28 मार्च, 2024

शून्य निवास - -

एक अंतर्निहित सुरंग खोजती है अंतिम प्रस्थान,

प्रतिबिम्ब से चेहरे को अलग करना नहीं आसान,

शरीर और छाया के मध्य रहती है जन्मों की संधि,
उदय अस्त अनवरत, सृष्टि का नहीं होता अवसान,

महा शून्य में बह रहे हैं, जन्म मृत्यु के अग्नि वलय,
इसी धरा में है अभिशप्त जीवन, यहीं मुक्त बिहान,

मायाविनी रात्रि में खोजता हूँ व्यर्थ का अज्ञातवास,
मोहक जुगनू कभी हथेली पर और कभी अंतर्ध्यान,

अनगिनत प्रयास फिर भी आँचल में शून्य निवास,
विश्व भ्रमण के बाद भी, स्वयं से व्यक्ति है अनजान,
- - शांतनु सान्याल

25 मार्च, 2024

प्रवाहिनी - -

अंतःसलिला बहती है अंतरतम की गहराई में,

मौन प्रणय साथ निभाए जीवन की उतराई में,

सभी रंग मिल कर हो जाते हैं सहज एकाकार,
महत शांति मिलती है दिव्य वृक्ष की परछाई में,

वक्षस्थल के अंदर बहती है, अंतहीन प्रवाहिनी
बिन डूबे मिले न मोती सागर के अनंत खाई में,

अनमोल शल्कों को देह से उतरना है एक दिन,
प्रत्याभूति कुछ भी नहीं, नियति की सिलाई में,
- - शांतनु सान्याल 

22 मार्च, 2024

ठहराव से पहले - -

रंग गहरा ऐसा कि निगाह से रूह में उतर जाए,

छुअन ऐसी हो कि रिसते घाव छूते ही भर जाए,

कुछ जुड़ाव जो दूर रह कर भी जिस्म को जकड़े,
ख़ुश्बू वो कि रगों से बह कर दिल में बिखर जाए,

हर एक मुस्कुराहट में, हज़ार फूलों की पंखुड़ियां,
हर सिम्त गुलशन दिखाई दे जहां तक नज़र जाए,

इक अजीब सी कशिश है उस तिलस्मी निगाह में,
दिन ढलते ही बहकते क़दम अपने आप घर जाए,

वफ़ा ऐसी हो कि सात जन्मों के परे भी रहे ज़िंदा,
जिस्म का क्या, लाज़िम है कोहरे में कहीं मर जाए,

बेशुमार हसरतें अंतहीन चाह बस उम्र है मुख़्तसर,
सांस के झूले जाने किस पल अचानक ठहर जाए,
- - शांतनु सान्याल







19 मार्च, 2024

विलिनता की ओर - -

मृत्यु पार की दुनिया का मानचित्र जो भी हो,
हर किसी को उस कुहासे में एक दिन
खो जाना होगा, किसे पता कौन सा
मार्ग है कितना सहज या
कठिन, तर्क वितर्क
से दूर देह का
का है ये
अवसान, जन्म लेते ही हर एक जीव करता है
मृत्यु पत्र में हस्ताक्षर, समय शेष होते ही
उसे मुरझाना होगा, हर किसी को
उस कुहासे में एक दिन खो जाना
होगा । वो तमाम प्रेम घृणा
प्रकृत कृत्रिम, रिश्तों के
मुखौटे, आजन्म
साथ निभाने
के शपथ
पत्र,
सब कुछ फ़र्श पर पड़े रह जाएंगे, इत्र की ख़ाली
शीशी की तरह धीरे धीरे स्मृति गंध भी विलीन
हो जाएगी, परित्यक्त शीशी भी एक दिन
टूट जाएगी, किसी को याद करना तब बेवजह
का बहाना होगा, हर किसी को
उस कुहासे में एक दिन खो
जाना होगा ।
- - शांतनु सान्याल

