वो नदी हो तुम जिस की चाहत में प्यासे हैं बंजर किनारे,
वो मेघ छाया हो तुम जिसे छूने को तरसते हैं देव
दूत सारे,
कल्पना से परे है तुम्हारी शिल्प कृति जो मिट्टी में
प्राण डाले,
तुम्हारी दृष्टि में हर व्यक्ति है बराबर चाहे वो जीते
अथवा हारे,
वो अदृश्य ज्योत्स्ना हो तुम जो देह का पुनरुद्धार
कर जाए,
निराकार कोई प्रियतम हो तुम जो भ्रमित जीवन
को सुधारे,
न जाने क्या हो तुम, कभी अगोचर और कभी पूर्ण
प्रकाशित,
जो भी हो तुम अन्तःस्थल में बहाते हो आलोक स्रोत
के धारे ।
- - शांतनु सान्याल
वो मेघ छाया हो तुम जिसे छूने को तरसते हैं देव
दूत सारे,
कल्पना से परे है तुम्हारी शिल्प कृति जो मिट्टी में
प्राण डाले,
तुम्हारी दृष्टि में हर व्यक्ति है बराबर चाहे वो जीते
अथवा हारे,
वो अदृश्य ज्योत्स्ना हो तुम जो देह का पुनरुद्धार
कर जाए,
निराकार कोई प्रियतम हो तुम जो भ्रमित जीवन
को सुधारे,
न जाने क्या हो तुम, कभी अगोचर और कभी पूर्ण
प्रकाशित,
जो भी हो तुम अन्तःस्थल में बहाते हो आलोक स्रोत
के धारे ।
- - शांतनु सान्याल
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