28 फ़रवरी, 2023

रंगों की दुनिया - -

जीवन के रंग अनेक कभी गहरा, कभी कच्चा,
रंगीन चेहरों के पीछे छुपा रहे निरीह सा बच्चा,

एक ही सांचे में ढले सभी, समरूप है माटी रंग,
अपना अपना संदर्श क्या बुरा और क्या अच्छा,

चाहत की डोर खींचे लिए जाए ख़ुद से बहुत दूर,
संजोने की चाह में सरकता जाए प्रेम का लच्छा,

जनम - मरण के अगोचर में है, एक भिन्न प्रदेश,
मौन हृदय सोचे, कौन है झूठा कौन भला सच्चा,

अमरबेल सम बढ़ती जाए, नेह की नरम कड़ियाँ,
अप्रत्याशित जब टूटें, स्वप्निल पल खाएं गच्चा,
* *
- - शांतनु सान्याल  
 
 

27 फ़रवरी, 2023

जी चाहता है - -

गहन से गहनतम तक, डूब कर उभरने को जी चाहे,
गंध कोष की तरह दूर दूर तक बिखरने को जी चाहे,

असंख्य हिस्सों में, वितरित होता रहा हूँ तमाम उम्र,
बिंब धुंधला सही ताहम ज़रा सा संवरने को जी चाहे,

जाने कहाँ है जाना किसे ज्ञात है गंतव्य का शेष बिंदु,
ओस की बूंदों की तरह पलकों पर ठहरने को जी चाहे,

हर ओर है, नितांत नीरवता, गहन निद्रित हैं पुरवासी,
न टूटे स्वप्न किसी का, निःशब्द गुजरने को जी चाहे,

अद्भुत सा लगे, लोगों का देख कर भी अनजान बनना,
एक शब्द भी कहा न जाए जब कुछ कहने को जी चाहे,

सघन कुहासे में हर किसी को है एक दिन विलीन होना,
फूलों भरी घाटियों में पुनः एक बार उतरने को जी चाहे,
* *
- - शांतनु सान्याल
 
 

26 फ़रवरी, 2023

अखंड ज्योति - - ( श्री नरेंद्र मोदी के सम्मानार्थ लघु कविता )

अगोचर सत्य की आत्मीयता ने 
उसे अंततः किंवदंती बना 
दिया, वो पथिक जो 
था जन अरण्य 
में बहुत 
एकाकी, लेकिन सतत गतिशील,
पगडंडियों से हो कर पार्वत्य 
श्रृंखलाओं तक भटके 
उसके क़दम, 
आत्म -
संधान ने उसे आख़िर दिव्योक्ति 
बना दिया, अग्नि स्नान ही 
था उसका जीवन, 
निरंतर स्व 
आकलन,
अनंत दहन ने उसे आज जीवंत -
अखंड ज्योति बना दिया,
अगोचर सत्य की 
आत्मीयता ने 
उसे 
अंततः किंवदंती बना दिया - - - - 
* * 
- शांतनु सान्याल 

इक बूंद - -

पिछली पहर हमने, भीगे गुलों में
कोई अनजान सी छुअन देखी है,

न जाने कौन छू सा गया दिल को
सीने में, मीठी सी चुभन देखी है,

अधखुली किताब में बिखरे आंसू
हर लफ्ज़ में, हमने अगन देखी है,

भरम न तोड़ो, कि तुम हमारे हो,
खंडहर में हम ने मधुबन देखी है,

ढल गया चाँद कब, पता न चला,
ख़ामोश शब, संदली दहन देखी है,

वजूद अपना हम कहीं भूल से गए   
क़तरे की तरह यहाँ जीवन देखी है,
- -  शांतनु सान्याल

