकली,
धड़कनों की रफ़्तार जानलेवा,
कल रात न जाने कहाँ
थे ये दुनिया वाले
और न जाने
कहाँ थे
हम, हर सिम्त था इक कोहराम - -
सा बरपा हुआ, हर गली ओ
चौराहे में थी भीड़ सी
लगी हुई, फिर
भी न
पहचान पाए लोग हमें, जबकि हम
गुज़रे दरमियान उनके बेख़ौफ़
बेपर्दा, पैरों तले था इक
राह पिघलता हुआ,
इसके सिवा
हमें कुछ
भी याद न रहा, इक मुसलसल - -
दहन थी हमारी दुनिया !

* *
- शांतनु सान्याल

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16 जुलाई, 2014

बाज़ी ए आतिश - -

सहमे सहमे से हैं क्यूँ तेरे अहसास,
तू मेरे क़रीब है या, कोई पिन्हां
है तेरे आसपास, न खेल
यूँ बाज़ी ए आतिश
से इसमें इक
दिन
झुलसना है लाज़िम, न खो दे कहीं
तू होश ओ हवास, कोई पिन्हां
है तेरे आसपास, मैं वो
शै हूँ जो हर दौर
में उभर
आए
गर्द ओ ग़ुबार से भी, कि मेरा इश्क़
है हमआहंग तेरी साँसों से,
अब बहोत मुश्किल
ही नहीं बल्कि
नामुमकिन
सा है
तेरा यूँ मेरे नफ़स से बाहर जाना - -

* *
- शांतनु सान्याल

 

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पिन्हां  - छुपा हुआ 
बाज़ी ए  आतिश  - आग का खेल 
हमआहंग  - एकाकार 
नफ़स - आत्मा

15 जुलाई, 2014

अब जा के बरसे हैं बादल - -

अब जा के बरसे हैं बादल, जब अंकुरित -
खेत मुरझा गए, वो तमाम मातबर,
रौशन फ़िक्र, राज़ ए मौसम
जान न पाए, कभी
देखा आसमां
की ओर,
कभी ज़मीं पे खींचीं अनबूझ लकीरें, ज़रा
सी बात को लफ़्ज़ों में उलझा गए,
पीर दरवेश साधु संत, न
जाने कितने रूह
मजनून,
लेकिन नबूत हक़ीक़ी दिखा न पाए, आए
ज़रूर मंज़र ए आम, देखा इक नज़र
और मुस्कुरा गए, दरअसल
ये तमाम ख़शुनत ओ
वहशीपन है
सिर्फ़
जूनून आरज़ी, किसने देखा है ख़ूबसूरत -
सिफ़र को, अपने पराए जो भी आए
बेवजह दिल ओ दिमाग़ बहका
गए, अब जा के बरसे हैं
बादल, जब अंकुरित
खेत मुरझा
गए.

* *
- शांतनु सान्याल

Joe Cartwright's Watercolor Blog
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 मातबर - जवाबदार 
नबूत हक़ीक़ी- सत्य  भविष्यवाणी
ख़शुनत - हिंसा 
 
आरज़ी - अस्थायी 

11 जुलाई, 2014

परिंदों का जहाँ - -

 शायद इक नया आसमां खोजता हूँ, ऊँचे
सब्ज़, सायादार दरख़्तों में आबाद
कहीं, इक परिंदों का जहाँ
खोजता हूँ, न लगे
जिसको
कभी बाज़ ए नज़र, खिलते रहें शाख़ों में
गुल यूँ ही आठों पहर, महफ़ूज़ रहे
हर मौसम में जो, सदाबहार
की मानिंद, इसलिए
कोई जां निसार
बाग़बाँ
खोजता हूँ, न मंदिर, न मस्जिद, न किसी
गुम, गौहर ए ख़ुदाई की तलाश है,
जो जोड़ सके दिलों को, दरारों
के बग़ैर, ऐसा कोई सफ़ाफ़
दिल मेहरबां खोजता
हूँ, सायादार
दरख़्तों में आबाद कहीं, इक परिंदों का - -
जहाँ खोजता हूँ - -
* *
- शांतनु सान्याल

