30 नवंबर, 2022
पुराना अलबम - -
बेमानी उन्वान होते हैं, महज ख़ानदानी नज़राना,
झूलते रहे रंगीन फीते, संग ए बुनियाद रहा तनहा,
स्याह बस्ती का ज़ख्म है नासूर, दुनिया से बेगाना,
चाँद, सितारे, इश्क़, मुहोब्बत तक है, हदूद उनकी,
एक मुद्दत से लोग भूल चुके हैं, खुल के मुस्कुराना,
अब आवाज़ में, वो कशिश नहीं बाक़ी,जो कभी थी,
वाक़िफ़ चेहरा भी तलाशता है भूल जाने का बहाना,
माज़ी के पन्नों में वो खोजता है गुमशुदा अक्स को,
कबाड़ में लोग बेच देते हैं अक्सर, अलबम पुराना ।
* *
- - शांतनु सान्याल
29 नवंबर, 2022
वसीयत - -
वक़्त ए तपिश को, साया ए दीवार नहीं मिलते,
क़ुदरती मोतियों को, सही ख़रीदार नहीं मिलते,
ज़िंदगी हर मोड़ पर चाहती है, खुल के संवरना,
रंग की कोई कमी नहीं पैकर निगार नहीं मिलते,
किताबों तक हैं सिमटे हुए, क़िस्सा ए मसीहाई,
ज़ालिमों की मजलिस में, मददगार नहीं मिलते,
इस शहर में है इक अजीब सी अंतहीन ख़मोशी,
लब ए थिरकन को, मनचाहे झंकार नहीं मिलते,
पतझर में भी मेरी जां मुस्कुराने का फ़न चाहिए,
हर एक को वसीयत में वादी ए बहार नहीं मिलते,
* *
- - शांतनु सान्याल
28 नवंबर, 2022
ख़ाली हाथ - -
सब्ज़ बाग़ दिखा कर, लोग लूट लेते हैं सरे आम,
हर मोड़ पे होता है पोशीदा राहज़नी का इंतज़ाम,
मुखौटों का है मुक़ाबला, नामनिहाद सभी पारसा,
अंधा है हाकिम, घुटनों के बल रेंगता हुआ अवाम,
मुंह में ज़ुबान तो रखता है, बस बोलता कोई नहीं,
सांप सीढ़ी के बीच झूलते हैं सभी यहां सुबह शाम,
सफ़ेद काले चौकोरों में खड़े हैं, नक़ाब पोश मोहरें,
मौक़ा मिलते ही लोग कर जाएंगे, खेल को तमाम,
शहर में मनाया जाता है इन्क़लाब का रोज़ ए मर्ग,
मशाल बरदार हैं ख़ाली हाथ ग़द्दारों को मिले ईनाम,
* *
- - शांतनु सान्याल
अपने हिस्से की धूप - -
अमावस हो, या चाँद रात वो परेशां नहीं होता,
चाहतों की भीड़ में है इक मुश्त सुकूं की खोज,
हर एक घर अंदर से, राहते आशियां नहीं होता,
तक़दीर से मिलते हैं ज़िन्दगी में हमराह वाक़ी,
हरएक ख़ाली दामन पे ख़ुदा मेहरबां नहीं होता,
कहने को लुटा हूँ बारहा इस तिलस्मी शहर में,
आदतन अब, फ़रेबी बातों से मैं, हैरां नहीं होता,
न वो नेकी रही, न ही दरिया का है कोई सुराग़,
गले मिलने भर से कोई पूरा आशना नहीं होता,
ज़रूरी तो नहीं कि नरम धूप तुम तक ही पहुंचे,
सिर्फ़ किसी एक के लिए नीला आस्मां नहीं होता ।
* *
- - शांतनु सान्याल
27 नवंबर, 2022
अथाह गहराई - -
सितारों का है समारोह, सज चला है नीला आसमां,
साथ हमारे चल रहा है, अंतहीन रौशनी का कारवां,
मंत्रमुग्ध पलों में बिखर रही है वन्य पुष्पों की महक,
चाँदनी के परिधान ओढ़े, बढ़ चले हैं हम जाने कहाँ,
पल भर में जी ली है, इक लम्बी उम्र जीने की खुशी,