लकीरें - -

आकाश पार बहती हैं अदृश्य
कुछ सप्तरंगीय प्रवाहें,
एक स्वप्नमयी
पृथ्वी शायद
है कहीं
अन्तरिक्ष में, सुप्त शिशु के
मंद मंद मुस्कान में
देखा है उसे कभी,
नदी के बिखरे
रेत में
किसी ने लिखा था पता - -
उसका बहुत कोशिश
की, पढ़ न पाए,
लकीरें जो
वक़्त ने
मिटा दिए, चेहरें में उभर
आईं काश ! उठते
ज्वार की
लहरें
इन्हें भी बहा लेतीं, अर्घ्य
में थे कुछ शब्द जो
कभी वाक्य न
बन पाए,
कुछ बूंदें पद चिन्हों में सिमट
कर खो गए, वो कभी मेघ
न बन पाए सुना है ये
नदी गर्मियों में
कगार बदल
जाती है
फिर
कभी मधुमास में, कहीं और
किसी किनारे मिलेंगे
तुमसे  - -
--- शांतनु सान्याल

25 फ़रवरी, 2023

आब ए एहसास - -

पुरअसरार रहे अंदाज़ ए बयां, शहर में फ़ित्नागर कम नहीं,
यूँ तो मीलों चलते रहे फिर भी ज़िन्दगी का सफ़र कम नहीं,

तारीख़ ए इश्क़ के पन्नों में ख़ुश्क गुलाब के सिवा कुछ नहीं,
दिल की अपनी है मज़बूरी, कहने को हसीन मंज़र कम नहीं,

ख़ानाबदोश की तरह भटका किए जाने किस के लिए ताउम्र,
इस दिल फ़रेब दुनिया में, यूँ तो झिलमिलाते शहर कम नहीं,

मुहाजिर परिंदों का है बसेरा, मौसम  बदलते ही लौट जाएंगे,
अनबुझ प्यास अपनी जगह, आब ए एहसास अंदर कम नहीं,
* *
- - शांतनु सान्याल

24 फ़रवरी, 2023

समाप्ति - -

हर एक समारोह का होता है समापन,
जनशून्य है उत्सव प्रांगण, स्थिर
आकाशमुखी झूले, दरख़्त की
टहनियों पर उलझी हुई
कटी पतंग, खुले
आकाश पर
नक्षत्रों
का अनवरत उत्थान - पतन, हर एक
समारोह का होता है समापन।
कुछ इच्छाएं रहती हैं
यथावत कोरी,
देह गंध से
मुक्त !
कुछ
रहस्यमयी भावनाओं के शीर्षक नहीं
होते, आँखों में ही होता है उनका
जनम - मरण, हज़ार दंड
ले कर सीने में जीवन
का होता है असंख्य
बार दहन, हर एक
समारोह का
होता है
समापन । राजपथ के दोनों पार खड़े हैं
मौन दर्शक, पांवों में बेड़ी बांधे गुज़र
रहे हैं अनगिनत व्यथित जीवन,
बहुत कुछ देख कर भी हम
बहुत कुछ देख नहीं पाते,
साझा कुछ भी नहीं,
बस इक स्वांग
का है यहाँ
प्रचलन,
हर
एक समारोह का होता है समापन । 

- - शांतनु सान्याल

23 फ़रवरी, 2023

सिर्फ़ सिफ़र बाक़ी - -

वो बैरंग ख़त जिस पे था अश्क का मुहर,
उसे सही ठिकाना, न मिल सका उम्र भर,

वो जज़्बा जो दिल के अंदर में रहा ज़ब्त,
ढूंढती रही जाने किसे, ख़ानाबदोश नज़र,

सैलाब ए जुनूं था, निगाहों का तिलिस्म,
मुल्क ए अज़ल, तक रहेगा उसका असर,

किस ने देखा है फ़िरदौस की भूल भुलैया,
बस इसी पल में है रौशन ज़ीस्त का शहर,

ओंठ ओ ज़ाम के बीच है ज़रा सा फ़ासला,
किसे मालूम पलभर में  नशा जाए बिखर,

मोहक शीशी की तरह है, नक़्श ए जिस्म,
सिफ़र रहता है बाक़ी, जब उड़ जाए अतर,
* *
- - शांतनु सान्याल   
 
 

