पत्थर के साथ बाँध कर भी, ग़र
डुबो आओ, किसी अगाध
जल में, अनुभूतियों
के पाण्डुलिपि,
हर हाल में
आते हैं
उभर, उसके चेहरे में था लिखा -
जीवन का सारांश, उसके
आँखों की गहराइयों
में थे, तैरते हुए
शब्दों के
तिनके,
वो मेरा ही बिम्ब था जिसे ढूंढा
किया उम्रभर, अनुभूतियों
के पाण्डुलिपि, हर हाल
में आते हैं उभर।
वो अधजला
अभिमान
ही था
यातना भार, हर कोई जानता है
दूरत्व विधि का ज्ञान, क्यों
कर बनता कोई, मेरे दर्द
का भागीदार, अपना
जिसे सोचता रहा
वो कभी न
था मेरा
अपना घर, वो मेरा ही बिम्ब था
जिसे ढूंढा किया उम्रभर।
एक संदूक प्रेम हो
या वटवृक्ष के
नीचे का
ध्वंस -
स्तूप, झर जाते हैं सभी एक दिन
जैसे हेमवर्ण कृष्णचूड़, झीं झीं
शब्दों में कहीं घुल जाती
है चाँदनी, कंटक वन
की ओर बढ़
जाते हैं
तब
दीर्घ निःश्वास, रात बढ़ती जाती
है निरंतर, हिय से तब लेते
हैं जन्म, अपरभाषित
अक्षर - -
* *
- - शांतनु सान्याल
अग्निशिखा :
शांतनु सान्याल / SHANTANU SANYAL / हिंदी / उर्दू काव्य गुच्छ
मंगलवार, 9 मार्च 2021
सोमवार, 8 मार्च 2021
तैरता हुआ उम्मीद - -
सीमाहीन नीरवता में कहीं गुम है
अश्वमेध का घोड़ा, यज्ञ के
अंगार कब से हो चुके
राख, निःशब्द हैं
सभी विजय
शंख -
ध्वनि, पताकाओं के रंग हो चुके -
हैं धूसर, दिग्विजय की चाह
ने उजाड़ दी है आबाद
जनपद, ज़मीन
भी हो
चले हैं ऊसर, मृत पड़े बीजों को - -
चाहिए विलुप्त संजीवनी,
निःशब्द हैं सभी
विजय शंख -
ध्वनि।
श्रृंखलों में आबद्ध हैं सभी तारीख़
और सन, ढोना पड़ेगा इस
ऋण को आजीवन, न
जाने वो कौन सी
रूपकथाओं
की बात
करते
हैं, यहाँ हर पल जीने की चाह -
में हम मरते हैं, न शुक्र है
मेहरबां न ही दयावान
कोई शनि, निःशब्द
हैं सभी विजय
शंख ध्वनि।
वृक्ष भी
वही,
फूल भी चिरंतन, लेकिन फल -
नहीं हो पाते पूर्णांग, जलते
ही बुझ जाते हैं सभी
प्रदीप शिखा, फिर
भी न जाने
कौन
है जो अंधकार के माथे लगा जाता
है चाँद का टीका, लगा जाता
है शेष प्रहर, क्षितिज के
किनारे उजालों से
भरी आशा की
तरणि,
निःशब्द हैं सभी विजय शंख ध्वनि।
* *
- - शांतनु सान्याल
अश्वमेध का घोड़ा, यज्ञ के
अंगार कब से हो चुके
राख, निःशब्द हैं
सभी विजय
शंख -
ध्वनि, पताकाओं के रंग हो चुके -
हैं धूसर, दिग्विजय की चाह
ने उजाड़ दी है आबाद
जनपद, ज़मीन
भी हो
चले हैं ऊसर, मृत पड़े बीजों को - -
चाहिए विलुप्त संजीवनी,
निःशब्द हैं सभी
विजय शंख -
ध्वनि।
श्रृंखलों में आबद्ध हैं सभी तारीख़
और सन, ढोना पड़ेगा इस
ऋण को आजीवन, न
जाने वो कौन सी
रूपकथाओं
की बात
करते
हैं, यहाँ हर पल जीने की चाह -
में हम मरते हैं, न शुक्र है
मेहरबां न ही दयावान
कोई शनि, निःशब्द
हैं सभी विजय
शंख ध्वनि।
वृक्ष भी
वही,
फूल भी चिरंतन, लेकिन फल -
नहीं हो पाते पूर्णांग, जलते
ही बुझ जाते हैं सभी
प्रदीप शिखा, फिर
भी न जाने
कौन
है जो अंधकार के माथे लगा जाता
है चाँद का टीका, लगा जाता
है शेष प्रहर, क्षितिज के