सजल अधर पर बिखरे पड़े हैं, सुधा बूंद जहाँ - तहाँ,
पलकों पर हैं पलकें झुके हुए, देह गंध बने एकाकार,
युगल रूहों का है ये मिलन, अपृथक हैं दो परछाइयां,
स्वर्ग नरक, धर्म अधर्म, पाप पुण्य, अपना या पराया,
जितना डूबें दूर वो सरके सोच से परे हैं वो गहराइयां,
* *
- - शांतनु सान्याल
लापता वजूद - -
मौसम बदलते ही सिमट चले हैं नदी
के दोनों किनार, धूसर स्मृतियां
ढूंढती हैं न जाने किसे,
हाथों में लिए कोई
भूल ठिकाना,
पुरातन
कोई
किताबी गंध है या लिफ़ाफ़ा बंद अफ़साना,
कच्ची धूप के हमराह, कौन दस्तक
देता है बारम्बार, रेतीला द्वीप
उभर आया है ठीक
मझधार, मौसम
बदलते ही
सिमट
चले
हैं नदी के दोनों किनार । हद ए नज़र कभी
हुआ करता था, बकुल का दरख़्त -
बहुत ऊंचा, जिस में खिलते
थे सहस्त्र कर्ण फूल,
हवाओं में तैरा
करती थी
एक
मधुर सी गंध, देखते ही देखते एक दिन वो
पेड़, अचानक ही हो गया लापता,
उसके आसपास खड़े थे ऊंचे -
ऊंचे कंक्रीट के जंगल,
दरअसल हटते -
हटते हमारा
वजूद एक
दिन
हो जाता है अदृश्य, यहाँ तक कि ठूंठ तक
उखाड़ लेते हैं लोग, और हम करते हैं
यथास्थिति स्वीकार, रेतीला
द्वीप उभर आया है ठीक
मझधार, मौसम बदलते
ही सिमट चले हैं
नदी के दोनों
किनार ।
* *
- - शांतनु सान्याल
26 नवंबर, 2022
चिरहरित अनुभूति - -
शैशव पलों में दौड़ गया था, उन्मुक्त हो बेपरवाह,
अंकुरित भावनाओं में थे चिपके हुए मासूम खोल -
नव पल्लवों को न मिल सकी कच्ची धूप की थाह,
जाने कब लिखी थी, ग़लत हिज्जों वाली वो चिट्ठी,
संग बही, जो पहली बारिश में थी काग़ज़ की नाव,
तरुण पलों में चाहा था, उसे बांधना, ह्रदय कगार, -
वो कोई उन्मुक्त नदी थी, जिसे नापसंद था ठहराव,
प्रौढ़ क्षणों का एहसास, इक किताब का सूखा गुलाब,
जो कभी नहीं मरता वो है, सदाबहार सा, इक ख़्वाब,
वर्षा की चंचल बूंदों का सुख है, हथेलियों का स्पर्श,
वैसे भी राही को है जाना, बिन कोई माल असबाब,
* *
- - शांतनु सान्याल
24 नवंबर, 2022
शून्य मंच - -
ढूंढता है ये जीवन महा अरण्य में, जुगनुओं के घर,
अश्वत्थ की जटाओं से उतरती है मायाविनी रात्रि, -
एक ही सांचे में ढले हम सब, एक ही पथ के यात्री,
प्रति पल अनंत दीपशिखा जागृत हो अंतरतम में,
तिमिर भेद कर प्रवाहित हों सुदूर सागर संगम में,
महामार्ग में आ मिलते हैं, सभी सहस्त्र पगडंडियां,
दो दिन के महोत्सव, पल भर की सभी रंगरलियां,
बहुरूपी है ये चेहरा गांव गंज घूमती है प्रतिच्छाया,
सजल रेखाओं को जग में कौन भला है पकड़ पाया,
इस रात के सीने में हैं, न जाने कितने ही यवनिका,
हाशिए का मर्म अधूरा, वैसे उसने बहुत कुछ लिखा,
शून्यमंच के आगे पंक्तिबद्ध हैं अपनी जगह कुर्सियां, -
नेपथ्य में गुम है कोलाहल, ख़ामोश सी पड़ी तालियां ।
- - शांतनु सान्याल
