31 दिसंबर, 2022

नए साल का इंतज़ार - -

वक़्त की नोंक घूमती रहती है घिसे रिकार्ड पे
बारम्बार, फिर भी नए साल का हमें
रहता है बेक़रारी से इंतज़ार, इक
बहाना, जो उम्र को दे जाता
है कुछ मज़ीद लम्हात,
शून्य हथेलियों पर
उग आती हैं
कुछ सुख
की
लकीरें, जब कभी तुम रखते हो खुले हाथों पर
अपना हाथ, पल्लव विहीन टहनियों को
कदाचित होता है बसंत का अहंकार,
फिर भी नए साल का हमें
रहता है बेक़रारी से
इंतज़ार। रंग
मशालों
का
कारवां आधी रात को पहुँचता है जुनूनी मोड़
पर, बढ़ा जाता है कुछ और ज़िन्दगी की
ख़्वाहिश को, आइने से मुख़ातिब
हो कर, फिर दोबारा होते हैं तैयार
अपनी ही नुमाइश को,
अन्तःस्थल की
ज़मीं रहती
है तन्हा,
लोगों
को रहता है सिर्फ बाहर के सौंदर्य से सरोकार,
फिर भी नए साल का हमें रहता है
बेक़रारी से इंतज़ार।
* *
- - शांतनु सान्याल



30 दिसंबर, 2022

टूटे कांच के रहगुज़र - -

टूटे हुए आइने से, हूबहू तस्वीर बनाएं कैसे,
रस्मे दुनिया के तहत, ख़ुद को दिखाएं कैसे,

बेहिसाब नुक़्तों से मिल कर बनती है लकीर,
इक बूंद आंसू का दर्द, सरे बज़्म बताएं कैसे,

अंदर का ज़मीर अभी तक है ज़िंदा ऐ दोस्त,
हुनर ए फ़रेब से आख़िर घर को सजाएं कैसे,

वक़्त फेंकता है छुरियां, बंधे जिस्म के ऊपर,
सिफ़र तक़रीरों से, पेट की आग बुझाएं कैसे,

हम क्या हैं क्या नहीं, चश्मा उतार कर देखें,
जीस्त ए सहरा को, सब्ज़ बाग़ दिखाएं कैसे,

गुज़रे हैं कई बार, बिखरे कांच के रहगुज़र से,
इन रास्तों को यूँ छोड़ कर आख़िर जाएं कैसे,
* *
- - शांतनु सान्याल

 
 
    


 
 
 

29 दिसंबर, 2022

पुनरावर्तन - -

ताउम्र कुछ भी चाहा नहीं तुम्हें चाहने के बाद,
शून्य में जा कर खो जाते हैं जो लोग
उसी कारवां का हूँ मैं मुसाफ़िर,
मर के बारम्बार लौट
आता हूँ मैं सिर्फ़
तुम्हारी ही
ख़ातिर,
ताउम्र कुछ और देखा नहीं तुम्हें देखने के बाद,
ताउम्र कुछ भी चाहा नहीं तुम्हें चाहने के
बाद । दर्पण के इस शहर में खोजता
हूँ मैं सिर्फ़ प्रतिबिम्ब तुम्हारा,
कहने को हर मोड़ पर
झिलमिलाता है
रंगीन सितारा,
देह पर
कोई
भी पोशाक नहीं सजता गेरुआ वसन पहनने
के बाद, ताउम्र कुछ भी चाहा नहीं तुम्हें
चाहने के बाद । इक हाथ बजता
रहा एकतारा, दूसरे हाथ पर
था विष का प्याला,
अनंत पथ के
हैं हम
यात्री, पल भर का विराम कहाँ, तुम्हारे तक
आ रुक जाते हैं सभी जीवन के रास्ते,
किसे ख़बर सुबह कहाँ और शाम
कहाँ, कोई गंत्वय नहीं
भाता तुम से
मिलने
के
बाद, ताउम्र कुछ भी चाहा नहीं तुम्हें चाहने
के बाद।
* *
- - शांतनु सान्याल















