18 जनवरी, 2021

अंदर का मिठास - -

धूप का उत्तरीय उतरने में,
ज़रा भी समय नहीं
लगता, जो
आँधियों
में
पला हो, उसे बिखराव से - -
भय नहीं लगता,
हमारे पास
कुछ भी
नहीं,
सिवा कुछ शब्दों के झुरमुट,
अंतर्तम खोलें, जीवन में
कुछ भी अनिश्चय
नहीं लगता,
इक
गहरा सुकून है, दिल को - -
जब से चाहतों से
तौबा की,
अपने
पराए चेहरों के बीच, अब
कोई संशय नहीं लगता,
पतझर हो या
मधुमास,
खिलना
बिखरना दोनों हैं आसपास,
सजग मन को किसी
और शब्दों का
परिचय
नहीं
लगता, वो मिठास जो ख़ुद
के अंदर रहता है,
सदियों से
विस्मृत,
उसे
शोध कर पाएं, तो कोई - - -
और मधु संचय
नहीं लगता।

* *
- - शांतनु सान्याल

 
 

15 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (19-1-21) को "जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि"(चर्चा अंक-3951) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    कामिनी सिन्हा


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  2. बहुत बहुत सुन्दर सारगर्भित रचना

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  3. वो मिठास जो ख़ुद
    के अंदर रहता है,
    सदियों से
    विस्मृत,
    उसे
    शोध कर पाएं, तो कोई - - -
    और मधु संचय
    नहीं लगता।..सच्चाई का सटीक विश्लेषण करती पंक्तियों के साथ साथ ..एक बेहतरीन कृति पढ़ने का अवसर देने के लिए शान्तनु जी,बहुत बहुत धन्यवाद..।

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