28 जुलाई, 2020

जब उठी रात की महफ़िल - -

सभी लोग थे मौजूद, ख़ामोश
तमाशबीन की तरह, कोई
चेहरा छुपाए हुए, कोई
निगाह झुकाए हुए,
हक़ ए वजूद
की सिर्फ़
बात
थी, हंगामा यूँ उठा किसी जुर्म
ए संगीन की तरह । किसे
दिखाएं ढलती उम्र की
दलील अपनी, जब
हों रूबरू सलीब
ओ कील
अपनी,
ख़ुद को आख़िर पेश किया
 किसी पंख विहीन की
तरह । देवव्रत और
अंध कूप के
दरमियाँ
थी बस एक पल की दूरी,
वक़्त की चाक रुकती
नहीं चाहे जितनी
क्यूं न हो
अपनी
मजबूरी, प्रतिबिम्ब
भी इक दिन
हो जाता
है बेरंग किसी पुराने रेशमी - -
 कालीन की तरह ।
- - शांतनु सान्याल







17 जुलाई, 2020

भूमिका - -

भीगने की ख़्वाहिश होती है
अंतहीन, हथेलियों से
लेकिन फिसल ही
जाते हैं लम्हे
बेहतरीन ।
गहन
आंखों में दूर दूर तक होती है
मरुधरा, दिखाएं तुम्हें भी
भूगर्भीय स्रोत, ग़र
पलकों में कुछ
देर ठहरो
ज़रा।
मुखौटों के शहर में आईना था
बहोत अकेला, भीड़ में
भटकता रहा वो
रात भर,
सुबह देखा तो न था कोई तम्बू
न ही घूमता ख़्वाबों का
 कोई हिंडोला ।
मेरी सांसों
से उठती
हैं चंदन की महक ये तुम्हारा
 बयान है, शायद सच हो,
जिस्म जल चुका तब
कहीं आकाश
मेहरबान
है ।
इस शहर में कभी हम भी थे
बहोत मशहूर, वक़्त का
तक़ाज़ा है, कि अब
लोग न पहचानने
पर हैं
मजबूर, ये दुनिया की है अपनी
ही रीत, हर कोई निभाता
है यहां अपनी अपनी
भूमिका ज़रूर ।
- - शांतनु सान्याल










06 जुलाई, 2020

बिना दस्तक - -

कुछ ख़्वाहिशों की ज़मीं होती
हैं वृष्टि छाया की तरह बंजर,
उम्र ढल जाती है सिर्फ़
बादलों को निहार
कर । कुछ
चिठियाँ
बूढ़ा
जाती हैं संदूकों में बंद रह कर,
कुछ अनुरागी पल पहुँच
जाते हैं मंज़िल तक,
यूँ ही पत्तों की
तरह बह
कर ।
दरअसल ख़ुद से हम बाहर
कभी निकल पाते ही नहीं,
सिर्फ़ संवरने की चाह
में आईने से कभी
बाहर आते
नहीं ।
दहलीज़ पे मेरे ये कौन सुबह
सवेरे अतीत का अख़बार
रख गया, मेरी आँखों
में अभी तक हैं
हसीं ख़्वाबों
के साए,
न जाने कौन मेरी पलकों पे फिर
से बूंदों का अम्बार रख गया ।
जिसे मैं भूल आया था
इक ज़माना हुआ,
किसी दिलकश
मोड़ पे, न
जाने
कौन फिर मेरे दरवाज़े दोबारा
मिलने का ऐतबार रख
गया ।
- - शांतनु सान्याल

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