28 दिसंबर, 2022

मृत्यु विहीन पुनर्जन्म - -

देह तंतुओं से हो कर उतरता है बूंद बूंद, अंतरतम
की गहराइयों तक वो अमरत्व की अनुभूति,
अपरिभाषित कोई अनुराग या मृत्यु
विहीन पुनर्जन्म, शरीर जल कर
बन जाता है सुरभित धुआं,
फ़र्श पर बिखरे पड़ी
रहती हैं केवल
श्वेत विभूति,
अंतरतम
की
गहराइयों तक वो अमरत्व की अनुभूति । अनंत
प्रणय आजन्म होते हैं निर्बंध, दैहिक अनुबंध
से मुक्त, निःशर्त भरते हैं महाशून्य की
उड़ान, पारदर्शी पंखों में लिखा
होता है जन्म जन्मांतरों
का अभियान, उन्हें
रोक नहीं पाते
हिम शिखर,
विक्षिप्त
मेघ
दल, कुहासामय रेगिस्तान, शाश्वत गर्भगृह से
जुड़ी रहती है उनकी गहन आसक्ति,
अंतरतम की गहराइयों तक वो
अमरत्व की
अनुभूति ।
- - शांतनु सान्याल 

हलकी सी लकीर - -

हलकी से लकीर होती है, ज़िन्दगी और मौत के दरमियां,
उस पार है अँधेरा, इस पार पल भर की जोश ओ गर्मियां,
 
आतिश परस्त है ये जहान, नज़दीक के नदी से अनजान,
तस्वीर खींचते रहे लोग जलती रहीं फूलों से लदी वादियां,
 
उसकी मुहोब्बत ने मुझ को कहाँ से कहाँ तक पहुंचा दिया,
जिस्म ओ जां तो वही है, लेकिन लापता हो गईं परछाइयां,
 
एक आदमी जो उम्र भर, लोगों को हँसाता रहा हर क़दम पे,
छलकती आँखों को देख कर दर्शकों की बजती रही तालियां,
 
न कभी समंदर ही देखा, न ही पहाड़ों के इसरार को है जाना,
जिस्म था कि ढल गया उसी सांचे में, क्या गर्मी क्या सर्दियाँ,
 
उन उंगलियों की छुअन से यूँ ज़िन्दगी के सफ़ात  बदलते गए,
सभी चाहतें बुझते रहे अपने आप ही, मिटती रहीं परेशानियां,
* *
- - शांतनु सान्याल

26 दिसंबर, 2022

आकाश कुसुम - -

किसी दस्तक के इंतज़ार में रातभर, करवट बदलती रही ज़िन्दगी, कोहरे के चादर

खींच कर सो गईं  सभी गहरी
घाटियां, सो गए जंगल -
पहाड़ नदी, ऊंघती
सी हैं सितारों की
महफ़िल, धुंध
में खो सी
गई
चाँदनी, सुबह की तलाश में दूर तक यूं ही - - भटकती रही ज़िन्दगी, किसी दस्तक
के इंतज़ार में रातभर, करवट
बदलती रही ज़िन्दगी ।
शीशे के उस पार
हैं बूंद बूंद
वाष्प
कण,
पिघलने की ख़्वाहिश लिए सो रही है इक बर्फ़
की नदी, सीने में उठ रहे हैं जिसके असंख्य
हिमस्खलन, अंतरतम में है छुपा हुआ
कोई सदियों से सुप्त आग्नेयगिरि,
जाने कौन है जो सुबह से
पहले समेट लेता है
मुझे अपने
अंदर,
रात भर आकाश कुसुम की तरह जलती बुझती
रही ज़िन्दगी, सुबह की तलाश में दूर तक
यूं ही भटकती रही ज़िन्दगी ।
* *
- - शांतनु सान्याल







25 दिसंबर, 2022

शीशे का शहर - -


 कोई नहीं होता यहां जनम से राजन या फ़क़ीर,

मिटाए भला कहां मिटती है, नियति की लकीर,
ढूंढता हूँ मैं तन्हाइयों में टूटे हुए सितारों का पता,
चल रहा हूँ, राह ए मक़तल पर पांव बंधे जंज़ीर,
नाज़ुक शीशे का शहर है, संगसारों की ज़मीं पर,
बाहर है रौशनी का राज बोझिल अंदर का शरीर,
यक़ीन ए इंतहा ही थी, या हद से बढ़ कर जुनून,
पढ़े बग़ैर कर दी दस्तख़त, ख़ुदा जाने वो तहरीर,
खोल भी दी जाए आँखों से, सभी काली पट्टियां,
बेनक़ाब से हो चले हैं रिश्तों के नज़ारे यूँ बेनज़ीर,
* *
- - शांतनु सान्याल