23 नवंबर, 2022
बहुत कुछ बाक़ी है - -
साहिल पे उतरे हैं पांव पूरा मझधार बाक़ी है,
बेख़ुदी में, पी तो लूँ चश्म ए शराब, ऐ दोस्त,
बेहोशी से पहले, दरपेश ज़रा ऐतबार बाक़ी है,
उतरती है रात लड़खड़ाती हुई, नील पहाड़ों से,
बा मुश्ताक़ गुलों में, सुबह ए इंतज़ार बाक़ी है,
अभी अभी तो पिघली हैं बर्फ़ की नाज़ुक ज़मीं,
धुंध की वादियों में, लौटती हुई बहार बाक़ी है,
हर कोई देखना चाहे है, ख़ुद का चेहरा बेदाग़,
ज़ेर ए नक़ाब आइने का राज़े इज़हार बाक़ी है,
अंजामे मसावात ज़रूरी नहीं शून्य ही निकले,
अक्से फ़लक का अभी असल किनार बाक़ी है,
उस निगाह के अंदर दूर तक है, नूर ए हयात,
ख़ुद से निकलें ज़रा अभी सारा संसार बाक़ी है,
* *
- - शांतनु सान्याल
22 नवंबर, 2022
बंजारे की वापसी - -
न जाने कितने सहस्त्र मील दूर -
मैं चला हूँ एकाकी, नींद
आने से पहले, हर
मोड़ पर देखा
है एक नया
सपना,
कहकशां की दुनिया से टूट कर - गिरा हूँ मैं तुम्हारे रिक्त अंचल
में, ज़मीं की धूल में बिखर
जाने से पहले, न जाने
कितने देश देशान्तरों
में भटका हूँ मैं,
एक बूंद
अपनत्व को पाने से पहले, गली कूचा, गांव शहर, घाट बंदरगाह,
कहाँ नहीं तुम्हें तलाश किया, जबकि अंतरतम में बसे
थे तुम न जाने कितने
जन्म जन्मांतरों से,
अजस्र धन्यवाद
तुम्हारा, जो
तुमने
गले लगाया बहक जाने से पहले ।
* * शांतनु सान्याल
आयु रेखा - -
को है, लेकिन शून्यता में विलुप्त होने
से पहले बहुत कुछ याद आने
लगे हैं, सुबह सवेरे, धीरे
से दरवाज़ा खोल
कर, सावरकर
चौक तक
जा
सब्ज़ियों के साथ लौटना, पत्नी की दवाइयां
लाना, फोन रिचार्ज करना, बिजली का
बिल, इंटर नेट का बिल लैपटॉप
से भरना, बिटिया का फोन
बैंगलोर से आया या नहीं,
उसका बेटा कैसा है,
उसकी तबियत
तो ठीक है,
उसका
जॉब
तो ठीक ठाक चल रहा है, कबूतर, फ़ाख्तों -
को बाजरी के दाने मिले या नहीं, पत्नी
के साथ पराजित तर्क का प्रतिशोध
बाक़ी है, वग़ैरा वग़ैरा, कदाचित
पुनः गाण्डीव उठानी होगी,
क्या संभव नहीं है
हे ! केशव
उम्र की
रेखा
कुछ और बढ़ा दी जाए, अधूरे ख़्वाहिशों के
रंग कुछ और बिखरने को है, दहन -
कुण्ड जलाओ, मोम की रौशनी
बुझने को है - -
* *
- - शांतनु सान्याल
21 नवंबर, 2022
गंध परिधि - -
देह से उतर कर,परछाइयां ढूंढती हैं रात्रि निवास,
कोई गंध है, या अदृश्य सम्मोहन, जो खींचती हैं
बरबस उसकी ओर, ह्रदय तट उठते हैं उच्छ्वास,
वो सुखद स्पर्श जो लौटा लाता है, भोर की ताज़गी,
ख़ुश्बुओं की परिधि, कोई खींच जाता है आसपास,
अंधेरे में अप्रत्याशित लरज़ते हैं, चाहतों के बादल,
कांपते ओंठों पर, आ कर रुके से होते हैं दीर्घश्वास,
अपरिभाषित है वो अनंत मधुर स्वाद की अनुभूति,
प्रकृत पलों में देह पाता है, जीने का सत्य एहसास,
* *