किनारे उजालों से
भरी आशा की
तरणि,
निःशब्द हैं सभी विजय शंख ध्वनि।
* *
- - शांतनु सान्याल
रविवार, 7 मार्च 2021
अविरत बहाव - -
बात थी दूर तक, नदी के हमराह बहते
जाना, बिना रुके, बिना थके, अनंत
स्रोत में, देह - प्राण को प्लावित
करना, लेकिन सहज
कहाँ, हर एक
सोच के
अनुकूल जीवन गुज़ारना, बात थी दूर
तक, नदी के हमराह बहते जाना।
नदी के दोनों तटबंधों की
है, अपनी ही अलग
कहानी, कुछ
घाटों में
थे, सजे हुए मंदिर के दीप स्तम्भ -
कुछ किनारों से उठता हुआ
धुआं आकाशमुखी,
जीवन को है
हर हाल
में थोड़ा रुकना, थोड़ा चलते जाना,
बात थी दूर तक, नदी के हमराह
बहते जाना। बात थी नदी
के अनुप्रवाह में खो
जाना, जैसे
सभी
रास्ते, अंततः किसी एक बिंदु में आ
कर, लहरों की तरह एक दूजे में
समा जाते हैं, बात थी सभी
विषमताओं को मिल
के लांघना, और
मुहाने की
ओर
बढ़ते जाना, बात थी दूर तक, नदी के
हमराह बहते जाना। समय हो, या
नदी दोनों बात नहीं रखते,
निःशब्द अपने तटों
को बदल जाते
हैं, बात
थी
हमारे मध्य होगा सांसों का सेतु बंधन,
बहुत कुछ तुम ने था कहा, बहुत
कुछ मैंने भी उसमें था जोड़ा,
उत्तरोत्तर वो सभी
बातें, गोखुर -
झील
की
तरह, एक मोड़ पर आ कर सिमट गई,
अब दोनों छोर पर है कोई रेतीला
साम्राज्य, फिर भी सीने के
अंदर कहीं, आज भी हैं
मौजूद, कुछ गीली
मिट्टी के सुरंग -
पथ, बस
इन्हीं
एहसासों के साथ, ज़िन्दगी को है साहिल
तक निकलते जाना, बात थी
दूर तक, नदी के हमराह
बहते जाना।
* *
- - शांतनु सान्याल
जाना, बिना रुके, बिना थके, अनंत
स्रोत में, देह - प्राण को प्लावित
करना, लेकिन सहज
कहाँ, हर एक
सोच के
अनुकूल जीवन गुज़ारना, बात थी दूर
तक, नदी के हमराह बहते जाना।
नदी के दोनों तटबंधों की
है, अपनी ही अलग
कहानी, कुछ
घाटों में
थे, सजे हुए मंदिर के दीप स्तम्भ -
कुछ किनारों से उठता हुआ
धुआं आकाशमुखी,
जीवन को है
हर हाल
में थोड़ा रुकना, थोड़ा चलते जाना,
बात थी दूर तक, नदी के हमराह
बहते जाना। बात थी नदी
के अनुप्रवाह में खो
जाना, जैसे
सभी
रास्ते, अंततः किसी एक बिंदु में आ
कर, लहरों की तरह एक दूजे में
समा जाते हैं, बात थी सभी
विषमताओं को मिल
के लांघना, और
मुहाने की
ओर
बढ़ते जाना, बात थी दूर तक, नदी के
हमराह बहते जाना। समय हो, या
नदी दोनों बात नहीं रखते,
निःशब्द अपने तटों
को बदल जाते
हैं, बात
थी
हमारे मध्य होगा सांसों का सेतु बंधन,
बहुत कुछ तुम ने था कहा, बहुत
कुछ मैंने भी उसमें था जोड़ा,
उत्तरोत्तर वो सभी
बातें, गोखुर -
झील
की
तरह, एक मोड़ पर आ कर सिमट गई,
अब दोनों छोर पर है कोई रेतीला
साम्राज्य, फिर भी सीने के
अंदर कहीं, आज भी हैं
मौजूद, कुछ गीली
मिट्टी के सुरंग -
पथ, बस
इन्हीं
एहसासों के साथ, ज़िन्दगी को है साहिल
तक निकलते जाना, बात थी
दूर तक, नदी के हमराह
बहते जाना।
* *
- - शांतनु सान्याल
शनिवार, 6 मार्च 2021
अंदर का कैनवास - -