गौहर ए ख़ुदाई - दिव्य रत्न

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10 जुलाई, 2014

भूल गए - -

इक आग की बारिश, और अंतहीन रात
की ख़ामोशी, ज़माने  से बेख़ौफ़
यकजा ज़हर पीने की
ख़्वाहिश, न
चाँद
नज़र आया, न शब का गुज़रना याद - -
रहा, उफ़क़ पे हंगामा सा बरपा,
मुक़्तसर रात और तवील
ज़िन्दगी, यूँ गुज़री
हम अक्स
अपना
भूल गए, मंदिर ओ मस्जिदों में इश्तहार
ए गुमशुदगी लगा गया कोई,
हर सू थे यूँ तो मानोस
चेहरे, फिर भी न
जाने क्यूँ,
हम
अपना ठिकाना भूल गए, हमें तो मिल गए
दोनों जहाँ बेख़ुदी में, कुछ अजीब ही
सही, हमारी दास्ताँ ए मुहोब्बत,
हम इक दूसरे की ख़ातिर
ये सारा ज़माना
भूल गए - -

* *
- शांतनु सान्याल
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beyond the window

08 जुलाई, 2014

बंजारे बादल - -

जाने किस ओर मुड़ गए सभी वो  बंजारे बादल 
 देख सूखी रिश्तों की बेल, हम बहोत परेशां हुए,

 
जोगी जैसा चेहरा, मरहमी वो दुवागो वाले हाथ  

आमीन से पहले, न जाने क्यूँकर लहुलुहान हुए,
 
बूढ़ा बरगद, सुरमई सांझ, परिंदों का कोलाहल 
पलक झपकते, जाने क्यूँ अचानक सुनसान हुए, 

 
खो से गए कहीं दूर, मुस्कराहटों के  वो झुरमुट 
आईने का शहर, और भीड़ में हम अनजान हुए,

 
स्याह, ख़ामोश, बेजान, बंद खिड़की ओ दरवाज़े 
संग-ए-दिल, मुसलसल दस्तक, हम पशेमां  हुए ,

 
उम्र भर दोहराया,आयत, श्लोक, पाक किताबें -
मासूम की चीख न समझे, यक़ीनन बेईमान हुए ,

 
जाने किस देश में बरसेंगे मोहब्बत के बादल !
ये ज़मीं, गुल-ओ-दरख़्त, लेकिन वीरान हुए ,

 
----शांतनु सान्याल

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03 जुलाई, 2014

हम बहोत दूर निकल आए - -

थक सी चली है दूर सितारों की महफ़िल,
आसमान भी कुछ, ऊंघता सा नज़र 
आए, तेरे इश्क़ में हम न 
जाने कहाँ से कहाँ 
तक चले 
आए, 
टूट चुकी हैं सभी ज़माने की ज़ंजीरें, न -
रोक पायीं हमें ऊँची मीनारों की 
दुनिया, देखना है अब हमें 
ये क़िस्मत कहाँ ले 
जाए, बिन 
पंख 
परवाज़ लिए हम उड़ रहे हैं राहे फ़लक 
में, बहोत दूर छूट चुकी ज़मीं की 
हक़ीक़त, सुलगते सरहदों 
की तपिश, हम पहुँच 
चुके हैं ऐसी 
जगह,
जहाँ कुछ भी तफ़ावत नहीं इंसानों के - 
दरमियां, जहाँ बसती है ख़ालिस 
रूहों की दुनिया, मुहोब्बत 
और असल ईमां की 
दुनिया, तमाम 
फ़लसफ़े 
जहाँ 
हो जाएं बेमानी, महज़ इंसानियत रहे 
बाक़ी, अफ़सोस ! तमाम वाक़िफ़ 
चेहरों से हम बहोत दूर 
निकल आए - - 

* * 
- शांतनु सान्याल 
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29 जून, 2014

खोयी हुई बहारें - -

कुछ देर यूँ ही रहने दे आबाद, मेरी
ख़्वाबों की दुनिया, ये सितारों
की बस्ती, ये सिफ़र में
तैरते रौशनी के
धारे, आज
की रात
गोया सिमट सी आई है कायनात
तेरी निगाहों के किनारे, न
कोई बुतख़ाना, न कोई
बेशक्ल ख़ुदा मेरा,
फिर भी न
जाने -
क्यूँ तेरे इश्क़ में ज़िन्दगी को मिल
गई है, मुद्दतों खोयी हुई बहारें।