- - शांतनु सान्याल
20 नवंबर, 2022
रंगीन पंख - -
जाते हैं कुछ एक रंगीन पंख,
कुछ अंधकार में टिमटिमाते
दो जोड़े आँखों की रौशनी,
चादर के सिलवटों पर
मौसमों के निशान,
साहिल पर पड़े
रहते हैं टूटे
हुए सीप
के कंकाल, रेत में धंसते हुए कुछ
निष्प्राण शंख, हथेलियों
में रह जाते हैं कुछ
एक रंगीन पंख ।
जीवन की
खोज
रहती है असमाप्त, निभृत पलों में
हम तलाशते हैं मोतियों की
चमक एक दूसरे के
अंदर, लेकिन
घिसे हुए
चश्मे
के
उस पार गहरे धुंध के सिवा कुछ
नहीं होता, लेकिन हम आज
भी छूना चाहते हैं अमरत्व
का जादुई अंक, वक़्त
उड़ जाता है तेज़ी
से, हथेलियों
में रह जाते
हैं सिर्फ़
कुछ एक टूटे हुए रंगीन पंंख - -
- - - - -
* *
- - शांतनु सान्याल
19 नवंबर, 2022
चाँद का अक्स - -
नीले समंदर में उतरा है चाँद, छूने को मचलते लोग,
हर एक परत में छुपे हुए हैं बहुमुखी रहस्यों के जाल,
बेमानी है यक़ीं, मोम के सांचे में हर पल ढलते लोग,
ताउम्र साथ रहने का दावा, ख़्वाब से कुछ कम नहीं,
अंध फ़क़ीर है दुनिया, दूसरों को गिरा संभलते लोग,
असल और सूद के दरमियां झूलते है रिश्तों के ग्राफ़,
ज़रूरत की घड़ी में यूँ पतली गली से खिसकते लोग,
फिर भी सफर ए ज़िन्दगी रुकता नहीं किसी के लिए,
तारीफ़ की चादर ओढ़ कर, भीतर भीतर जलते लोग,
* *
- - शांतनु सान्याल
18 नवंबर, 2022
केंद्र बिंदु - -
उदय के साथ ही अस्त का है पूर्वकथन,
धुंधली घाटियां हैं मृत्यु पार का जीवन,
जितना उलझो उतना ही राज़ गहराया,
पेड़ों को मालूम है हरित दिनों का सुख,
फूल जानता है टहनी से टूटने का दुःख,
सर्दियों की ख़बर रखती है मसृण काया,
गहन निशीथ गुलमोहर का मेघ स्नान,
ह्रदय वृत्त के अंदर हैं, सर्व अभ्युत्थान,
जादुई स्पर्श से अब तक कौन बच पाया,
जीने के लिए ज़रूरी है, नेहों का रसायन,
मूकसंधि के तहत हो, सुन्दर जीवनयापन,
केंद्र बिंदु पर जा भला कौन है लौट आया,
दिन के ढलान से, अनभिज्ञ नहीं है छाया ।
* *
- - शांतनु सान्याल
17 नवंबर, 2022
लघुत्तम पथ की चाह - -
निःशब्द सरसराहट के साथ, बदलते हैं जीवन के पृष्ठ,
तृण भूमि के सीने में है पुनर संचलन, जो थे नीम बेहोश,
थम चुका है काठ हिंडोला गहन निद्रा में है विशाल नगर,
पद दलित घास का मर्म रहा अज्ञात किसे होगा अफ़सोस,
नग्न वृन्तों पर आ कर, रुक जाती है करुणामयी चाँदनी,
दर्पण के धूम्रजाल में आ कर, मैं खोजता हूँ गहरा खरोंच,
आखरी प्रहर में पहुँच कर श्वास रुद्ध होते हैं सभी चित्कार,
आसान नहीं बदलना, पाषाणयुगीन बड़ी मछली की सोच,
निःशर्त यहाँ कुछ भी नहीं, केवल बदलते हैं प्रस्तुतिकरण,
लघुत्तम पथ की चाह में वो मढ़ते हैं दूसरों पर अपना दोष,
मध्य यामिनी, सुरभित शेफाली, झर रहे हैं बूंद बूंद ओस ।
* *
- - शांतनु सान्याल
16 नवंबर, 2022
