27 अक्तूबर, 2021

सुरमेदानी की तलाश - -

सुबह सरका गया, देह से लिपटे
सारे लिहाफ़, बिखरे हुए हैं
फ़र्श पर कुछ सुरमई
बूंदें, ज़िन्दगी
ढूंढती है
फिर
वही क़ीमती सुरमेदानी, दर्पण
मुस्कुराता है छुपा कर ओंठों
पर इक रहस्मयी गहराई,
इत्र कब से है गुम
हवाओं में, तैरती
है केवल
पलकों
तले
गंध की परछाई, इक नशा है
या कोई ख़ुमार ए तिलिस्म,
खींचे लिए जाए न
जाने कहां, राह
तो लगे है
ज़रा -
ज़रा सा पहचाना, मंज़िल है
मगर अनजानी, बिखरे
हुए हैं फ़र्श पर कुछ
सुरमई बूंदें,
ज़िन्दगी
ढूंढती
है
फिर वही क़ीमती सुरमेदानी।
* *
- - शांतनु सान्याल
   

26 अक्तूबर, 2021

जुलूस का मशाल वाही - -

वो सभी हो चुके हैं किंवदंती जिनका
बखान कर के आज तुम ख़ुद को,
महा मानव कहते हो, जातक
कथाओं में कहीं, तुम
आज भी हो वहीं
पर खड़े, जहाँ
था कभी
छद्म
रुपी सियार, ओढ़े हुए व्याघ्र छाल !
पहलू बदल बदल कर छलते हो,
वो सभी हो चुके हैं किंवदंती
जिनका बखान कर
के आज तुम
ख़ुद को,
महा
मानव कहते हो। दरअसल हर युग -
में कमोबेश इसी तरह से बार
बार बदलता है इतिहास,
भीष्म जोहते हैं
ऋतुओं  
का
परिवर्तन, जीवन खोजता है सिर्फ़
एकांतवास, उंगली काट कर
मीर ए कारवां की तरह
तुम शहीदों में
अपना
नाम
लिखवाने के लिए मचलते हो, वो
सभी हो चुके हैं किंवदंती
जिनका बखान कर
के आज तुम
ख़ुद को,
महा
मानव कहते हो।
* *
- - शांतनु सान्याल     



 
 

18 अक्तूबर, 2021

सुरभित उपहार - -

तटबंध के नीचे होते हैं न जाने कितने ही
गह्वर, काठ का सेतु कब टूट जाए,
नाव को कहाँ रहती है उसकी
ख़बर, फिर भी तुम हाथ
तो बढ़ाओ किनारे
की तरफ, कोई
न कोई तो
ज़रूर
होगा थामनेवाला, बड़ी उम्मीद से तकती
है तुम्हें ज़िन्दगी की रहगुज़र, काठ
का सेतु कब टूट जाए, नाव को
कहाँ रहती है उसकी ख़बर।
उपहार की है अपनी
ही एक नि:स्वार्थ
परिभाषा, जो
बदले में

रखे कोई भी अभिलाषा, अदृश्य सुरभि की
तरह जो बांध जाए, देह प्राण में मर्म
के धागे, वो अंतर्भाव जीवन को
परिपूर्ण कर जाए, कालकूट
की तरह, कंठ में रह
कर हो जाए अपने
आप अमर,
काठ
का सेतु कब टूट जाए, नाव को कहाँ रहती
है उसकी ख़बर।
* *
- -  शांतनु सान्याल

13 अक्तूबर, 2021

जनशून्य मंच - -

बिखरे पड़े हैं पतंग, जन शून्य है दर्शक
वीथी, थम चुके हैं नेपथ्य के सभी
वृंदगान, बुझ चुके हैं रंगीन
चिराग़, थम चुका है
वक्ष स्थल पर
पिघल कर
राग
बिहाग, सभी लेन देन हो चुके पूरे, सभी
नदियां जा मिली अंतिम स्थान, जन
शून्य है दर्शक वीथी, थम चुके हैं
नेपथ्य के सभी वृंदगान।
पथरीली सीढ़ियों
से चाँद भी
उतर
चला है, झील की अथाह गहराइयों में,
हम और तुम जैसे युगों से बैठे हों
यूँ ही रूबरू, ख़ामोश, चाँदनी
की परछाइयों में, रूह को
छू रही है तुम्हारी
संदली सांसें,
ब्रह्माण्ड
का
अस्तित्व यूँ ही बना रहे न रहे, मुझे
यक़ीन है, इन अमर पलों का
कभी न होगा अवसान,
जन शून्य है दर्शक
वीथी, थम चुके
हैं नेपथ्य
के सभी
वृंदगान।
* *
- - शांतनु सान्याल