* *
- शांतनु सान्याल  

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28 जून, 2014

अक्स ए जुनूं - -

न छू मुझे यूँ अपनी गर्म साँसों से,
रहने दे कुछ देर और ज़रा 
यूँ ही, मोम में ढला 
सा मेरा वजूद, 
अभी तो 
सिर्फ़ डूबा है सूरज, अँधेरे को कुछ 
और सँवर जाने दे, कुछ और 
ज़रा दिल के आईने में, 
अक्स ए जुनूं 
उभर जाने 
दे, न 
पूछ मेरे मेहबूब, छलकती आँखों 
के ये राज़ गहरे, इक उम्र नहीं 
काफ़ी, इनमें डूब के उस 
पार निकलने के 
लिए, कई 
जनम 
चाहिए इसकी तह तक पहुँचने के 
लिए - - 

* *
- शांतनु सान्याल  



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Mary Maxam - paintings

21 जून, 2014

पारदर्शी सत्ता - -

अंतहीन जीवन यात्रा, असंख्य क्षितिज 
रेखाएं, अथाह नेह सरोवर, उदय -
अस्त के मध्य सृष्टि का 
नित काया कल्प,
अनबूझ 
अंतरिक्ष, विस्तृत छाया पथ, महाशून्य 
के मध्य चिरंतन, प्रवाहित आलोक 
निर्झर, लौकिक द्वंद्व से 
मुक्त एक महत 
अनुभूति,
हर एक श्वास में वो अन्तर्निहित, हर 
एक अश्रु कण में वो उद्भासित,
रिक्त थे समस्त पृष्ठ,
जब नियति ने 
खोला जीवन 
ग्रन्थ !
सभी अपने पराए थे बहुत मौन या थी 
छद्म वेश की पुनरावृत्ति, उस 
शाश्वत सत्य के समक्ष 
लेकिन, हर एक 
अस्तित्व 
था पूर्ण उलंग, पारदर्शी उस सत्ता से 
बचना नहीं सहज - - 

* * 
- शांतनु सान्याल 
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lotus lake 

12 जून, 2014

इक लम्हा कोई - -

इक लम्हा कोई तेरी ओंठों से -
चुराया हुआ, मुद्दतों से 
हम, जिसे सीने 
से लगाए 
बैठे 
हैं, उठ रहे हैं बादलों के बवंडर,
रह रह कर, न जाने किस 
हसरत में, तहे दिल 
हम इक चिराग़ 
जलाए बैठे 
हैं, दूर 
तक है बिखरी हुई ख़मोशियाँ,
आसमां भी है कुछ 
बदगुमां सा,
फिर भी 
न 
जाने क्यूँ हम, निगाहों में इक 
जहान ए रौशनी सजाए 
बैठे हैं, ये सच है, कि 
तेरी दुनिया में 
मेरी 
हस्ती, इक बूँद से ज़्यादा कुछ 
भी नहीं, फिर भी न जाने 
क्यूँ  दिल में, हम 
समंदर की 
आस 
लगाए बैठे हैं, इक लम्हा कोई 
तेरी ओंठों से चुराया हुआ, 
मुद्दतों से हम, जिसे 
सीने से लगाए 
बैठे हैं - - 

* * 
- शांतनु सान्याल 
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oil painting by Doris Joa

09 जून, 2014

अंतहीन आसमान - -

सजल भावनाओं को यूँ ही अंतहीन 
आसमां मिले, कोई रहे न रहे 
तेरे आसपास, लेकिन 
तुझे रौशनी में 
डूबा हुआ 
कारवां मिले, मिन्नतों की सदा - - 
लौटती नहीं बाज़गश्त बन 
कर, दरगाह से बढ़ 
कर तेरे दिल 
को इक
पाकीज़ा मकां मिले, तेरी निगाहों में 
हो अक्स इंसानियत, कि राह 
शोज़िश में भी तुझे कहीं 
न कहीं सादिक़ 
रहनुमां 
मिले, यूँ तो ज़माने की इस भीड़ में -
फ़ेहरिश्त ए हमदर्द है बहुत 
लम्बी, जो आदमी को 
समझे सिर्फ़ 
आदमी !
नाम निहाद कोई तो सच्चा इन्सां -
मिले।