रिश्तों का दामन - -

अंधा फ़क़ीर कोई, अपना दर्द गुनगुनाता रहा,
स्पर्श के आईने को, जीवन नज़्म सुनाता रहा,
एक सम्मोह जो खींचता है, रिश्तों का दामन,
इस पार है देह, उस पार से प्राण बुलाता रहा,
सलीब है कांधे पर फिर भी यात्रा नहीं रुकती,
वध स्थल का स्तंभ, यथारीति मुस्कुराता रहा,
जी उठेंगे एक दिन सभी मृत इच्छाओं के प्रेत,
इसी विश्वास में जीवन अपने पास बुलाता रहा,
चीज़े अनायास मिल जाए तो बेमज़ा है जिंदगी,
धूसर पहाड़, नील पोशाक पहन ललचाता रहा ।
- - शांतनु सान्याल    

24 दिसंबर, 2022

आदि अंत विहीन - -

दिवसांत में सोचता हूँ, आज का दिन तो
अच्छी तरह से गुज़र गया, ये और
बात है कि उम्र के पिरामिड से
एक अंक नीचे खिसक
गया, बालकनी
की धूप भी
पलक
झपकते हो गई लापता, अन्य धर्म जब -
बन जाए हिंस्र, तो कैसे निरामिष
होगी हमारी आस्था, पार्थ हर
हाल में उठाएगा गाण्डीव,
सामने खड़ी रहती है
मौन उत्तरजीविता,
मालूम नहीं
कौन था
जो
माथे पर संधि पत्र लिख गया, दिवसांत
में सोचता हूँ, आज का दिन तो
अच्छी तरह से गुज़र गया।
ग़र जीवित हैं हम, तो
अन्याय का हर हाल
में करें पुरज़ोर
प्रतिवाद,
वरना
घेर
लेगा हमें जीते जी अपकर्ष का अवसाद,
ये भी सच है कि हिंसा - प्रतिशोध
से कोई हल नहीं निकलता,
फिर भी देश हित हो
या धर्म युद्ध हमें
शस्त्र उठाना
ही होगा,
सीमा
पार हो या देश के अंदर, शत्रु पक्ष को - -
हराना होगा, आदि अंत विहीन
सत्य धर्म ध्वज फहराना
होगा - -
* *
- - शांतनु सान्याल

23 दिसंबर, 2022

रास्ता दरमियानी - -

रंगीन पैबंदों से जड़े लबादे, वो पागल
सहजिया पंथ के अनुयायी, गाते
थे अपने ही सुरों में जीवन
की रागिनी, गुज़रते थे
एक ही पथ से हो
कर जहाँ
कभी
मिलती थी दो नदियां, गूंजते थे दोनों
तटों पर अदृश्य मन्त्र रूहानी, न
जाने कैसे, क्यूँ कर टूट गए
सभी मेल बंधन, संगम
के सीने पर उभर
आए नुकीले
कांटे
तार के सरहद, तोड़ दिए गए एक ही
झटके में शताब्दियों की कहानी,
एकतारा अब भी बजता है
दोनों किनारे, लेकिन
मिलते कभी नहीं
टूटे हुए सितारे,
नदियों का
अब
हो चुका नवीन नामकरण, गेरुआ व
सब्ज़ ! रेल पटरियों के समानांतर
ज़िन्दगी गुज़रती जा रही है,
जो परस्पर साथ चल
कर भी कभी एक
दूजे से नहीं
मिलतीं,
इक
ख़ौफ़ के सिवाय कुछ भी नहीं हमारे
बीच, कहने को एक सी है हम
सभी की ज़िंदगानी - -
* *
- - शांतनु सान्याल

22 दिसंबर, 2022

अनावृत प्रतिबिम्ब - -

सारा अंतरिक्ष अपनी जगह रहता है यथावत्,
बस दिन के उजाले में हम उन्हें देख नहीं
पाते, सभी समारोह का अंत होता
है दिगंत में जा कर, मेलों
का क्या लगते उठते
रहते हैं साल भर,
अंतरतम के
खेल का
होता
नहीं पटाक्षेप, केवल दिन, रात का होता है -
शरणागत, सारा अंतरिक्ष अपनी जगह
रहता है यथावत् । मुरझाए से रहते
हैं स्मृति फूलदान के रजनी -
गंधा, समय चूस लेता
सभी गंध कोष,
बेरंग से होते
जाते हैं
क्रमशः प्रणय पंखुड़ी, बढ़ने लगती है दूरत्व -
की परछाई, वक़्त के साथ बदल जाती
है हमारी सोच, ढलान की ओर बढ़
जाते हैं सभी जल स्रोत, उत्स
बिंदु रह जाता है एकाकी,
दर्पण के सामने हर
कोई होता है
पूर्ण रूप
से
अनावृत, सारा अंतरिक्ष अपनी जगह रहता
है यथावत् - -
* *
- - शांतनु सान्याल 

