03 जनवरी, 2021

आकाश विहीन पृथ्वी - -

एक सर्पिल रेखा की तरह, अतीत
की नदी, छोड़ गई है विस्तृत
बंजर अहसास, जिसके
दोनों किनारे हैं
खड़े रेत के
पहाड़,
समय मुझ से कहता है, कि मैंने
खो दिया है बहुत कुछ, अब
रिक्त हस्त के सिवा
कुछ भी नहीं
मेरे पास।
किंतु
ये पूर्ण सत्य नहीं हैं, बहुत कुछ
खो के भी लोग पा जाते हैं
मन की मुराद, कितना
कुछ उठा लाते हैं
लोग यूँ ही
राह
चलते, किसे मालूम, यूँ ही कोई
एक दिन लौटा जाए, मेरी
सभी गुमशुदा याद।
उस विलुप्त
नदी के
तट
पर हैं कतारबद्ध, कुछ खेजड़ी के
दरख़्त, कुछ बंधनों के धागे
लिपटे रहते हैं जड़ों तक,
चाहे दिशाहीन हो
मौसम, अथवा
नक्षत्र वृन्द
भूल जाएं
अपना
रास्ता, कुछ लोग रहते हैं दिल -
की गहराइयों तक जुड़े हुए
हर पल हर वक़्त। मैं
जानता हूँ, तुम
नहीं लौटा
सकोगे
मेरे
खोए हुए दिन, किसी तरह ग़र
ढूंढ भी लाए, उस विलुप्त
स्रोत को, तो मैं चाह
कर भी, उस पर
काग़ज़ की
नाव
न बहा पाऊंगा, कुछ ख़्वाहिशों
के आकाश होते हैं बहुत
ही सिमित, घुट के
रह जाते हैं, बस
चार दीवारों
के मध्य,
तुम
उन स्वप्निल विमानों को अपने
पास ही रख लो, ग़र वो मिले
भी तो उन्हें दहलीज़ के
पार न उड़ा पाऊंगा,
काग़ज़ की वो
नाव चाह
कर भी
न बहा पाऊंगा।

* *
- - शांतनु सान्याल
 
  

12 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन रचना, नववर्ष मंगलमय हो

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  2. यादों में अतीत का हर पल जीवित रहता है ! भावपूर्ण रचना !

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