कसाइयों के गिरफ़्त में - -
नाम गाम अता पता तो जानें, तबाह होने से पहले,
क़ातिल कोई निशां नहीं छोड़ता गुनाह होने से पहले,
अल्फ़ाज़ की चाशनी में छुपे रहते हैं, क़तरा ए ज़हर,
अपनों का उपदेश कुछ तो सुनें, बर्बाद होने से पहले,
ज़रूरत से ज़ियादा यक़ीं, ले जाता है अंधेरे की ओर,
नाज़ुक परों को लोग कतर देंगे आज़ाद होने से पहले,
हसीन ज़िन्दगी का भरम दिखा कर लूट लेते हैं लोग,
ख़ुद को बचाने का हुनर सीखें, नीलाम होने से पहले,
हर मोड़ पर खड़े हैं शिकारी, मजनू ओ रांझे के वेश में,
सोच समझ के गुज़रें यूँ टुकड़ों में तमाम होने से पहले ।
* *
- - शांतनु सान्याल
15 नवंबर, 2022
ख़ुशियों का फेरीवाला - -
उड़ूं भला कैसे पांव पड़ी मोह की जज़ीर है कोई,
दो खम्भों के मध्य झूलती सी है, आग्नेय रेखा,
दर्शकों के रूबरू पड़ी हुई नंगी शमशीर है कोई,
ज़रा सी नज़र भटकी, तो दुनिया ख़ुदा हाफ़िज़,
वो सुलगते राहों का, तन्हा सा राहगीर है कोई,
ख़रीद फ़रोख़्त के सिवाय कुछ भी नहीं यहाँ पे,
शातिर कारोबारी उजाले में मशहूर पीर है कोई,
ख़ालिस सोने का निःशब्द टूटना तो लाज़िम है,
आम नुक़्ता ए नज़र में वो फूटी तक़दीर है कोई,
हर शख़्स के लिए, जिसके दिल में हो मुहोब्बत,
ख़ुशियों का फेरीवाला, वो शायद फ़क़ीर है कोई,
इंसानियत का हिमायती ही होता है, सच्चा धर्म,
ताक़त की ज़ोर पे, बेकार ही आलमगीर है कोई ।
* *
- - शांतनु सान्याल
14 नवंबर, 2022
एक बूंद ओस - -
मिलने की चाह हो, कोई तक़ाज़ा न कीजिए,
दहलीज़ के पार, बेहद ख़ूबसूरत लगे दुनिया,
घर के अंदर रहने वालों को, रुस्वा न कीजिए,
बहोत ही मुश्किल से मिलते हैं, दिलों के पुल,
डुबकनी कश्ती की तरह, यूँ दग़ा न कीजिए,
घूमते आईने की तरह है, मौसम का मिज़ाज,
बंद आंखों से हर शख़्स पर, भरोसा न कीजिए,
न जाने किस छत पर, जा गिरे बर्क़ ए ख़तर,
खुल कर हंसिये यूँ मुंह दबाए हंसा न कीजिए,
बर्ग ए कंवल की तरह हो, ज़िन्दगी का दामन,
मुखौटों के आड़ में दुनिया को ठगा न कीजिये ।
* *
- - शांतनु सान्याल
13 नवंबर, 2022
दिल बंजारा - -
पलकों की छांव में रहता है, इक ख़्वाब आवारा,
कभी तो लरज़े, ख़ामोश मुजस्समे की तिश्नगी,
जी चाहता कि उढ़ेल दूँ, हयात ए जाविदां सारा,
ज़िन्दगी का हासिल है, उजाले का तक़्सीमकार,
राहते जां से कुछ कम नहीं, डूबता हुआ सितारा,
इतना उलझाव भी ठीक नहीं, यूँ डूबने से पहले,
हाथ तो उठाएं, किसे ख़बर, कौन दे जाए सहारा,
चाहतों के फ़ेहरिश्त में होते हैं, हज़ार प्रतिबिम्ब,
सुबह के उजाले में शून्य रहता है देह का पिटारा,
बिखरे पड़े हैं कांच के खिलौने, मोहपाश के आगे,
टूटने तक है आशनाई, फिर न तुम्हारा, न हमारा,
रात भर चलता रहा आसमां पर, जश्न ए चिराग़ाँ,
मिल जाए दो मीठे बोल बस वहीं रहे दिल बंजारा ।