22 फ़रवरी, 2023

दुआओं में शामिल - -

कुछ  कहते कहते, लफ्ज़ हो गए मुहाजिर,
बूंद  बूंद आंख से टूटे, दर्द कर गए जाहिर,

इक अजीब सा सहर है, उसकी ख़मोशी में,
पल भर के लिए कर दे, रूह को भी हाज़िर,

गुमनाम सा डगर, जाता है सीने से हो कर,
गुज़रता है कोई गुमनाम मजरूह मुसाफ़िर,

हाथ हैं ख़ाली फिर भी कुछ मुतालबा कीजे,
दुआओं में हैं, शामिल मुहब्बत के अनासिर,

दुनिया अपना महसूल नहीं छोड़ती है कभी,
हर कोई छुपा होता है, अपने फ़न में माहिर,

बेइंतहा परस्तिश चाहिए, मुहोब्बत के लिए,
कहने दो, ग़र दुनिया कहती है मुझे क़ाफ़िर,
* *
- - शांतनु सान्याल
अर्थ
 मुहाजिर - प्रवासी
 सहर - जादू
 मजरूह - घायल
 मुतालबा - मांग
 अनासिर - तत्व
 महसूल - राजस्व
बेइंतहा परस्तिश - अंतहीन पूजा
क़ाफ़िर - नास्तिक

21 फ़रवरी, 2023

गहन प्रणय - -

मेज के आर पार पड़ी रहती है एक मुश्त
शाम की मद्धम रौशनी, चीनी मिट्टी
के दो ख़ाली प्यालों पर ओंठों के
अदृश्य निशान, रेत का इक
टूटा हुआ बांध, बुझी हुई
एक मोमबत्ती, कुछ
मुरझाए से लाल
गुलाब, और
अविरल
बहता
हुआ
समय स्रोत, रात के सुरंग में रुका रहता
प्रेमिक अंधकार, कुछ पलों के लिए
ही सही सभी दुःखों का होता
है अवसान, चीनी मिट्टी
के दो ख़ाली प्यालों
पर ओंठों के हैं
अदृश्य
निशान । झरते निशि पुष्पों का, सिहरित
दीप शिखा के संग निःशब्द सरगोशी,
बंद पलकों पर अतृप्त अधर का
उष्मित चिन्ह, स्पंदित युगल
ह्रदय, और दूर तक इक
अंतहीन ख़ामोशी,
कंपित चंद्र बिंब,
लहरों का
अद्भुत
तट
पर प्रणय समर्पण, देह - प्राण का पूर्ण -
निमज्जन, गहन निद्रा के बाद सब
मुश्किल आसान, चीनी मिट्टी
के दो ख़ाली प्यालों पर हैं
ओंठों के अदृश्य
निशान ।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

18 फ़रवरी, 2023

शाम ए चिराग़ - -

अपने ही क़दमों की आहट पा रहा हूँ मैं,
कहने को ख़ुद से बहुत दूर जा रहा हूँ मैं,

धुंध में, तसव्वुर ए आबशार है ज़िन्दगी,
तिश्नगी को ख़्वाबों से, बहला रहा हूँ मैं,

नक़ाबपोशों के बज़्म में आईना क्या करे,
अपने अक्स को बारहा समझा रहा हूँ मैं,

अंदरूनी आदमी, भला कौन देखे है यहाँ,
ज़मीर के ज़िद्दिपन को, सहला रहा हूँ मैं,

अंदर महल तो बसता है इक वीरानापन,
सच दबा कर, झूठ को दिखला रहा हूँ मैं,

समय के अल्बम में, सभी चेहरे हैं फीके,
गोशा ए दिल में फिर दीये जला रहा हूँ मैं,
* *
- - शांतनु सान्याल

 