कोई कितना भी चढ़ा ले रंग जाफ़रानी,
अदृश्य वहशीपन को रंगना नहीं
है सरल, वो सभी आदिम
पल जो हम गुज़ार
आए, दुनिया
की सोच
जो भी
हो,
अपनी नज़र से बचना है बहुत विरल,
अदृश्य वहशीपन को रंगना नहीं है
सरल। आख़री प्रहर तक वो
जागता है, मेरे शरीर के
बहुत अंदर, निर्वस्त्र
मेरा अस्तित्व
समेटता है
ख़ुद को
ख़ुद
से बाहर, रात जाते जाते, गिरा जाती
है सभी रेत के महल, अदृश्य
वहशीपन को रंगना नहीं
है सरल। सुबह से
पहले उतर
जाती हैं
सभी
पूरबेला, सुदूर क्षितिज में कहीं होता
है नीलाकाश तब बहुत ही अकेला,
सागर सैकत में प्रथम किरण
ढूंढते हैं मुक्तामणि,
टूटे हुए सीपों
के बिखरे
हुए
खोल, नहीं दे पाते गुमशुदा मोतियों
के ठिकाने, कुछ पहेलियों का
नहीं होता है शाब्दिक हल,
अदृश्य वहशीपन को
रंगना नहीं है
सरल।
* *
- - शांतनु सान्याल
अदृश्य वहशीपन को रंगना नहीं
है सरल, वो सभी आदिम
पल जो हम गुज़ार
आए, दुनिया
की सोच
जो भी
हो,
अपनी नज़र से बचना है बहुत विरल,
अदृश्य वहशीपन को रंगना नहीं है
सरल। आख़री प्रहर तक वो
जागता है, मेरे शरीर के
बहुत अंदर, निर्वस्त्र
मेरा अस्तित्व
समेटता है
ख़ुद को
ख़ुद
से बाहर, रात जाते जाते, गिरा जाती
है सभी रेत के महल, अदृश्य
वहशीपन को रंगना नहीं
है सरल। सुबह से
पहले उतर
जाती हैं
सभी
पूरबेला, सुदूर क्षितिज में कहीं होता
है नीलाकाश तब बहुत ही अकेला,
सागर सैकत में प्रथम किरण
ढूंढते हैं मुक्तामणि,
टूटे हुए सीपों
के बिखरे
हुए
खोल, नहीं दे पाते गुमशुदा मोतियों
के ठिकाने, कुछ पहेलियों का
नहीं होता है शाब्दिक हल,
अदृश्य वहशीपन को
रंगना नहीं है
सरल।
* *
- - शांतनु सान्याल
शुक्रवार, 5 मार्च 2021
असमाप्त यात्रा - -
स्मृतियों के भित्ति चित्र, धीरे धीरे घुप्प
अंधेरे में कहीं खो जाएंगे, रह जाएंगी
शेष, कुछ अनुभूति की उड़ती हुई
चिंगारियां, सभी विष
अपने आप एक
दिन हो
जाएंगे निस्तेज, सुख दुःख हो जाएंगे - -
जब एकाकार, भय मुक्त ह्रदय
को मिल जाएगी उस पल
कल्पतरु की परछाइयां,
रह जाएंगी शेष,
कुछ अनुभूति
की उड़ती
हुई
चिंगारियां। उन कोहरे की वादियों में, -
कोई भी न साथ होगा, कुछ दूर
तक आ कर, कहीं और बरस
जाएंगे मोह के बादल, न
कोई पास, न ही कोई
दूर तक आएगा
नज़र, शब्द
सहसा
हो
जाएंगे मौन, लम्हा - लम्हा दूर होते - -
चली जाएंगी, अंतर की सभी
परेशानियां, रह जाएंगी
शेष, कुछ अनुभूति
की उड़ती हुई
चिंगारियां।
बर्फ़ की
उस
गतिहीन नदी के नीचे रह जाएंगे नेह
के जीवाश्म, कुछ अर्धांकुरित
रिश्तों के बीज, कुछ
चाहतों की अंध
मछलियां,
सृष्टि
का
निर्माण चक्र निरंतर है चलायमान - -
बर्फ़ पिघलते ही जाग उठेंगे
यथारीति सभी प्रसुप्त
तन्हाइयां, रह
जाएंगी शेष,
कुछ
अनुभूति की उड़ती हुई चिंगारियां। - -
- - शांतनु सान्याल
अंधेरे में कहीं खो जाएंगे, रह जाएंगी
शेष, कुछ अनुभूति की उड़ती हुई
चिंगारियां, सभी विष
अपने आप एक
दिन हो
जाएंगे निस्तेज, सुख दुःख हो जाएंगे - -