* *
- - शांतनु सान्याल
12 नवंबर, 2022
छोटी छोटी खुशियां - -
लफ़्ज़ों के तिलिस्म से बाहर निकल कर देखें,
मोम की तरह, रफ़्ता - रफ़्ता पिघल कर देखें,
यूँ तो हर कोई मसीहाई का मुतालबा करता है,
रूबरू अक्स कड़ुआ सच कभी निगल कर देखें,
कहने को बहुत कुछ है तुम्हारे पास मेरे दोस्त,
रिंग चलाते बच्चे से, एक लम्हा मिल कर देखें,
छोटी छोटी ख़ुशियों को, ख़रीदना आसान नहीं,
तेज़ बारिश में, कच्चे राह पर, फिसल कर देखें,
कांच की खिड़की से धुंध का मज़ा नहीं मिलता,
सब्ज़ वादियों में ख़ुद को कभी ओझल कर देखें।
* *
- - शांतनु सान्याल
11 नवंबर, 2022
बहाव के साथ - -
शीशे का था चिराग़दान, टूट कर ज़मीं पर बिखरा,
हर चीज़ क़रीब हो मय्यसर, तो बेमज़ा है ज़िन्दगी,
वक़्त की भट्टी में तप कर, ये वजूद और भी निखरा,
ये दुनिया कभी किसी को यूँ चैन से जीने नहीं देती,
आगे बढ़ने के लिए है ज़रूरी, बन जाएं गूंगा बहरा,
पल भर में बदल जाते हैं सभी रंगीन कांच के चेहरे,
रिश्ता ए मुहर है उथला, कहने को चमक है गहरा,
अक्स को आज़ाद करो धूसर आईने के गिरफ़्त से,
धुंध भरे राहों में भला कौन किसी के लिए है ठहरा,
सोच लो साथ चलने से पहले ये सफ़र है अंतहीन,
ज़िन्दगी कहाँ रूकती है, चाहे चमन हो या सहरा ।
* *
- - शांतनु सान्याल
10 नवंबर, 2022
बुलंद आवाज़ - -
आतिश ए तहरीर की लपक, सारे जहां तक पंहुचे,
अज़ाब से कम नहीं है मज़लूमियत क़बूल करना,
उठो इस तरह कि जिसकी ख़बर, तूफ़ां तक पहुंचे,
माथे की लकीरों से नहीं बदलती है कभी ज़िन्दगी,
पैदाइश हक़ है जीना, ये बात निगहबां तक पहुंचे,
तहरीके मशाल बुझे न कभी छद्म रहनुमा के आगे,
आहनी इरादे हैं, ये पैग़ाम शीशे के मकां तक पंहुचे,
तबादिले मुहोब्बत में ग़र होगी कहीं वादाखिलाफ़ी,
ज़ुस्तज़ू ए शिकार इस ज़मीं से कहकशां तक पहुंचे,
तहे दिल से जब ठान लिया हो राहे आग पर चलना,
कफ़न आलूद सर की ख़बर, उस हुक्मरां तक पंहुचे ।
* *
- - शांतनु सान्याल
09 नवंबर, 2022
ख़ामोश आंखें - -
अधूरी कोई हसरत, दिल में दबी सी लगे है,
लब ए फ़रियाद कहते कहते रुकी सी लगे है,
ताउम्र इंतज़ार ए सुबह निगाहों में कट गई,
जुदाई की रात अपनी जगह थमी सी लगे है,
शहर को उजड़े हुए यूँ तो ज़माना बीत गया,
सुरमयी शाम में वो आज भी खड़ी सी लगे है,
सहरे के गिरफ़्त में है दूर तक रूहे गुलिस्तां,
सैलाबे रेत पर रफ़्तारे वक़्त जमी सी लगे है,
हथेलियों में रह गए हैं जुगनुओं के नूरे निशां,
यादों की छुअन आज भी हमनशीं सी लगे है,
किसे ख़बर, किस जानिब से उभरे ज़िन्दगी, -
फिर सुबह की तलब में सांसे रुकी सी लगे है,
यूँ तो, मुलाक़ातों का सफ़र होता है ला'महदूद,
ख़ामोश आँखें हर बार कुछ पूछ रही सी लगे है।
* *
- - शांतनु सान्याल
