कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही
कनखियों से देखने की अदा, वही
इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने
की गर्मियां, बस दिलों में
वो मिठास न रही,
बिछुड़ कर
दोबारा
मिलने की आस न रही, खिड़कियों के -
उस पार, बहुत दूर हैं नील पर्वतों के
कगार, वादियों में फिर एक
शाम, हमेशा की तरह
सूरज डूबा है
अभी -
अभी, ढूंढता हूँ मैं अक्सर ज़िन्दगी के
अलबम में, अपना खोया हुआ
अस्तित्व, किंतु अफ़सोस
वो आतशी कांच अब
मेरे पास न रही,
वही इशारों
की ज़बां,
हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो
मिठास न रही। इक चाहत है या कोई
तह टूटे बिना लिबास, संदूक के
सिवा कोई नहीं दूसरा
विकल्प उसके
पास, एक
गंध था
या
कोई अनोखा सा अहसास, वक़्त के सभी
नेफ्थलीन, हो चुके विलीन, वो आज
भी है, रूह से गुथा हुआ मेरी
सांसों के आसपास,
इक बूंद क्या
मिली
उस
निगाह ए करम की, ज़िन्दगी में अब कोई
भी प्यास न रही।
* *
- - शांतनु सान्याल
15 नवंबर, 2021
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बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार
(16-11-21) को " बिरसा मुंडा" (चर्चा - 4250) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा
ह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंवाह!बहतरीन रचना।
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
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