17 फ़रवरी, 2023

आरज़ू ए परवाज़ - -

पिरोया था जिसे सांसों के डोर से वो
जज़्बा ए हार का किसी दिन
टूटना था लाज़िम, वक़्त
के हिंडोले की रफ़्तार
को कोई रोके भला
कैसे, भीड़ भरे
मेले में
हाथों
से हाथ छूटना था लाज़िम, जज़्बा ए
हार का किसी दिन टूटना था
लाज़िम । टूटे  हुए पंख थे
 हथेलियों पर, क्षितिज
पार की थी आरज़ू
ए परवाज़, सभी
रंग धुल गए
वक़्त के
संग,
मौसमों की तरह रुख़ बदलते रहे - -
सभी आश्ना चेहरे, वही हँस
हँस कर क़त्ल करने का
ख़ूबसूरत अंदाज़,
क्षितिज पार
की थी
आरज़ू ए परवाज़ ।
* *
- - शांतनु सान्याल


16 फ़रवरी, 2023

आव्हान - -

आत्म  वृत्त से कभी ख़ुद को निकाला जाए,
परिव्राजक भावनाओं को फिर से पाला जाए,

आदमक़द आईना है लेकिन बिम्ब लघुत्तम,
स्व अहम को, सिक्के की तरह उछाला जाए,

हर व्यक्ति इस जगत में नीलकंठ नहीं होता,
कुछ बूंद प्रणय सुधा के, जीवन में डाला जाए,

अकल्पनीय नहीं होता है त्रि नेत्र का प्रस्फुटन,
झंझावृत्त से हो कर जीवन रथ निकाला जाए,

अपने - आप को सभी, हर हाल में संभालते हैं,
सार्थक बने जीवन जब गिरतों को संभाला जाए,

गरिमामय भविष्य के लिए ज़रूरी है एकत्वम् -
नव  प्रजन्मों को आग्नेयगिरि सम ढाला जाए,
* *
- - शांतनु सान्याल

 

15 फ़रवरी, 2023

फिर मिलने का वादा - -

तजस्सुस निगाह को, जाने है किस की तलाश,
चिलमन पार की ख़ुश्बू, आ रही है रूह के पास,

दिल ए तहरीर पे, तिलस्मी उन्वान है किस का,
नज़्म या ग़ज़ल, या कोई मबहम भरा एहसास,

मेहराब ए जुनूं की ओट से, यूँ  झांकता है कौन,
चश्म ए आहू को है गोया सदियों की इक प्यास,

शहर है उसका ही दीवाना, हर शू उसी का ज़िक्र,
हाकिम का ख़ुदा हाफ़िज़ उठ गए सभी इजलास,

चाँदनी की तरह तहे दिल में उतरता है जां नशीं,
जिस्म ओ जां को कहाँ रहता है, होश ओ हवास,

इक कांच का खिलौना है ये आलम ए मुहोब्बत,
टूटने पर भी होती है पुनर्जनम में जुड़ने की आस,
 
* *
- - शांतनु सान्याल
अर्थ : तजस्सुस - कौतुहल,  तिलस्मी उन्वान -
मायावी शीर्षक, मबहम - रहस्यमय, मेहराब ए जुनूं - आवेग का झालर
 इजलास - अधिवेशन, चिलमन - पर्दा, चश्म ए आहू - मृग नयन 


14 फ़रवरी, 2023

डगर पनघट की - -

प्रणय बंध के अतिरिक्त, बाध्यता हैं अंतहीन,
कुछ दृष्टव्य अति स्पष्ट, कुछ हैं बहुत  महीन,

दूरत्व मिटा देता है समस्त अनुरागी - अनुबंध,
जब तक परस्पर के नज़दीक, हर पल है रंगीन,

अरण्य नदी बहती जाए ऋतु अनुरूप बदले तट,
कभी छलके किनारे, कभी गहनता भाव विहीन,

इस क्षण में आलिंगनबद्ध दूजे पल देह विलोपन,
सेमल कपास उड़ जाए सुदूर हवाओं पर आसीन,

प्रेम शिखा अदृश्य हो कर भी, निरंतर प्रज्वलित,
गुप्त दीप सम कोई जलता है, हृदय अभ्यंतरीण,

अपरिभाषित होते हैं अनुराग के कुछ भंवर तरंग,
डूबना उभरना अनवरत इस की गहराई अंतहीन।
* *
- - शांतनु सान्याल

