उम्र की ढलान पर है शून्यता की छाया, पिंजर द्वार हैं उन्मुक्त, विहंगम नभ
फेंक रहा उड़ान पाश, फिर भी
मन पाखी नही चाहता
छोड़ना बंदीगृह,
बहुत कठिन
है छोड़ना
सभी मोह माया, उम्र की ढलान पर
है शून्यता की छाया । मंदिर घाट
की सीढ़ियों से उतर कर जल
स्पर्श द्वारा सिंधु पार की है
कल्पना, काश सहज
होता फल्गु नदी
के पार देह
का नव
रूप
में ढलना, हज़ार बार देखा मन दर्पण
वही बिम्ब धूसर, वही माटी की
काया, उम्र की ढलान पर
है शून्यता की छाया ।
- - शांतनु सान्याल
गहन भाव,मन को सुकून देती अभिव्यक्ति सर।
जवाब देंहटाएंसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार १८ मार्च २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सुन्दर
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