14 जनवरी, 2021

अंदर कुछ और बाहर कुछ - -

मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं
निशाचर, सुदूर बांस वन में
अग्नि रेखा सुलगती सी,
कोई नहीं रखता
यहाँ दीवार
पार की
ख़बर,
नगर कीर्तन चलता रहता है - -
अपनी जगह, शब्दों में हैं
तथागत, उत्पीड़न
घर के अंदर,
छींके पर
रखे हैं,
सभी ख़्वाबों के खिलौने, बिल्ली
की तरह लोग देखा किए
आठों पहर, सोचने
से कहीं गिरता
है, नीचे
नीला
आकाश, ज़रा सी हलचल में,थम
सा गया सारा शहर, मैं छोड़
आया था, सब कुछ
समुद्र के किनारे,
बिन छुए ही
लौट गई
तेज़
वो मझधार की लहर, कोई किसी
का सर दर्द नहीं लेता,
मेरे दोस्त, बाहर
से हर कोई
है सजल,
अंदर
से लेकिन बेअसर, मृत नदी के
दोनों तट पर खड़े हैं -
निशाचर।

* *
- - शांतनु सान्याल
 

 


28 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर प्रस्तुति।
    मकर संक्रान्ति का हार्दिक शुभकामनाएँ।

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  2. अत्यंत भावपूर्ण । शुभकामनाएँ ।

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  3. वाह! बहुत सुंदर भावपूर्ण कविता।

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  4. सुंदर रचना आदरणीय शांतनु जी

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  5. दुर्दिन समय की नब्ज टटोलती भावपूर्ण रचना
    वाह
    बधाई

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  6. लौटती लहर क्या कुछ नहीं समेटे है खुद में

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  7. कोई किसी
    का सर दर्द नहीं लेता,
    मेरे दोस्त, बाहर
    से हर कोई
    है सजल,
    अंदर
    से लेकिन बेअसर, मृत नदी के
    दोनों तट पर खड़े हैं -
    निशाचर।----- बहुत सराहनीय

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  8. 'वो मझधार की लहर, कोई किसी
    का सर दर्द नहीं लेता,
    मेरे दोस्त, बाहर
    से हर कोई
    है सजल,
    अंदर
    से लेकिन बेअसर, मृत नदी के
    दोनों तट पर खड़े हैं -
    निशाचर।' - बहुत ही सुन्दर, बंधू शान्तनु जी! क्या बात कह दी है आपने!

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