जब एकाकार, भय मुक्त ह्रदय
को मिल जाएगी उस पल
कल्पतरु की परछाइयां,
रह जाएंगी शेष,
कुछ अनुभूति
की उड़ती
हुई
चिंगारियां। उन कोहरे की वादियों में, -
कोई भी न साथ होगा, कुछ दूर
तक आ कर, कहीं और बरस
जाएंगे मोह के बादल, न
कोई पास, न ही कोई
दूर तक आएगा
नज़र, शब्द
सहसा
हो
जाएंगे मौन, लम्हा - लम्हा दूर होते - -
चली जाएंगी, अंतर की सभी
परेशानियां, रह जाएंगी
शेष, कुछ अनुभूति
की उड़ती हुई
चिंगारियां।
बर्फ़ की
उस
गतिहीन नदी के नीचे रह जाएंगे नेह
के जीवाश्म, कुछ अर्धांकुरित
रिश्तों के बीज, कुछ
चाहतों की अंध
मछलियां,
सृष्टि
का
निर्माण चक्र निरंतर है चलायमान - -
बर्फ़ पिघलते ही जाग उठेंगे
यथारीति सभी प्रसुप्त
तन्हाइयां, रह
जाएंगी शेष,
कुछ
अनुभूति की उड़ती हुई चिंगारियां। - -
- - शांतनु सान्याल
गुरुवार, 4 मार्च 2021
जंग खाए हुए शब्द - -
सभी चरित्र थे परिकल्पित, उस पार
से सभी दृश्य एक ही थे, क्या
बिहान की उर्वर भूमि और
क्या अस्ताचल के
मरू प्रांतर,
सत्य
को उजागर करने के लिए हाथ बढ़ा
कर मुखौटों को उतारो तो जाने,
अख़बारों के मुख पृष्ठों
में जो रहते हैं हर
रोज़ मौजूद,
दिखाते
हैं
ख़्वाबों के झूठे बॉयोस्कोप, किसी -
दिन उन्हें नंगे पांव, बंजर
ज़मीं पे उतारो तो
जाने, सत्य
को
उजागर करने के लिए हाथ बढ़ा कर
मुखौटों को उतारो तो जाने।
वो सभी चेहरे जो ख़ुद
को पथ प्रदर्शक
कहा करते
थे उन्हें
अक्सर अंधी गलियों में टहलते हुए
है देखा, सब मिथ्या, सब कुछ
सजाए हुए रंगमंच थे,
भांडों की तरह
सभी चहेरों
को,
रंगीन परदों के पीछे उछलते हुए है
देखा, उनके जिस्म पर असली
पैरहन उभारो तो जाने,
किसी दिन उन्हें
नंगे पांव,
बंजर
ज़मीं पे उतारो तो जाने। दरअसल -
कुछ पीठ हो जाते हैं चाबुक के
अभ्यस्त, और कुछ मुट्ठी
वक़्त के साथ बहुत
ही सख़्त, फिर
भी जंग
लगे
शब्दों को सान पत्थर से निखारो तो
जाने, सत्य को उजागर करने के
लिए हाथ बढ़ा कर मुखौटों
को उतारो तो
जाने।
* *
- - शांतनु सान्याल
से सभी दृश्य एक ही थे, क्या
बिहान की उर्वर भूमि और
क्या अस्ताचल के
मरू प्रांतर,
सत्य
को उजागर करने के लिए हाथ बढ़ा
कर मुखौटों को उतारो तो जाने,
अख़बारों के मुख पृष्ठों
में जो रहते हैं हर
रोज़ मौजूद,
दिखाते
हैं
ख़्वाबों के झूठे बॉयोस्कोप, किसी -
दिन उन्हें नंगे पांव, बंजर
ज़मीं पे उतारो तो
जाने, सत्य
को
उजागर करने के लिए हाथ बढ़ा कर
मुखौटों को उतारो तो जाने।
वो सभी चेहरे जो ख़ुद
को पथ प्रदर्शक
कहा करते
थे उन्हें
अक्सर अंधी गलियों में टहलते हुए
है देखा, सब मिथ्या, सब कुछ
सजाए हुए रंगमंच थे,
भांडों की तरह
सभी चहेरों
को,
रंगीन परदों के पीछे उछलते हुए है
देखा, उनके जिस्म पर असली
पैरहन उभारो तो जाने,
किसी दिन उन्हें
नंगे पांव,
बंजर
ज़मीं पे उतारो तो जाने। दरअसल -
कुछ पीठ हो जाते हैं चाबुक के
अभ्यस्त, और कुछ मुट्ठी
वक़्त के साथ बहुत
ही सख़्त, फिर
भी जंग
लगे
शब्दों को सान पत्थर से निखारो तो