10 अक्तूबर, 2021

समान्तराल यात्रा - -

किसी एक चन्द्रविहीन रात में, देखा था
उसे जनशून्य रेलवे प्लेटफॉर्म में,
आँखों में लिए शताब्दियों
का अंधकार, मायावी
आकाश के पटल
पर सुदूर
तारे  
खेल रहे थे सांप - सीढ़ी, ज़िन्दगी देख
रही थी, बहुत दूर जा कर पटरियों
का अचानक शून्य में खो
जाना, जिसके बाद
नहीं है कोई भी
पांथ शाला,
जहाँ
नीचे है ऊसर ज़मीं का बिस्तर, और
ऊपर देह से लिपटा हुआ
जराजीर्ण उम्र का
दुशाला, एक
घने कोहरे
में डूबी
हुई
अरण्य घाटियां, दूर दूर तक फैले हुए
है रहस्य के अंबार, आँखों में लिए
शताब्दियों का अंधकार। रात
को गुज़रना है अपनी ही
लय में, अंकों का
हिसाब वक़्त
को नहीं
मालूम,
वो
अविरत बहता जाता है अपनी ही धुन
में अविराम, सुख - दुःख के कांटें
कहाँ होते हैं एक जगह कभी
स्थिर, एक दूजे से वो
टकराते हैं बार -
बार, आँखों
में लिए
शताब्दियों का अंधकार, मृगतृष्णा की
तरह सुबह खड़ा होता है क्षितिज
के उस पार - -
* *
- - शांतनु सान्याल
 

09 अक्तूबर, 2021

रिक्त स्थान की पूर्ति - -

बहुत कुछ कहने के बाद भी, बहुत
कुछ कहने को रहता है बाक़ी,
ये और बात है कि शब्दों
के ख़ाली स्थान भर
जाते हैं दीर्घ -
निःश्वास !
बहुत दूर जाने के बाद भी बहुत -
कुछ अनदेखा रह जाता
है, मुद्दतों एक ही
शहर में रह
कर भी
हम,
देख नहीं पाते अपने ही घर के
आस पास, शब्दों के ख़ाली
स्थान भर जाते हैं दीर्घ -
निःश्वास ! बहुत
क़रीब आने
के बाद
भी
दिलों की मुलाक़ात रहती है - -
अधूरी, सब कुछ छू कर भी
अनछुआ ही रहता
अक्स हमारा,
ख़ुद से
मिलने का हमें मिलता नहीं उम्र
भर इक पल का अवकाश,
शब्दों के ख़ाली स्थान
भर जाते हैं दीर्घ -
निःश्वास !
बहुत
कुछ सोचने के बाद रुक जाते हैं
हम अकस्मात् किसी एक
बिंदु पर, और छोड़
देते है और
अधिक
सोचना, बस उसी क्षण से ज़िन्दगी
ओढ़ लेती है कबीर वाला सन्यास,
शब्दों के ख़ाली स्थान
भर जाते हैं दीर्घ -
निःश्वास !  
* *
- - शांतनु सान्याल  

08 अक्तूबर, 2021

उम्रदराज़ परछाई - -

ढलती दोपहरी में नीम दरख़्त की
परछाई, तपते हुए बरामदे पर,
नाज़ुक सा इक मरहमी
एहसास रख जाए,
अजीब सी है
मुंतज़िर
पलों
की अनुभूति, उड़ चुके हैं सुदूर - -
फूलों की वादियों में, वो सभी
सप्तरंगी तितलियों के
झुण्ड, बंद पलकों
की सतह पर
तैरते हैं
कुछ
स्पर्श की बूंदें, जाते जाते हलकी सी
कोई मुस्कान मेरे ओठों के पास
रख जाए, तपते हुए बरामदे
पर, नाज़ुक सा इक
मरहमी एहसास
रख जाए।
अंतहीन
होती
है
उम्मीद की गहराई, सतह को छू कर
अंदाज़ लगाना है मुश्किल, जो
दिखता है ज़रूरी नहीं वो
असली हो, इस दौर
में क्या पीतल,
क्या सोना,
देख कर
फ़र्क़
बताना है मुश्किल, मूल्यांकन का क्या
है भरोसा, बदल जाए हर एक हाट
बाज़ार के मोड़ पर, अनछुई
सी इक ख़ालिस चमक
कोई  यूँ ही मेरे
पास रख
जाए,  
तपते हुए बरामदे पर, नाज़ुक सा - - -
इक मरहमी एहसास
रख जाए।
* *
- - शांतनु सान्याल