17 मार्च, 2024

गहन बिंदु - -

सुदूर दिगंत में सघन मेघ उभर चले, नदी खोजती

है एक निरापद आश्रय समुद्र के वक्षस्थल में,
लौटेंगे सभी पंछी अपनी अपनी नीड़ों में
ये ज़रूरी नहीं, डूब जाते हैं कुछ एक
नाव, दिग्भ्रम हो कर मुहाने के
अतल में, नदी खोजती
है एक निरापद
आश्रय
समुद्र के वक्षस्थल में । अस्ताचलगामी सूर्य भी तलाशता है रात्रि पांथशाला, आकाश पथ
से गुज़रता है निःशब्द सपनों का चाँद
फेरीवाला, अंधकार कर देता है
सभी मान  - अभिमान का
निपटारा, धीरे धीरे
जागृत होता है
स्पर्श का
वर्णमाला, सुलग उठते हैं शेष प्रहर रक्तिम पलाश
वासंतिक अनल में, नदी खोजती है एक
निरापद आश्रय समुद्र के
वक्षस्थल में ।
- - शांतनु सान्याल

16 मार्च, 2024

कौन हो तुम - -

वो नदी हो तुम जिस की चाहत में प्यासे हैं बंजर किनारे,

वो मेघ छाया हो तुम जिसे छूने को तरसते हैं देव
दूत सारे,

कल्पना से परे है तुम्हारी शिल्प कृति जो मिट्टी में
प्राण डाले,
तुम्हारी दृष्टि में हर व्यक्ति है बराबर चाहे वो जीते
अथवा हारे,

वो अदृश्य ज्योत्स्ना हो तुम जो देह का पुनरुद्धार
कर जाए,
निराकार कोई प्रियतम हो तुम जो भ्रमित जीवन
को सुधारे,

न जाने क्या हो तुम, कभी अगोचर और कभी पूर्ण
प्रकाशित,
जो भी हो तुम अन्तःस्थल में बहाते हो आलोक स्रोत
के धारे ।
- - शांतनु सान्याल


15 मार्च, 2024

दिल की बात - -

दिल की बात हर्फ़ ए आग बन अल्फ़ाज़ से उभरे,

इंसानियत का तक़ाज़ा, हर एक आवाज़ से उभरे,

महदूद नज़रिया रुक जाती है मज़ाहिब के बाड़ में,
इक नया समा, आज़ाद परिंदे के परवाज़ से उभरे,

लहू का रंग एक सा है, फिर सलूक इम्तियाज़ी क्यूं,
एक दूजे के लिए दुआएं ख़ूबसूरत अंदाज़ से उभरे,

हर एक इंसां को चाहिए ज़िन्दगी के वाज़िब हक़ूक़,
दरख़्त ए एतिहाद, इस ज़मीं पे बहुत नाज़ से उभरे,
- - शांतनु सान्याल 

14 मार्च, 2024

ख़ामोशी का सफ़र - -

अजीब सी है ख़मोशी दूर ठहरा हुआ तूफ़ां सा लगे है,

हाकिम का ख़ुदा हाफ़िज़, मुझे देख के हैरां सा लगे है,

उठ गई बज़्म ए अंजुम रात भी है कुछ लम्हे की साथी,
आंख की गहराइयों में डूबता  हुआ कहकशां सा लगे है,

सारे उतरन उतरते गए, नज़दीक से देखने की ज़िद्द में,
दाग़ ए दिल देखते ही आईना बहोत पशेमां सा लगे है,

लफ्ज़ तक सिमट के रह जाते हैं सभी तरक़्क़ी के दावे
इंतिख़ाब क़रीब है वज़ीर कुछ ज़्यादा परेशां सा लगे है,

रक़ीब ओ रफीक़ में फ़र्क़ करना अब है बहुत मुश्किल
जिसने खंज़र उठाया, वो शख़्स मेरा आश्ना सा लगे है,
- - शांतनु सान्याल


13 मार्च, 2024

कुछ याद आया - -

मुद्दतों बाद, मुस्कुराने का हुनर याद आया,

फिर ज़िन्दगी का, अधूरा सफ़र याद आया,

यूँ तो, अपना ठिकाना भी याद नहीं हम को,
उसे देखते ही वो खोया हुआ घर याद आया,

आईना पूछता रहा, ज़िन्दगी भर का हिसाब,
ख़्वाब से उभरे तो इश्क़ का असर याद आया,

नज़दीकी समझा देती है असलियत खुल कर,
रस्ते में फलों से लदा कड़ुआ सज़र याद आया ।
- - शांतनु सान्याल






