19 सितंबर, 2018

जाने क्यों - -

सभी कुछ है सांस लेता हुआ मेरे आसपास,
फिर भी, न जाने क्यों रहता है ये दिल
उदास, वक़्त की सांप सीढ़ियों ने
मुझे, हर मोड़ पे, गिर कर
संभलना है सिखाया,
फिर भी न जाने
क्यों अभी
तक
हैं नाज़ुक मेरे एहसास। घर से मंदिर तक
का सफ़र, यूँ तो है बहोत ख़ुशगवार,
मुश्किल तो तब होती है, जब
मुख़ातिब हों उजड़े चेहरों
के नक़्क़ास। शहर
की भीड़ में
सिर्फ़
मैं ही न था तनहा, न जाने कितने लोग -
यूँ ही भटकते मिले अपने ही घरों के
आसपास। अजीब सा नशा है
उस अनदेखे वजूद का,
खो देते हैं दानिशवर
भी अक्सर,
अपने
होश वो हवास। फिर भी न जाने क्यों, ये
दिल रहता है उदास। 

* *
- शांतनु सान्याल

वो कौन थे - -

न जाने वो कौन थे अजेय पथिक,
गुज़रे अंतिम प्रहर, देह रंगाए
राख, छोड़ गए दूर तक
सुलगते पैरों के
निशान।
न जाने वो कौन थे, किस चाह में
जीवन को बनाया महाज्वाल -
स्तूप, और मुस्कुराते हुए
किया सर्वस्व दान।
काश, वो महा -
मानव
फिर लौट आएं, और सिखाएं हमें -
स्वाधीनता का सत्य अभिप्राय,
पुनः एक बार मानवता का
रचे हम, वास्तविक -
संविधान।

* *
- शांतनु सान्याल


 

07 सितंबर, 2018

किसी और दिन - -

कोई नहीं रुकता किसी के लिए,
ये ज़िन्दगी का सफ़र है कोई
ख़ूबसूरत ख़्वाब नहीं।
तहत तबादिल
से है तमाम
कारोबार
ए जहाँ, यहाँ कोई भी किसी -
का अहबाब नहीं। तुम्हारी
वाबस्तगी बेशक है
बहुत ही दिलकश
लेकिन तहे
दिल में
है क्या, मुझे इसका ज़रा भी -
अंदाज़ नहीं। चलो मान
भी लें कि हैं बहोत
गहरी तुम्हारी
निगाहें,
किसी और दिन डूब के देखेंगे
ज़रूर, लेकिन आज नहीं।

* *
- शांतनु सान्याल 





04 सितंबर, 2018

इक मुश्त रौशनी - -

अहाते की धूप को यूँ ही
चुपके से आने दो,इक
मुश्त रौशनी है
काफ़ी दिल
ए नाशाद
के लिए,
किस
किस का रोना रोएं जिसे
जाना है उसे जाने दो।
हमें अपने बेरंग
दर ओ दीवार
से कोई
शिकायत नहीं, काग़ज़ी
फूलों को देख ग़र
कोई बहके तो
बहक जाने
दो।
ये आईना है बहोत ही - -
बेमुरव्वत, कोई
समझौता नहीं
करता,उनकी
मर्ज़ी,
नाज़ुक शीशमहल बारहा
चाहे सजाने दो। ताश
के घर ही तो  हैं
सभी, कोई
बादशाह
हो या
फ़क़ीर, ढहना तो है मुक़र्रर
 इक दिन, चाहे घर
जितना ऊंचा
बनाने दो।

* *
- शांतनु सान्याल


 

03 सितंबर, 2018

आलोक प्रवाह - -

एक तृषित मैं ही नहीं इस जग में,
हर एक चेहरे में है बसा कहीं
न कहीं एक मृग मरीचिका,
एक यायावर सिर्फ़ नहीं
मेरा मन, हर एक
मोड़ पर है
कोई न
कोई अनबूझ प्रहेलिका। उतार -
चढ़ाव की अपनी ही है एक
अलग अनुभूति, जीवन -
पथ कभी सरल रेखा
और कभी लगे
अपरिभाषित
तालिका।
कुछ फूल तुम्हारे नाम किए अर्पण,
कुछ गंध रहे जीवित मम हृदय
अभ्यंतरण, देह - प्राण
सब तुम्हारे नाम
फिर भी तुम
हो चिर -
अनामिका, अनंत प्रवाह में बहती -
हों जैसे असंख्य दीप मलिका।

* *
- शांतनु सान्याल

मुहाने के यात्री - -

जनशून्य तटभूमि, या अनावृत वक्षस्थल,
लहरों का आघात निरंतर, कुछ
बुझते जलते अदृश्य आग्नेय -
कण, कभी तुम्हारे मध्य
कभी मेरे अंदर।
जीवन के
रूप
या मुहाने पर समर्पित जलधार, कहीं
उभरते जुगनुओं के बहते द्वीप,
कहीं टूटते रिश्तों के कगार।
निशि पुष्प की तरह
कभी महकते
अनुरागी
पल,
और कभी नीरवता फैलाए अपना - -
अंचल।  फिर भी जीवन नदी बहे
निःशब्द अविरत,सांसों में
बांधे विस्तृत समुद्र -
सैकत।

* *
- शांतनु सान्याल

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