07 अक्तूबर, 2021

निःशब्द अनुभूति - -

मैं आज भी वहीं हूँ खड़ा, जहाँ से निकलती
थी एक धुंधली सी रहगुज़र, न जाने
कितनी बार उजड़ कर बसता
रहा, उस मोड़ के आगे
जो झिलमिलाता
सा है एक
ख़्वाबों
का शहर, तुम आज भी हो वहीं पर खड़े,
जहाँ पर ज़मीन को छूता सा लगे
आसमान, शायद तुम्हारे हाथ
में है कहीं ऋतु चक्र का
बिंदु कांटा ! बिद्ध
कर जाता है
अंधेरे में
भी
स्मृतियों का खंडहर, मैं आज भी वहीं
हूँ खड़ा, जहाँ से निकलती थी एक
धुंधली सी रहगुज़र। कांपते
उंगलियों से पूछते हैं
शब्द, निःशब्द
हो जाने
की
वजह, किस तरह से दिखाएं अपने - -
मौजूदगी का दस्तावेज़, असमय
के तूफ़ां से पूछ लेना यूँ ही
कभी, सब्ज़ पत्तों
के झर जाने
की वजह,
दूर तक
है लहरों का साम्राज्य, द्वीप का कोई
भी नामोनिशां बाक़ी नहीं, न जाने
किस कोण से आया था, किस
ओर चला गया, समय का
वो अनाहूत बवंडर,
मैं आज भी
वहीं हूँ
खड़ा,
जहाँ से निकलती थी एक धुंधली सी - -
रहगुज़र।
* *
- - शांतनु सान्याल

06 अक्तूबर, 2021

सुस्वागतम् - -

कांच के बक्से में हैं बंद कुछ रंगीन हवाई
मिठाई, एक सर्पिल सा कच्चा रास्ता,
सुदूर कांस वन से हो कर खो
जाता है उथली नदी के
किनार, पोखरों में
झांकता सा
लगे है
नीलाकाश, चंडी मंडप में हो रही है फिर -
एक बार लिपाई पुताई, कांच के
बक्से में हैं बंद कुछ रंगीन
हवाई मिठाई। पुष्प -
गंधों की पालकी
में हो सवार
आ रहे
हैं ऋतु शरद सुकुमार, कैलाश से आ रही
हैं उमा अपने ननिहाल, मंगल ध्वनि
संग साजे श्रद्धा के द्वार, हर
तरफ है व्याप्त मन
की अंतहीन
रौशनाई,
कांच
के बक्से में हैं बंद कुछ रंगीन हवाई - -
मिठाई।
* *
- - शांतनु सान्याल

 

02 अक्तूबर, 2021

सिमटती नदी का कगार - -

चाँदनी मोम सी पिघल गई, उठा
गया कोई रात का झिलमिल
शामियाना, हल्का सा
ख़ुमार है बाक़ी,
बहुत निःसंग
सा लगे
डूबता
हुआ शुक्रतारा, अहाते का पेड़ है - -
ख़ामोश, लुटा कर अपना सब
हरसिंगार, कोई दस्तक
दहलीज़ तक आ कर
लौट जाती है
बार बार,
एक
पगडण्डी है, जो दूर तक जाती है न
जाने कहाँ, ढूंढती हुई अनाम
नदी का किनारा, बहुत
निःसंग सा लगे
डूबता हुआ
शुक्रतारा।
इस
गांव से नदी को रूठे हुए एक सदी
हो गई, फिर भी वो आज भी
है शामिल, दंतकथाओं
में कहीं, बरगद
और घाट
छूट
जाते हैं दूर समय के साथ, फिर भी
नदी बहती है हमारे बहुत
अंदर तक हर्ष और
व्यथाओं में कहीं,
काश उसे
स्पर्श
करें, तो उड़ेल दें हम सजल जीवन
सारा,  बहुत निःसंग सा लगे
डूबता हुआ शुक्रतारा।  
* *
- - शांतनु सान्याल
Art - Gangnendranath Tagore

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