11 मार्च, 2024

ग़ुबार के उस पार - -

किसी वीरान टूटे फूटे स्टेशन की तरह लोग तकते

रहे गुज़रती हुई सभ्यता की ट्रेन, उसकी तेज़
रफ़्तार, दूर तक सिर्फ़ नज़र आता रहा
ग़ुबार ही ग़ुबार, ये और बात है कि
किसी ने भी उन्हें नहीं देखा,
वो छूटते गए अंध रास्ते
के मोड़ पर, आख़िर
धुंध में वो सभी
चेहरे गुम
हो गए,
उनका किसी भी बही ख़ाते में नहीं मिलेगा कोई
समाचार, दूर तक सिर्फ़ नज़र आता रहा
ग़ुबार ही ग़ुबार । दरअसल वो सभी
थे किसी निम्न देवता के बच्चे,
अपने अस्तित्व को जीवित
रखने की कोशिश में
वक़्त से पहले
बूढ़ा गए,
वो ख़ुद
को
तलाशते रहे महुए की टोकरी में, चकमक पत्थरों
की क्षणिक स्फुलिंग में, सूखे हुए पलाश फूलों
में, तेंदू पत्तों के बंडलों में, सप्ताहांत के हाट
में कप बसी धोते हुए, वो ख़ुद को खोजते
रहे दूर गुज़रती हुई तीव्रगामी रेल की
आवाज़ में, जो क़रीब से जाती
ज़रूर है लेकिन अपने साथ
नहीं ले जाती, बिहान का
स्वप्न सत्य होता है
लोग कहते हैं
काश ऐसा
ही होता,
सुबह सवेरे सज उठता दूर तक खुशियों का मीनाबाज़ार, दूर तक सिर्फ़ नज़र आता
रहा ग़ुबार ही
ग़ुबार ।
- - शांतनु सान्याल



10 मार्च, 2024

महकता हुआ ख़त - -

सूखे किनार समेटे इक उदास नदी तलाशती है

गुमशुदा जलधार को, रेत की घड़ी वक़्त
का पीछा निरंतर करती रही, फिर
भी न मिला सजल भूमि का
का वो टुकड़ा, जहां
कभी उगते थे
खुशियों के
मासूम
पौधे,
सजते थे पलकों तले जुगनुओं की नीलाभ रौशनी,
समय छीन लेता है चेहरे की नमी, अंततः
इक रेत का द्वीप हासिल होता है
मझधार को, सूखे किनार
समेटे इक उदास नदी
तलाशती है गुमशुदा
जलधार को ।
सोचने से
कहीं
होती है बरसात, स्मृतियों के काग़ज़ी नाव अनबहे
पड़े रहते हैं बंद खिड़कियों के आसपास, कोई
आवाज़ नहीं देता लेकिन हमें सुनाई देता है,
कदाचित दस्तक भी उड़ते हैं ले कर
तितलियों के पंख उधार, आँखों
की मृत नदी खोजती है
विलुप्त वृष्टि की
संभावना,
चलो
फिर दोबारा लिखें महकते हुए ख़त रूठे हुए बहार
को, सूखे किनार समेटे इक उदास नदी तलाशती
है गुमशुदा जलधार को ।
- - शांतनु सान्याल















08 मार्च, 2024

सुबह की दस्तक - -

एक अद्भुत निस्तब्धता ओढ़े रात गुज़रती है

सहमी सहमी सी, पड़े रहते हैं राह में
सघन कोहरे के चादर, कुछ ओस
की बूंदें, मकड़जाल के उस
पार बिखरे रहती हैं कुछ
अनकही भावनाएं,
कुछ असमाप्त
कविताएं,
तमाम
ज़ख़्म
सुबह के साथ भर चले हैं, फिर दहलीज़ पर
नज़र आते हैं ख़्वाबों के निशान, ज़िन्दगी
दोबारा संवरती है, एक अद्भुत
निस्तब्धता ओढ़े रात
गुज़रती है । सीने
पर हैं जीवित
कुछ अदृश्य
छुअन की
गहराई,
कुछ
उष्ण सांसों की गर्माहट, जिस्म में घुलती हुई
सजल मेघ की परछाई, रंध्र रंध्र से उठता
हुआ मायाविनी गंध, बिखरा हुआ
अस्तित्व किसी और के सांचे
में ढलता सा लगे है, इक
ख़ूबसूरत अंदाज़ में
फिर रूह की
दुनिया
निखरती है, एक अद्भुत निस्तब्धता ओढ़े
रात गुज़रती है ।
- - शांतनु सान्याल

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