ज़िन्दगी के अहाते में आज भी उभरती
हैं किसी के मौन शब्दों की छाया,
अप्रेषित पत्रों के तहों में
कहीं आज भी है
मौजूद इक
पुरातन
सी
गंध, कितने बार खिले गुलमोहर और
कितनी बार ही बिखरीं मुरझाई
हुई पंखुड़ियां, जुगनू की
तरह आज भी हैं
बेकल कुछ
जज़्बात
मेरी
हथेलियों में बंद, जितना भी खोलूं वो
उलझी हुईं रेशमी एहसास, उतना
ही दिल ने मुझे हर पल है
भरमाया, ज़िन्दगी
के अहाते में
आज भी
उभरती
हैं
किसी के मौन शब्दों की छाया। वक़्त
के साथ टूट जाते हैं सभी बंध, एक
निःशब्द दूरत्व बढ़ा जाती है
नदी की गहराई, तट
भी बदल जाते हैं
रुख़ अपना,
अतीत
का
स्लेट रह जाता है अपनी जगह ले कर
सीने पर धुंधले हर्फ़, यादें भी हो
जाती हैं एक दिन ढलते
दिन की क्षणिक
पलों की दीर्घ
परछाई,
फिर
भी
न जाने क्यों साथ कोई चलता है दूर
तक, जैसे ख़ामोश अदृश्य कोई
हमसाया, ज़िन्दगी के
अहाते में आज
भी उभरती
हैं किसी
के
मौन शब्दों की छाया - -
* *
- - शांतनु सान्याल
12 नवंबर, 2021
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