21 दिसंबर, 2022

परिवर्तन - -

बहुत कुछ बदला है इस शहर में, हरे कपड़ों
से ढके हुए झुग्गियों के घर, ज़ेब्रा क्रॉसिंग
के दोनों किनारे झूल रहे हैं लोभनीय
विज्ञापन के आदमक़द बैनर,
चमचमाते हुए मेट्रो ट्रेन,
आधुनिक मॉल की
झिलमिलाती
सीढ़ियां,
सब्ज़
कपड़ों के नेपथ्य में ज़िन्दगी आज भी है वही,
सदियों से जिस जगह थी, बस तारीख़
बदल रहे हैं कैलेण्डर में, बहुत कुछ
बदला है इस शहर में । विकास,
विप्लव - विद्रोह, काया -
कल्प, रुपातन्तरण
सब कुछ छुपा
रहता है
सिर्फ़
काग़ज़ कलम में, वही रास्ता वही संघर्षरत -
चेहरे, वही टूटी हुई चप्पल जिसे हम
सिलवाते हैं बारम्बार, हर तरफ
हैं झूलते हुए रंगीन फीतों
से सजे हुए उपहार
के डिब्बे, जिसे
खुलते हुए
किसी
ने कभी नहीं देखा, फिर भी हर बार मंत्रमुग्ध
हो कर, अपनी उंगलियों में काला चिन्ह
लगवा कर लौट आते हैं उसी जगह
जो ढका हुआ है सब्ज़ कपड़ों
से, ताकि विदेशी मेहमान
ग़लती से न पहुंच
जाएं इस सत्य
के खंडहर
में, बहुत कुछ बदला है इस शहर में - -
* *
- - शांतनु सान्याल
 


20 दिसंबर, 2022

बेग़र्ज़ यहाँ कोई नहीं - -

ख़ार ओ संग का है रास्ता, इसे कहकशां न समझें,
हर शू है घना अंधेरा इसे रौशनी का जहां न समझें,

ख़्वाब में सजा लेना अपना मेहराब चाँद सितारों से,
ज़िन्दगी का सफ़र है, इसे  शाह ए कारवां न समझें,

ये दौर है  तस्वीर निगारी का, सिर्फ़  मुस्कुराते रहिए,
क़ातिल है या दोस्त, हर किसी को पासबां न समझें,

किस अदा से यूँ नाख़ून छुपाए हाथ मिला गया कोई,
पुरअमन चेहरे को बुझा हुआ आतिशफिशां न समझे,

ज़ेरे फ़सील पे हैं पोशीदा वहशत फिर भी जीना होगा,
बेग़र्ज़ यहाँ कोई नहीं, हर शख़्स को मेहरबां न समझे,
* *
- - शांतनु सान्याल  


 
 

19 दिसंबर, 2022

उस पार का रहगुज़र - -

जुनून ए मंज़िल थी उसे  मील के पत्थर याद नहीं,
इक क़तरा ही काफी था, अज़ीम समंदर याद नहीं,

आबरंगी थे सभी  ख़्वाब के झिलमिलाते से पैरहन,
बस ओंठों पर है सुकूं अमृत था या ज़हर याद नहीं,

हौले से किसी ने फेरा है सर पर दुआओं वाला हाथ,
पलकों पे थे शबनमी बूंदे, रात का सफ़र  याद नहीं,

इक  छुअन, जो  ज़िन्दगी को उबार ले अभिशाप से,
बस जी उठे  हैं दोबारा, दवाओं का असर याद नहीं,

अनगिनत सीढ़ियों से हो कर पहुंचे है उसके दर पे,
इत्मीनान सा है दिल में बाक़ी गुज़रबसर याद नहीं,

उस दहलीज़ में जा कर  तिश्नगी को निजात मिली,
अक्स रहे ख़ालिस शीशे पार का रहगुज़र याद नहीं,
* *
- - शांतनु सान्याल

 
 

18 दिसंबर, 2022

अंजामे मसीहाई - -

हर कोई है गुम अपने भीतर ख़ामोश  तमाशाई,
उम्र की  ढलान को जाने कब लांघ गई परछाई,

दरख़्त था या इस शहर का वो क़दीम बासिन्दा,
किसे नही पता कि यहां आग किसने थी लगाई,

अजीब है ये दुनिया, झूठ पर बजती हैं तालियां,
ख़ुदकुशी किया करती है रोज़ आईने की तन्हाई,

