सुदूर दिगंत में सघन मेघ उभर चले, नदी खोजती है एक निरापद आश्रय समुद्र के वक्षस्थल में,
लौटेंगे सभी पंछी अपनी अपनी नीड़ों में
ये ज़रूरी नहीं, डूब जाते हैं कुछ एक
नाव, दिग्भ्रम हो कर मुहाने के
अतल में, नदी खोजती
है एक निरापद
आश्रय
समुद्र के वक्षस्थल में । अस्ताचलगामी सूर्य भी तलाशता है रात्रि पांथशाला, आकाश पथ
से गुज़रता है निःशब्द सपनों का चाँद
फेरीवाला, अंधकार कर देता है
सभी मान - अभिमान का
निपटारा, धीरे धीरे
जागृत होता है
स्पर्श का
वर्णमाला, सुलग उठते हैं शेष प्रहर रक्तिम पलाश
वासंतिक अनल में, नदी खोजती है एक
निरापद आश्रय समुद्र के
वक्षस्थल में ।
- - शांतनु सान्याल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें