28 फ़रवरी, 2022

अमन - ताबीज़ - -

जन अरण्य नहीं थमता, उत्सव, समारोह,
युद्ध - त्रासदी के मध्य हो कर, बहता
जाता है जीवन स्रोत, कोई नहीं
सुनता सीमान्त का मौन
क्रंदन, विशालकाय
मीन की तरह
निगल
जाते हैं महादेश, किनारे पर पड़े रहते हैं -
छिन्न भिन्न अर्ध जले हुए मानव
उपनिवेश, कुछ अस्थि पिंजर
कुछ धुंधले स्मृतियों के
अवशेष, बुझ जाते
हैं अपने आप
तथाकथित
मानव
सभ्यता के ज्योत, उत्सव, समारोह,युद्ध
- त्रासदी के मध्य हो कर, बहता
जाता है जीवन स्रोत। कलिंग
हो या सीरिया, ईराक से
ले कर यूक्रेन, वही
जल - साम्राज्य
का विधान,
सिर्फ़
मेरा ही हो हर तरफ वर्चस्व ज़मीं से ले
कर आसमान, हर युग में बदल
जाते हैं इंसानियत के
तजवीज़, कभी
देते हैं धर्म
की दुहाई
और
कभी बांध लेते हैं लोग अपनी बांहों में
नक़ली अमन ताबीज़, हालांकि
सीना रहता है भेदभाव से
ओतप्रोत, उत्सव,
समारोह, युद्ध
- त्रासदी
के मध्य हो कर, बहता जाता है जीवन
स्रोत।
* *
- - शांतनु सान्याल  

    

 

21 फ़रवरी, 2022

किनारे - किनारे - -

बहोत ख़ामोश थे सभी जाने पहचाने
चेहरे, न जाने कहाँ गुम हो गए
रंगीन अक्स सारे, कभी
कहीं वो मिले तो पूछ
लेना ज़िन्दगी
का निचोड़
क्या
था, हर एक क़दम पर सुख दुःख के
नित नए समीकरण देखे, कभी
क्षितिज के ऊपर थे ख़्वाब,
और कभी शून्य में
थे डूबते हुए
सितारे,
बहोत ख़ामोश थे सभी जाने पहचाने
चेहरे, न जाने कहाँ गुम हो गए
रंगीन अक्स सारे । कौन, किस
मोड़ पर मिला और
न जाने किस
अनजान
कूचे
पर खो गया, चाँदनी में थी निखरी -
हुई गुल मोहर की परछाइयां,
कोई किसी का हम सफ़र
नहीं होता फिर भी
दिल फ़रेब हैं
ज़िन्दगी
की
अथाह गहराइयां, कुछ अधूरी सी है
अपनी कहानी, कुछ असमाप्त
से हैं चाहत तुम्हारे, बहोत
ख़ामोश थे सभी जाने
पहचाने चेहरे, न
जाने कहाँ
गुम
हो गए रंगीन अक्स सारे, फिर भी
चल रहे हैं हम जीवन नदी के
किनारे - किनारे - -
* *
- - शांतनु सान्याल
 








10 फ़रवरी, 2022

आरसी का नगर - -

वही लकीर के फ़क़ीर सभी, देह से पृथक है
छाया, साथ साथ गुज़रने का अर्थ नहीं
कि एक ही गंत्वय हो हमारा, सभी
अनुबंध टूट जाते हैं चाहे बांधे
जितना भी नेह डोर, कोई
नहीं किसी का हम -
साया, वही
लकीर
के फ़क़ीर सभी, देह से पृथक है छाया । कोई
नहीं होता ख़ुद के सिवा, जब रूबरू हो
आरसी का शहर, खोजते हैं हम
अपना ठिकाना, बंद हैं सभी
दरवाज़े, रात का है ये
अंतिम प्रहर, यूँ तो
निकले थे हम
कारवां के
संग,
मुड़ कर देखा कई बार, हमारे साथ कोई भी
न आया, वही लकीर के फ़क़ीर सभी,
देह से पृथक है छाया ।
* *
- - शांतनु सान्याल
 






 

05 फ़रवरी, 2022

मिलते जुलते चेहरे - -

पल्लव विहीन हैं पलाश वन फिर
भी, कुछ सिंदूरी स्वप्न कभी
नहीं मरते, ऋतु चक्र की
है अपनी मजबूरी,
उड़ते हैं डायरी
के बेक़रार
पन्ने,
कुछ अंतरतम की गहराई में हैं -
छुपे हुए अनदेखे सपने, देह
का पलस्तर ढह जाए
तो क्या, अंदरूनी
रंग नहीं
झरते,
पल्लव विहीन हैं पलाश वन फिर
भी, कुछ सिंदूरी स्वप्न कभी
नहीं मरते। कोई लैटिनो
ख़्वाब है ज़िन्दगी,
गुज़रती है जो
आधी -
रात
को अमेरिकी मरू सीमांत के - -
समानांतर, एक तरफ
है सघन अंधेरा दूसरी
ओर झिलमिलाता
सा कृत्रिम
सवेरा,
कुछ पल तुम्हारे हैं ज़्यादा, कुछ
क्षण हैं हमारे न के बराबर,
फिर भी किसी एक
बिंदु पर हर
चेहरे हैं
मिलते जुलते, पल्लव विहीन हैं
पलाश वन फिर भी, कुछ
सिंदूरी स्वप्न कभी
नहीं मरते।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

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