कोई सुबह बंद लिफ़ाफ़े में शबनमी
पयाम ले के आए, तितलियों
के पर, जो खो गए कोहरे
में कहीं, ख़ुश्बुओं में
ढल कर रात का
सलाम ले के
आए।
मैं आज भी मुंतज़िर हूँ उसी डूबते
दिन के किनारे, जो उबार ले
मुझ को गुम होने से
पहले, कहीं से
एक मुश्त
उजला
सा शाम ले के आए। अनगिनत बार
नीलाम होता रहा है मेरा जिस्म,
रूह तो रहे ज़िंदा, कोई तो
हो, जो आख़री दाम
ले के आए।
अजीब
सा
नशा है ये ज़िन्दगी, ख़त्म होती नहीं
चाहतों की हिचकियाँ, मौत की
दस्तक से पहले कोई जाए,
ख़्वाबों का छलकता
जाम ले के
आए।
उतार लाओ मजलिस ए रौशनी को
कि अभी तक है दिलों में अंधेरा,
दिल से दिल तो मिले, कहीं
से कोई, वो जोड़ने के
नुस्ख़े, तमाम
ले के
आए। कोई सुबह बंद लिफ़ाफ़े में - -
शबनमी पयाम ले के आए।
* *
- - शांतनु सान्याल
11 जनवरी, 2021
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जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंअजीब
जवाब देंहटाएंसा
नशा है ये ज़िन्दगी, ख़त्म होती नहीं
चाहतों की हिचकियाँ, मौत की
दस्तक से पहले कोई जाए,
ख़्वाबों का छलकता
जाम ले के
आए।
वाह!!!!
क्या बात....
लाजवाब सृजन
ह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंउतार लाओ मजलिस ए रौशनी को
जवाब देंहटाएंकि अभी तक है दिलों में अंधेरा,
दिल से दिल तो मिले, कहीं
से कोई, वो जोड़ने के
नुस्ख़े, तमाम
ले के
आए...बहुत ख़ूब ..बहुत ही सुंदर रचना..
ह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
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