08 नवंबर, 2022
चाँदनी के अवशेष - -
उतरती है मद्धम मद्धम, अन्तःस्थल
की गहनता को छूती हुई अतल
मर्म प्रदेश, इन रुपहले पलों
में टूट जाते हैं सभी
मानव निर्मित
सीमान्त
रेखाएं,
पड़े रहते हैं ज़मीं पर बिखरे हुए निर्बंध से
चांदनी के अवशेष, ओस लिखती है
तृषित ओंठों पर जीवंत कविता,
गहनता को छूती हुई अतल
मर्म प्रदेश । एकत्र बहती
दो नदियां, एक दूजे
में खो जाती हैं
किसी एक
मिलन -
बिंदु पर, खेलती हैं वो धूप छांव का खेल, -
इन प्रणयी पलों के साक्षी होते हैं सहस्त्र
प्रतिबिंबित ग्रह नक्षत्र, प्रवाहमान
सहधाराओं का गंतव्य रहता
है सदैव अशेष, वो बहती
हैं अंतहीन सागर
के अभ्यंतरीण,
छूते हुए
सघन
नील मर्म प्रदेश, पड़े रहते हैं ज़मीं पर - - -
बिखरे हुए निर्बंध से चांदनी के
अवशेष ।
* *
- - शांतनु सान्याल
07 नवंबर, 2022
जीवन स्रोत - -
गहन प्रणय वो है, जिसका कोई बहाव नहीं होता,
यूँ तो ज़माने की नज़र से बचना है बहुत ही सरल,
आईने से बच निकलने का कोई बचाव नहीं होता,
बेवजह का है रोना, उभरती है ज़िन्दगी हर ग़म से,
वक़्त भर न पाए, ऐसा कोई गहरा घाव नहीं होता,
कहने को मुहोब्बत में, लोग सितारे तोड़ लाते हैं,
यूँ तो टूटते तारों से आसमां को लगाव नहीं होता,
आईने को कोसने से अक्स माज़ी में नहीं लौटते,
इस हसीं जिस्म का, स्थायी रख रखाव नहीं होता,
क़ुदरत का है अपना अलग ही, आइन ओ क़ानून,
ख़ालिस दिलों का लेकिन फ़रेबी दिखाव नहीं होता,
यूँ किनारे पर बैठ कर, उस पार की बातें हैं अर्थहीन,
बिन खेए नदी पार करा दे ऐसा कोई नाव नहीं होता,
* *
- - शांतनु सान्याल
06 नवंबर, 2022
ज़रूरत - -
गुप्त नखों की दुनिया होती है पंजों के अंतर्गत,
देह प्राण को बींधते हैं नुकीले सम्मोहन के कील,
फिर भी मिटती कभी नहीं कुछ पलों की हसरत,
पोष्य व हिंस्र के बीच रहती है इक महीन लकीर,
उसी प्रकृत रेखा के मध्य रहती है हयाते मसर्रत,
वृष्टि, मेघ, फूल, ख़ुश्बू, नए सपनों का अंकुरण,
परिचित छुअन उतरता है रूह में आँखों के मार्फ़त,
सहसा जी उठते हैं, विलुप्त हृत्पिंड के जीवाश्म,
जीवन लगता है पहले से कहीं अधिक ख़ूबसूरत,
सभी तर्क वितर्क इस एक बिंदु पर आकर हैं शेष,
हर एक शख़्स को होती है किसी और की ज़रूरत ।
* *
- - शांतनु सान्याल
05 नवंबर, 2022
शेषभाग - -
ही ख़्वाबों का है, एक लंबा सा सिलसिला,
शेष भाग का हिसाब होता है बेहद उबाऊ,
कितना कुछ टूटा, क्या कुछ साबुत मिला,
खिड़की के उस पार है डूबता हुआ सूरज,
रात के सीने पर, बिहान की आधारशिला,
समय के साथ दीवारों पर उभरते है दरार,
चाहे गृहनिर्माण रहा हो, सठिक नपातुला,
आख़िर क्यूं इतना अहंकार देह प्राण पर,
तै है उसका कुम्हलाना जो सद्य है खिला,
ताउम्र कोई अंतहीन समीकरण नहीं होता,