13 फ़रवरी, 2023

मेरे दिलदार सा - -

उम्र की ढलान पर दिल का आलम गुलज़ार सा है,
टूटे हुए आईने को न जाने किस का इंतज़ार सा है,

क़ाब ए क़दीम को इक नया शक्ल ओ रंग चाहिए,
हदे नज़र पे मुंतज़िर मुस्कुराता, कोई बहार सा है,

सभी जरियां आब को बहना है ढलानों की जानिब,
कौन है मजनूं, जो मुझ से मिलने को तैयार सा है,

अपनों की कलई खुल जाती है ज़र्द पत्तों के गिरते,
यूँ तो टहनियों को, कुछ अफ़सोस कुछ प्यार सा है,

वक़्त के संग धीरे धीरे, हम आहंगी हो जाते हैं कुंद,
भरम कहता है लब ए आशिक़ी पर कुछ धार सा है,

ख़्वाबों के टूटते ही, दूर तक वही आतिशी रास्ते हैं,
दस्त ए ख़ंजर वाला चेहरा, कुछ मेरे दिलदार सा है,
* *
- - शांतनु सान्याल
अर्थ :
क़ाब ए क़दीम - पुराना फ्रेम, कुंद - कुंठित  
जरियां आब - जल प्रवाह, दस्त - हाथ  
हम आहंगी - अपनापन, मुंतज़िर - प्रतीक्षारत
आलम - दुनिया 

12 फ़रवरी, 2023

नेपथ्य का फिरकीवाला - -

वस्तुतः हम सभी हैं एक अदृश्य डोर में
बंधे हुए कठपुतली, विशाल रंगमंच
पर चलते फिरते अदाकार, न
जाने कौन है नेपथ्य का
फिरकीवाला, जो
घुमाता है
जीवन
को
अपने इशारे पर, जब तक सांस है सभी
से है गहरी वाबश्तगी, देह गंध की
मिठास, उम्र से लम्बी तिश्नगी;
हद से बढ़ कर दीवानगी;
एक दूजे को अंदर
तक पाने की
बेइंतहा
आस,
सांस विहीन शरीर का कोई नहीं होता
तलबगार, बस इसी एक बिंदु पर
आ कर रुक जाते हैं सभी इश्क़
के फ़लसफ़े, ख़त्म हो जाते
हैं उम्र भर के समस्त
अहंकार । हम सभी
हैं एक अदृश्य
डोर में बंधे
हुए
कठपुतली, विशाल रंगमंच पर चलते
फिरते अदाकार ।
 * *
- - शांतनु सान्याल    




11 फ़रवरी, 2023

बहुत कुछ हिसाब है बाक़ी - -

तूफ़ां तो गुज़र गया तबाही के तासीर हैं बाक़ी,
मुद्दतों बाद भी, ज़ेहन में कुछ तस्वीर हैं बाक़ी,

मिटाने से नहीं मिटते, दिल में लिखे अल्फ़ाज़,
ख़तूत जलने के बाद भी, कुछ तहरीर हैं बाक़ी,

क़फ़स ए इश्क़ का तर्जुबा होता है बहोत गहरा,
गुमशुदा जिस्म पर, निशान ए ज़ंजीर हैं बाक़ी,

चाँद, सितारों का डूबना है क़ुदरत का खिलौना,
स्याह रातों में, कुछ नावाक़िफ़ तनवीर हैं बाक़ी,

दामन का दायरा जो भी हो इत्मीनान ज़रूरी है,
उम्मीद से है ज़ीस्त, इंसाफ़ ए तक़दीर हैं बाक़ी,

आसान है, किसी ज़ईफ़ के गरेबान को पकड़ना,
रोज़ ए आख़िरत की अभी तेज़ शमशीर हैं बाक़ी,
* *
- - शांतनु सान्याल   
अर्थ :
ख़तूत - चिट्ठियां,  तासीर - असर, क़फ़स - क़ैद   
तनवीर - रौशनी,  ज़ीस्त - ज़िन्दगी,
ज़ईफ़ - कमज़ोर, गरेबान - गर्दन,
रोज़ ए आख़िरत - मरने के बाद का फैसला
शमशीर - तलवार,  नावाक़िफ़ - अनजान