जाने, सत्य को उजागर करने के
लिए हाथ बढ़ा कर मुखौटों
को उतारो तो
जाने।
* *
- - शांतनु सान्याल
बुधवार, 3 मार्च 2021
अपनी तरह से - -
जो जहाँ भी हों, अपनी तरह से हर हाल
में सुख को गढ़ें, ज़रूरी नहीं हर एक
ख़्वाब को आकार मिले, अशांत
पृथ्वी का आवर्तन खोजता
है, अंधकार रातों में
एक शांति
स्तूप,
हज़ार मूक क्रंदन के मध्य छुपी रहती -
है निरीह सुबह की धूप। जो जहाँ
भी रहें, अपनी तरह से जीवन
को रचें, ज़रूरी नहीं हर
पत्थर का पारस
होना, फिर भी
कोशिश
हो,
किसी को अनजाने में कोई चोट न
लगे, बहुत कठिन है दिलों को
जीतना, उम्र भर पढ़ने के
बाद भी, ये किताब
रहती है अबूझ,
तारों की
भीड़
में
कब कौन कहाँ, निःशब्द टपक पड़े
किसे ख़बर, अभी तो जी लें
अपनी तरह, आकाश
पार
में सुख को गढ़ें, ज़रूरी नहीं हर एक
ख़्वाब को आकार मिले, अशांत
पृथ्वी का आवर्तन खोजता
है, अंधकार रातों में
एक शांति
स्तूप,
हज़ार मूक क्रंदन के मध्य छुपी रहती -
है निरीह सुबह की धूप। जो जहाँ
भी रहें, अपनी तरह से जीवन
को रचें, ज़रूरी नहीं हर
पत्थर का पारस
होना, फिर भी
कोशिश
हो,
किसी को अनजाने में कोई चोट न
लगे, बहुत कठिन है दिलों को
जीतना, उम्र भर पढ़ने के
बाद भी, ये किताब
रहती है अबूझ,
तारों की
भीड़
में
कब कौन कहाँ, निःशब्द टपक पड़े
किसे ख़बर, अभी तो जी लें
अपनी तरह, आकाश
पार
उमड़ रहा है
उजाले का
जुलूस।
अशांत पृथ्वी का आवर्तन खोजता
है, अंधकार रातों में
एक शांति
स्तूप - -
* *
- - शांतनु सान्याल
उजाले का
जुलूस।
अशांत पृथ्वी का आवर्तन खोजता
है, अंधकार रातों में
एक शांति
स्तूप - -
* *
- - शांतनु सान्याल
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
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जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
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उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
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शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
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दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
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नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
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बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
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वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
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ख़्वाहिशों का यूँ भी कोई किनारा नहीं होता, इक बेमौज नदी है, कोई बेसदा बहती हुई - डूबनेवाले का यहाँ कोई भी सहारा नहीं होता। जब आग लगी...
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