अस्तगामी सूर्य के साथ डूब जाता है विगत काल, धीरे धीरे सभी स्मृतियां, अंध घाटियों में हो
जाती हैं विलीन, क्रमशः जीवन बढ़
चला है धूसर पथ से हो कर
अंधकारमय गुफाओं
में, यहीं से आत्म
खोज का
होता है
आरंभ,
बिखरे पड़े हैं चारों तरफ देह के बाह्य - अंतर्वस्त्र,
निःशब्द कर जाता है फिर से दर्पण का
सवाल, अस्तगामी सूर्य के साथ
डूब जाता है विगत काल ।
आदिम युग से बहुत
जल्दी लौट आता
है अस्तित्व
मेरा
पुनः समेटता है बिखरे हुए अंग प्रत्यंग के खोलों को, रखता है सहेज कर एक एक संवेदनाओं
को उनके अंदर किसी सीप की तरह,
रात्रि सहसा बढ़ चली है गहन
सागरीय मायांचल की
तरफ, एक अदृश्य
स्पर्श मुझे कर
जाती है
शापमुक्त, देह के क्षत विक्षत अंग फिर भर चले हैं
आहिस्ता आहिस्ता, पुनः जी उठा हूँ मैं इस
पल सब कुछ खूबसूरत है बहरहाल,
अस्तगामी सूर्य के साथ डूब
जाता है विगत
काल ।
- - शांतनु सान्याल
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसादर।
-----
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २८ मार्च २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सूर्यास्त की साम्यता जीवन के साथ…, अति सुन्दर सृजन । पेंटिंग बहुत सुन्दर है ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत खूब!
जवाब देंहटाएं