शून्यता की यात्रा अनंत
है एक गहनता का
एहसास, कभी
अनगिनत
हो कर
भी
कुछ भी नहीं अपने पास,
जीवन वृत्त घूमता रहता
है, अपने आप में
अंतर्लीन,
प्रणय
खोह
से हो कर हृदय खोजता
है हलकी
उजास,
ऋतुचक्र उतार लेता है
ऊंचे दरख़्तों के
हरित पोशाक,
झुर्रियों के
उभरते
ही,
चेहरे से रूठ जाता है
मधुमास,
जनस्रोत में रह कर भी
आदमी होता है
बेहद निःसंग,
दरअसल
अपने
आप से ही नहीं मिलता
हमें अवकाश,
कौन किस का दुःख दर्द
बांटे सभी हैं व्यस्त
प्रतियोगी, इक
हल्की से
लकीर
है
धूप छांव के बीच जीने की
आस,
* *
- - शांतनु सान्याल