* * 
- शांतनु सान्याल  

 बाज़गश्त - प्रतिध्वनि 
शोज़िश - जलता हुआ 
सादिक़ - ईमानदार 
नाम निहाद - तथा कथित 

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art by RoseAnn Hayes

06 जून, 2014

सूखे पत्तों के ढेर - -

अजायबघर की तरह कभी कभी 
अहसास हो जाते हैं बहोत 
ख़ामोश, निर्जीव से, 
काँच के डिब्बों 
में बंद !
जीवित अंगों में अदृश्य जीवाश्म 
की प्रक्रिया ! दरअसल हम 
ख़ुद से निकलना ही 
नहीं चाहते, जाने 
अनजाने 
फँसे 
रहते हैं रेशमकोश के मध्य, और 
ख़ूबसूरत मौसम बदल जाते 
हैं निःशब्द, रफ़्तार भरी 
इस दुनिया में कोई 
किसी के लिए 
नहीं रुकता, 
जब 
बाहर आने की ख़्वाहिश जागती 
है दिल में, तब रहता है बाक़ी 
राहों में बिखरे हुए सूखे 
पत्तों के ढेर - - 

* * 
- शांतनु सान्याल 


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art by linda blondheim.jpg 1

05 जून, 2014

बहुत दूर कहीं - -

फिर कोई रात ढले, सजा गया 
ख़ुश्बुओं से शून्य बरामदा, 
दिल की परतों पे अब 
तलक हैं शबनमी 
अहसास, वो 
कोई 
ख़्वाब था या जागी नज़रों का 
भरम, कहना है बहोत 
मुश्किल, तमाम 
रात, जिस्म 
वो रूह 
थे गुम किसी अनजान द्वीप 
में, जुगनुओं के सिवा, 
वहां कोई न था 
राज़दार
अपना, हम जा चुके हैं बहोत 
दूर तेरी महफ़िल से 
ये दुनिया 
वालों !

* * 
- शांतनु सान्याल 
  

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art by ledent pol

02 जून, 2014

कहीं न कहीं - -

उन मुंतज़िर निगाहों में है मेरा
इंतज़ार कहीं न कहीं, ये
और बात है, कि वो
देखते हैं नज़र
चुराए
आसमां की जानिब, पिघलते
बादलों में है शायद मेरा
प्यार कहीं न कहीं,
यूँ तो सारा
शहर
है मुख़ालिफ़ मेरे, लेकिन उस
के दिल में है मेरी बेगुनाही
का ऐतबार कहीं न
कहीं, वक़्त के
आईने में
मेरा
वजूद कुछ भी नहीं, फिर भी
न जाने क्यों, उसका
ज़मीर है सिर्फ़,
मेरा ही
तलबगार कहीं न कहीं, उन
मुंतज़िर निगाहों में
है मेरा इंतज़ार
कहीं न
कहीं।

* *
- शांतनु सान्याल
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painting-watercolor-flowers 

31 मई, 2014

अर्ज़ ख़ास - -

इक न इक दिन मैं उड़ जाऊँगा, न रख 
मुझे अपने क़फ़स ए दिल में,
बुलाती हैं मुझे ख़ामोश 
वादियाँ, देती हैं 
सदा सहरा 
की 
तन्हाइयाँ, न जाने क्या छुपा है उस ना 
शनास मंज़िल में, भटकती हैं 
निगाहें, रूह भी है बेताब 
सी, कि मेरा वजूद 
है, गोया इक 
ग़ज़ाल 
प्यासी, भटके है मुसलसल ये ज़िन्दगी 
नमकीन साहिल में, न रख मुझे 
बंद, यूँ ख़ूबसूरत शीशी में,
कि मैं हूँ इक ख़ुश्बू 
ए वहशी, खो 
जाऊँगा 
न जाने कब घुटन के जंगल में, न रख 
मुझे अपने क़फ़स ए दिल में - - 

* * 
- शांतनु सान्याल 

क़फ़स ए दिल - दिल के पिंजरे में
 ना शनास  - अजनबी  
ग़ज़ाल - हिरण 
साहिल - किनारा 
वहशी - जंगली 
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 One day I'll Fly Away - by wallis 

