वो झिलमिलाती सी नदी रात ढले,
सितारों का लिबास ओढ़े
उतरती है, निःशब्द
सीने की अतल
गहराइयों
में।
वो कोई यादों की है गुमनाम बस्ती,
ज़ख्मों के गिरह खोलती है
धीरे धीरे, रूह जागती है
दर्द की परछाइयों
में। वो सभी
हसीं
लम्हात बिखरे पड़े हैं कांच के फ़र्श
पर, बहुत बेतरतीब से, ढूंढते
हैं हम गूंगी सदा
तन्हाइयों
में।
खुले पड़े हैं, सभी मख़मली संदूक,
जिन्हें जो चाहिए था वो साथ
ले गए, बहुत लुफ़्त आता
है लापरवाहियों
में।
कुछ अहदनामें जो अभी तक हैं कोरे,
कुछ अपनापन आज भी डालते
हैं डोरे, सुकूं ज़रूर था
बेवजह की लड़ाइयों
में। पास रहने
से पहाड़
का
नीलापन घुल जाता है, बहुत ही जल्दी,
दूर जाने पर, हर नुख़्स लगती
अज़ीज, किसी की चंद
अच्छाइयों में। वो
शीर्षक विहीन
चेहरा,
ज़िल्द की तरह, वक़्त से कहीं पहले ही
उतर गया, कितने हाथों से
गुज़र कर, आख़िर
पुरानी किताब
की दुकां पे
ठहर
गया, उस का ज़िक्र भी अब नहीं होता
ज़िन्दगी की
कहानियों
में।
* *
- - शांतनु सान्याल
12 जनवरी, 2021
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हृदयस्पर्शी सृजन.
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 12 जनवरी 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (13-01-2021) को "उत्तरायणी-लोहड़ी, देती है सन्देश" (चर्चा अंक-3945) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हर्षोंल्लास के पर्व लोहड़ी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
ह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंबहुत बढ़िया सर!
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर सृजन ... शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंदिल को छूने वाली रचना
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
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