शून्य हथेली पर न शिकायत न कोई ग़िला ।
* *
- - शांतनु सान्याल
04 नवंबर, 2022
विक्रम की मज़बूरी - -
निःसीम अंधकार में सौजन्यता का था प्रश्नकाल,
छद्म भूमिकाओं में कहीं, खो जाता है कर्तव्य पथ,
उपदेश देने में कुछ नहीं जाता देते रहिए बहरहाल,
बेरंग दीवारों पर फिर से लिखें अच्छे दिन का सच,
उलटे ख़्वाबों को कंधे में रखता देख मौन है बेताल,
दरबार के गणमान्य हाथों में जयगान लिए बैठे हैं,
सभी मेरूदंड विहीन हैं कौन पूछेगा राजा से सवाल,
दरअसल कोई भी नहीं यहाँ धुला हुआ तुलसी पत्र,
वही गोलमोल घोषवाक्य, आश्वासनों के भेड़चाल।
* *
- - शांतनु सान्याल
03 नवंबर, 2022
केवल मुग्धता ही मुग्धता - -
घने धुंध में, कौन किस की ख़बर रखता है,
स्मृतियां तो हैं ताश के घर, रंज है बेमानी,
एक बूंद ओस अपना अलग असर रखता है ।
कोई संग चले या नहीं अपना मन्त्र है एक,
चरैवेति चरैवेति, जीवन गतिशील रहता है,
न जाने कहाँ कहाँ ढूंढते हैं, उस अदृश्य को,
चिरकाल से उसी जगह वो मंज़िल रहता है ।
शीशमहल की तरह है निःशेष मोह तुम्हारा,
जिधर भी देखूं मुग्धता का हलचल रहता है,
मृत्यु का सच जो भी हो, जीवन है सम्मोह,
कौन सोचे उस हाथ सुधा या गरल रहता है ।
* *
- - शांतनु सान्याल
02 नवंबर, 2022
मेरी नज़र से देखो - -
लौट आता हूँ मैं, ख़ामोश, शब्दहीन,
इक नदी, जो बहती है हमारे दरमियां
सीने के अंदर, गहराई लिए अंतहीन,
तैरते हैं उसके ऊपर सघन मेघ छाया,
झिलमिल चाँद, आकाशगंगा रंगीन,
एहसास के स्रोतों में बहता है ब्रह्माण्ड,
लहराता है निशीथ का आंचल महीन,
इक सुरभित छुअन उतरती है रूह पार,
ज़िन्दगी लगती है, दिलकश, बेहतरीन,
समयचक्र के साथ बदलता रहा मौसम,
फिर भी, तुम आज भी हो बेहद हसीन,
* *
- - शांतनु सान्याल
01 नवंबर, 2022
अप्रत्याशित किसी स्टेशन पर - -
वज़न, अगर हम उसका बेफ़िक्र
अंदाज़ अपने में समा लें,
पंखुड़ियों से उतर
कर दिल की
ज़मीं पर,
जब
बहते हैं ओस कण, परस्पर कुछ साझा -
दर्द क्यूँ न अपना बना लें, फ़र्श पे
बेतरतीब से बिखरे पड़े हैं
वर्णमाला पारिजात
की तरह, चलो
उठा कर
फिर
उन्हें रूह में बसा लें, बहुत हल्का है - -
उन्मुक्त नील आकाश का वज़न,
अगर हम उसका बेफ़िक्र
अंदाज़ अपने में
समा लें।
इस
चार दीवारी के अंदर ही है विश्व भ्रमण
का अभियान, किसी एक रेलगाड़ी
पे हो सवार, खिड़की के पास
बैठ कर ज़िन्दगी करती
है किसी एक सुन्दर
इंतज़ार,
और
अचानक ही किसी वन्य गूलर की तरह
टूट कर ज़मीं पर उतर जाती है
निःशब्द, उन ख़ामोश
पलों में मंद मंद
मुस्कुराता
है एक
मुश्त
खुला आसमान, इस चार दीवारी के अंदर
ही है विश्व भ्रमण
का अभियान !
* *
- - शांतनु सान्याल
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
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