 

10 फ़रवरी, 2023

दूरस्थ प्रणय - -

आदिम ध्रुव तारा की तरह कुछ स्मृतियां
जीवित रह जाती हैं उत्तरी आकाश में,
दूरस्थ प्रेम, नज़दीक आना चाहता
है पुनः मधुमास में, मध्य रात
की निस्तब्धता चीर कर
उतरना चाहते हैं सभी
मृत नक्षत्र, पुरातन
छत के ऊपर,
समेटना
चाहता हूँ उन को वक्षस्थल की गहराइयों
तक पुनर्जीवन के विश्वास में, आदिम
ध्रुव तारा की तरह कुछ स्मृतियां
जीवित रह जाती हैं उत्तरी
आकाश में । विस्तृत
अंतरिक्ष की
शून्यता
में
अक्सर खोजता हूँ मैं, अपनत्व के उजाले,
कुछ अधूरी बातें, कुछ बिखरे हुए शब्दों
के आलोक पुञ्ज, कुछ स्तंभित
ओस कण, छूना चाहता हूँ
मैं उन मुग्ध पलों में
अपने अंदर के
एक अदृश्य
दहन को,
वस्तुतः, कल्पनाओं के अंत से ही होता
है सत्य का पुनरोदय, धुंध रेखा
बिखरी रहती है यथावत मेरे
अस्तित्व के आसपास
में, दूरस्थ प्रेम,
नज़दीक
आना
चाहता है पुनः मधुमास में ।
* *
- - शांतनु सान्याल


 
 














09 फ़रवरी, 2023

अंतहीन तलाश - -

बेइंतहा जुस्तजू थी, ताहम कोई मसीहा न मिला,
बेशुमार दोस्तों में तलाशा, कोई तुझ सा न मिला,

कहने को इश्क़ ए जुनूं का कोई मशहूर कातिब था,
वरक़ दर वरक़ ढूंढा एक भी हरफ़ सुनहरा न मिला,

बहोत आसान है शोलों की तरह इन्क़लाबी दिखना,
क़रीब पहुँचने पर वहां आग तो दूर, शरारा न मिला,

ख़ाना बदर है रूह, भटकती रही मंज़िल दर मंज़िल,
ज़िन्दगी के सफ़र में, मुझ सा कोई तनहा न मिला,

मुहोब्बतें, अदावतें, इनाम ए फ़ेहरिश्त है बड़ी लम्बी,
यूँ तो चाहनेवाले कम न थे, कोई तुझ जैसा न मिला,

साहिल से मझधार का मंज़र होता है बहोत दिलकश,
टूट के भी उभार ले रौशनी ऐसा कोई सितारा न मिला,
* *
- - शांतनु सान्याल © It's subject to copyright.
अर्थ : कातिब - लिखने वाला,  शरारा - चिंगारी,
ख़ाना बदर - बेघर, अदावतें - दुश्मनी,


 







07 फ़रवरी, 2023

नूरानी बंदरगाह - -

जिसे हमनफ़स समझा, वही मेरा क़ातिल निकला,
साज़िश ए मसलूब में, मुक्कमल शामिल निकला,

बहोत आसान है, ग़ैरों पर तंज़ से उँगलियाँ उठाना,
लतीफ़ा ए अक्स मेरा उम्र भर का हासिल निकला,

झुकना था लाज़िम, वो मुहोब्बत का सूरजमुखी था,
सुलगती राहों में, हर एक मुसाफ़िर बोझिल निकला,

किताब की परछाई में कहीं, ढूंढता रहा ज़िन्दगी को,
जिसे रहनुमा सोचा वही आदमी नाकामिल निकला,

गिनता रहा बेशुमार संग ए मील को, गाम दर गाम,
घर के पास ही, मासूम मुस्कानों का मंज़िल निकला,

बंदरगाह कभी बंद होता नहीं, ग़र ज़मीर हो चिराग़ाँ,
डूबने के बाद आंख खुली तो, संग ए साहिल निकला,