30 मई, 2014

मीलों लम्बी तन्हाई - -

असंकलित ही रहा सारा जीवन,
हालाकि उसने संग्रह करना 
चाहा बहोत कुछ, दर -
असल, नियति 
से अधिक 
पाना 
व्यतिक्रम से ज्यादा कुछ भी - -  
नहीं, कब उठ जाए सभी 
रंगीन ख़ेमे कहना 
है बहोत 
मुश्किल,फिर वही ख़ाली बर्तन !
अध झुकी सुराही, कहाँ 
मुमकिन है, स्थायी 
ठौर मेरे हमराही,
जहाँ थी 
आबाद कभी, इक मुश्त ख़्वाबों 
की ज़मी, आँख खुलते 
ही देखा बियाबां
के सिवा 
कुछ भी नहीं, और मीलों लम्बी 
थी तन्हाई  !

* * 
- शांतनु सान्याल 
  
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29 मई, 2014

बहोत नज़दीक - -

वो दर्द ही था, जो रहा उम्र भर 
बावफ़ा, बहोत नज़दीक 
मेरे, वरना कौन 
साथ देता 
है यूँ 
ग़म की अँधेरी रातों में, चेहरे 
सभी लगे यकसां, जो भी 
मिले, ज़िन्दगी के 
सफ़र में, 
वही 
छुपी हुई घातें, वही मरमोज़  
ए नज़र थी, उनकी बातों 
में, कहते हैं कि यक़ीं, 
पत्थर में भी, 
अक्स ए 
ख़ुदा 
तस्लीम करे, यही वजह थी 
कि हमने सब कुछ 
निसार किया 
उनकी 
छुपी हुई ख़ूबसूरत घातों में - 

* * 
- शांतनु सान्याल 


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28 मई, 2014

नव क्षितिज की चाहत - -

उगते सूरज के साथ जब जागे निसर्ग,
कण कण में जीवन दिखाई दे
स्पष्ट, काल चक्र के
साथ हर कोई
श्रृंखलित,
कोई
कितना भी चाहे रोकना, कहाँ रुकते -
हैं मौसमी बयार, सृष्टि का
विधान है परिवर्तन,
सदैव अनवरत,
कभी झरे
पल्लव
और कभी डालियों में झूलते हैं कुसुम
वृन्त, कभी प्लावित मरुभूमि
के रेतीले पहाड़ और
कभी जीवन
वृष्टि -
छाया में परित्यक्त, फिर भी हर हाल -
में जीवन, उत्क्रांति की ओर
अग्रसर, निरंतर नव
क्षितिज की
चाहत।

* *
- शांतनु सान्याल

25 मई, 2014

ज़िन्दगी - -

अपठित पृष्ठों में कहीं मयूर पंख 
की तरह, बाट जोहती सी 
ज़िन्दगी, किसी
रुमाल के 
कोने 
में रेशमी धागों के मध्य, अदृश्य 
महकती सी ज़िन्दगी, न 
जाने कितने रंग 
समेटे है ये 
जीवन, 
कभी ग्रीष्मकालीन अरण्य नदी -
की तरह, अपने किनारों को 
समेटती ज़िन्दगी, कभी 
सीने में ओस बूंद 
लिए, कांटों 
से उभरती हुई सी ज़िन्दगी, अपठित 
पृष्ठों में कहीं मयूर पंख की 
तरह, बाट जोहती सी 
ज़िन्दगी - - 

* * 
-  शांतनु सान्याल  
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24 मई, 2014

पिघलता रहा आकाश - -

बहोत फीके फीके से लगे झूलते 
सुनहरे अमलतास, न जाने 
कैसा दर्द दे गया कोई,
गहराता रहा 
हर पल 
जीवन में एकाकीपन, वैसे तो -
जन अरण्य था यथावत
मेरे आसपास, 
वीथिका  
के दोनों तरफ, वन्य कुसुमों से 
लदी डालियों से छलक 
रहे थे मदिर गंध,
न जाने 
फिर भी बहोत नीरस था तुम - 
बिन मधुमास, तृष्णा 
मेरी रही अनबुझ,
अपनी जगह,
मरू प्रांतर 
की तरह, कहने को बारम्बार -
पिघलता रहा आकाश !

* * 
- शांतनु सान्याल 




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