किसी वीरान टूटे फूटे स्टेशन की तरह लोग तकते रहे गुज़रती हुई सभ्यता की ट्रेन, उसकी तेज़
रफ़्तार, दूर तक सिर्फ़ नज़र आता रहा
ग़ुबार ही ग़ुबार, ये और बात है कि
किसी ने भी उन्हें नहीं देखा,
वो छूटते गए अंध रास्ते
के मोड़ पर, आख़िर
धुंध में वो सभी
चेहरे गुम
हो गए,
उनका किसी भी बही ख़ाते में नहीं मिलेगा कोई
समाचार, दूर तक सिर्फ़ नज़र आता रहा
ग़ुबार ही ग़ुबार । दरअसल वो सभी
थे किसी निम्न देवता के बच्चे,
अपने अस्तित्व को जीवित
रखने की कोशिश में
वक़्त से पहले
बूढ़ा गए,
वो ख़ुद
को
तलाशते रहे महुए की टोकरी में, चकमक पत्थरों
की क्षणिक स्फुलिंग में, सूखे हुए पलाश फूलों
में, तेंदू पत्तों के बंडलों में, सप्ताहांत के हाट
में कप बसी धोते हुए, वो ख़ुद को खोजते
रहे दूर गुज़रती हुई तीव्रगामी रेल की
आवाज़ में, जो क़रीब से जाती
ज़रूर है लेकिन अपने साथ
नहीं ले जाती, बिहान का
स्वप्न सत्य होता है
लोग कहते हैं
काश ऐसा
ही होता,
सुबह सवेरे सज उठता दूर तक खुशियों का मीनाबाज़ार, दूर तक सिर्फ़ नज़र आता
रहा ग़ुबार ही
ग़ुबार ।
- - शांतनु सान्याल
असंख्य आभार, नमन सह।
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