- - शांतनु सान्याल © It's subject to copyright.
अर्थ :
हमनफ़स - क़रीबी, साज़िश ए मसलूब - सलीब पे
चढ़ाने का षड्यंत्र, नाकामिल - अधूरा,
संग ए मील - मील का पत्थर, मुक्कमल - पूर्ण
गाम दर गाम - हर एक क़दम पे,
ज़मीर - अंतर्मन,
 
 

 







06 फ़रवरी, 2023

अनुक्रम खेल - -

जीवन बिंब चिर चंचल है फिसल जाए -
उँगलियों के मध्य से हो कर, बूंद -
बूंद लम्हों में कहीं खोजता हूँ
मैं एक अदद अपना चेहरा,
बिखरे कांच के टुकड़ों
को जोड़ता हूँ बहोत
ही एहतियात
से, जल -
छवि
आख़िर छलक ही जाती है निन्यानवे पर
आ कर, फिर उसी अंक पर उतर आता
हूँ मैं, जहाँ से की थी आग़ाज़ ए
सफ़र, पुनः सीढ़ियों की तरफ़
बढ़ना चाहता है ये क्लांत
जीवन सरीसृपों के
सर्पिल रास्तों
से हो कर,
मुझे
रोक नहीं पाते कोई भी इस पुनः शुरुआत
से, बूंद, बूंद लम्हों में कहीं खोजता
हूँ मैं एक अदद अपना चेहरा,
बिखरे कांच के टुकड़ों
को जोड़ता हूँ बहोत
ही एहतियात
से।
- - शांतनु सान्याल
 

 
 

 







05 फ़रवरी, 2023

अपने अंदर की गहराई - -

कभी अक्स, तो कभी सूखा शज़र देखता हूँ,
शीशे के उस पार, इक उजड़ा शहर देखता हूँ,

बहोत दिनों के बाद वो आए हैं मुलाक़ात को,
कभी उनको कभी बेरंग अपना घर देखता हूँ,

इस दर पे नहीं होती, चाहनेवालों की आमद,
हद ए नज़र, इक सुनसान सा डगर देखता हूँ,

वक़्त का तक़ाज़ा है ज़र्द पत्तों का अफ़साना,
फिर भी, ख़्वाब ए ज़िन्दगी अक्सर देखता हूँ,

आसान नहीं चाहतों को, नज़र अंदाज़ करना,
मुस्कुराते हुए बच्चों को, एक नज़र देखता हूँ,

उम्र तो गुज़री हैं सबारा खंजरी के दरमियान,
क़तरा ए न'दा में, अक्स ए समंदर देखता हूँ,

उजालों के हमराह, उड़ गईं रंगीन तितलियाँ,
इक बेकरां अंधेरा अपने बहुत अंदर देखता हूँ,

वक़्त उतार देता है चेहरे से, फ़रेब के मुखौटे,
शफ़ाफ़ लिबास में, भरम के अस्तर देखता हूँ,

न जाने किस ख़ुदा के हैं, सभी पागल पैरोकार,
अमृत के प्याले में, नफ़रत का ज़हर देखता हूँ,
 * *
- - शांतनु सान्याल  
 अर्थ :
शज़र - पेड़
सबारा खंजरी - नागफणी
क़तरा ए न'दा - ओस की बूँद
बेकरां - असीम  
शफ़ाफ़ - पारदर्शी
पैरोकार - अनुयायी  
 

मुलाक़ात - -


मिलता हूँ मैं रोज़ मेरी ही हम ज़ात से
है उन्हें  ग़र गिला, तो रहे इस बात से
तंग है ज़िन्दगी इस बेवजह बरसात से,

वो निकलते हैं, दबे क़दम इस तरह -
कांपती हों साँसें, रूह के ज्यों निज़ात से,

इस गली ने कभी उजाला नहीं  देखा -
चाँद है बेख़बर  दर्दो अलम जज़्बात से,

मुस्कुराता तो हूँ मैं छलकती आँखों से
हासिल क्या आख़िर इस अँधेरी रात से,

खोजते हैं क्यूँ लोग,चेहरे पे राहतें, उन्हें
फ़र्क नहीं पड़ता जीने मरने की बात से,

