18 जुलाई, 2017

बज़्म -ए -ज़िन्दगी - -

 ख़्वाहिशों का यूँ भी कोई किनारा नहीं होता,

इक बेमौज नदी है, कोई बेसदा बहती हुई -
डूबनेवाले का यहाँ कोई भी सहारा नहीं होता।

जब आग लगी हो सारे शहर में बेलगाम - -
तब अपने - ग़ैर में कोई बँटवारा नहीं होता।

बहुत मुश्किल से बनते हैं, घरौंदे मेरे दोस्त -
अपनी मर्ज़ी से कोई यूँ ही बंजारा नहीं होता।

सिर्फ़ समझ का है उलटफेर, ऐ ईमानवालों !
हरगिज ख़ुदा, हमारा या तुम्हारा नहीं होता।

बज़्म -ए -ज़िन्दगी की है अपनी ही चाँद रात,
हर टूटनेवाला क़तरा नामी सितारा नहीं होता।

* *
- शांतनु सान्याल 

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past