इन मक़बरों में दिए जलाएं, कि बुझाएं
हैं गहरी नींद में,जुदा सभी तासिरात से,

कह दो ये चीखें हैं किसी और शै की -
किसे है फ़िक्र आख़िर मजरुहे हालात से,

-- शांतनु सान्याल


04 फ़रवरी, 2023

उँगलियों के निशान - -

हर एक एहसास को लिपिबद्ध नहीं किया
जा सकता, न जाने कितने अपूर्ण
प्रेम के दस्तक, दरवाज़े पर
छोड़ जाते हैं कांपते
उँगलियों के
निशान,
पुनः
जीवित हो जाते हैं विस्मृत स्मृतियों के -
जीवाश्म, टहनियों में उभर आती
हैं नन्ही पत्तियां, हवाओं में
इक अजीब सी होती है
मृदु सरसराहट,
ज़िन्दगी
फिर
अंध वृत्त से निकल कर छूना चाहती है
उजाले की आहट, सभी आवाज़ों को
को सीने से आबद्ध करना नहीं
आसान, सद्य खिले फूल
की पंखुड़ियों में बिखरे
पड़े रहते हैं नभाश्रु  
के कुछ लवणीय
निशान ।
* *
- - शांतनु सान्याल

03 फ़रवरी, 2023

आदिम घाटियां - -

पहाड़, अरण्य, नदी, घुमावदार पगडंडियां;
धूसर जीवन के ऊपर पड़ी रह जाती हैं
कुछ उड़ते हुए बादलों की परछाइयां,
पड़े रह जाते हैं टूटे हुए मिट्टी
के खिलौने, पेड़ के तनों
में लिखे हुए कुछ
कच्चे प्रीत की
कहानियां,
धूसर
जीवन के उपर पड़ी रह जाती हैं कुछ उड़ते
हुए बादलों की परछाइयां। इक अजीब
सा ख़ालीपन रहता है बहुत कुछ
पाने के बाद, पल्लव विहीन
दरख़्त देखते हैं शून्य
आकाश की तरफ
शीत ऋतु के
गुज़र जाने
के बाद,
हम
खोजते रहते हैं ख़ुद को ज़र्द पत्तों में कहीं,
निःस्तब्ध अंधेरे में कहीं खो जाती हैं
एहसास की  आदिम घाटियां,  
धूसर जीवन के उपर
पड़ी रह जाती हैं
कुछ उड़ते
हुए
बादलों की परछाइयां। - -
* *
- - शांतनु सान्याल

01 फ़रवरी, 2023

अख़बार से परे - -

क़र्ज़ ए ज़िंदगी कम नहीं, तक़ाज़ा भी है बेहिसाब,
अक्स मुरझाया हुआ, ओंठों पे है खिलता गुलाब,

मुद्दतों बाद मिले हैं, किसी नादिर गौहर की तरह,
हाल ए दिल जो भी हो,चेहरे की चमक है शादाब,

मानाकि अहल ए शहर में हूँ इक फ़र्द ए गुमशुदा,
कूच के वक़्त पड़े रहते हैं यूँ ही माल ओ असबाब,

इस रात की पुरअसरार ख़ामोशी में, न दे दस्तक,
कुछ देर ज़रा और, सजने दे पलकों पे हसीं ख़्वाब,

ख़्वाहिशों के झूमर में, झूलते से हैं, इश्क़ ए जुनूं,
जाम ए शराब से, उभरता सा लगे सूर्ख़ आफ़ताब,

पुराने लिबास से कम नहीं होती इंसां की हैसियत,
अख़बारों से हट कर, अपने अक्स में हों कामयाब,
 
 * *
- - शांतनु सान्याल
अर्थ :
अहल ए शहर - पूरे शहर में
 पुरअसरार - रहस्यमय
नादिर गौहर - अमूल्य रत्न,  शादाब - ताज़ा
सूर्ख़ आफ़ताब - लाल सूर्य   

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