बाम ओ दर पे बेकार खोजता हूँ सच का दीपक,
अपने से  ही फ़ुरसत नहीं, कौन सोचे पीड़ पराई,

इक पागल है जो मुर्रवत का परचम लिए बैठा है
जिसे देख लोग हँसते हैं यही है अंजामे मसीहाई,

इक सड़क जो दूर तक जाती है जलती हुई तन्हा,
ज़मीं से क्या गरज, जब उड़ने की क़सम है खाई,
* *
- - शांतनु सान्याल

नया आभास - -

नेह रेखाएं कुछ अर्थ छुपाएँ - -
कह गए निष्पलक मन की बातें,
थमी थमी सी घटायें पर्वत पर्वत
बिंदु बिंदु फिर बरसना चाहें,
इस सघन रात में
विगत रहस्य न खोलें,
अधर रहें मौन, नयन बने सेतु
उन्मुक्त करें अतीत पिंजर
बोझिल साँसें हैं व्याकुल उड़
जाने को,
मनुहार ह्रदय का मानो
कुछ मुस्कान बिखरे, निशि पुष्प
हैं आतुर खिल जाने को,
दूर बिहान प्रतीक्षारत है लिए
कोमल धूप तन मन में,
इस क्षण में तुम यूँ निःस्तब्ध  
रहो न,
नव प्रणय स्वीकार करो
जीवन प्रवाह अविरल गतिमय,
इस सरल पथ को वक्र रेखाओं
से मुक्त करो,
जो कल था वो आज नहीं
आज न कल होने दो,
इस पल में फिर स्वप्न मधुर
बो लेने दो,
इतना भी न सोचो की चाँद ही
ढल जाये प्राची में,
क्षणिक ही सही चंद्रिमा के कुछ
कण चुन लें, महकती सांसों को
घुल जाने दो,
अभिनव आभास जीवन में - -
आने दो - -
- - शांतनु सान्याल

17 दिसंबर, 2022

 क़र्ज़ - -

लहरों के बहते ख़्वाब थे रेत पर आ कर बिखर गए,
किसी की याद में, बारहा डूबे, बारहा हम उभर गए,

साहिल के किनारे बसा हुआ था  कोई कांच का घर,
हर सिम्त थे हज़ारों  अक्स ए महबूब, हम जिधर गए,

इब्तदा ए ख़िज़ाँ से, आख़िर मायूसी भला क्यूँ  करें,
कितने ही सूखे दरख़्त, सब्ज़ दुआओं से निखर गए,

हर इक को गुज़रना होता है उतार चढ़ाव के ग्राफ से,
मंज़िल नहीं आएगी  कभी ग़र अपने ही में ठहर गए,

मुख़्तसर सा है सफ़र ए ज़िंदगानी, हर पल है नफ़ीस,
किसे ख़बर बिन क़र्ज़ उतारे ही हम जहां से गुज़र गए,
 * *
- - शांतनु सान्याल
 
   
 

ग़ज़ल - -

उस निगाह के बाद, कोई  निगाह नहीं होती
उसे देखने के बाद कोई और चाह नहीं होती,
जब इक आग सी लगी हो सीने में आठ पहर
उसके दामन के  सिवा कोई पनाह नहीं होती,
वो जो मुस्कुराते हैं, लब ऐ- राज़ छुपाये हुए
रुसवा हो ज़माना हमें कोई परवाह नहीं होती,
बहोत क़रीब से गुज़रा है वो हवाओं की तरह
दिल में सरसराहट यूँ ही, बेइन्तहा  नहीं होती,
मुद्दतों से इक दर्द को बैठे हैं, हम सहलाये हुए
लोग नश्तर भी चुभोएं, तो  कराह  नहीं होती,
राह ए  संग पे बिखरे हैं, ढेरों कांच की लकीरें
काँटों में खिलने वालों को दर्दे आह नहीं होती,
शाम ढलते ही कोई उजड़े मंदिर में दीप जलाए,
पल भर सही, ताउम्र जलने की चाह नहीं होती,
आये या फिर जाए, बादलों के
 उड़ते जहान में
राह ए उल्फ़त की कोई तै शुदा राह नहीं होती ।
-- शांतनु सान्याल

16 दिसंबर, 2022

 शुभकामनाएं - -

स्वप्न विक्रेता, उस किशोर फेरीवाला के
आँखों में पढ़ना चाहता हूँ मैं, भविष्य
की सम्भावनाएं, शब्दों के पद
चिन्ह, लेकिन ले जाते हैं
मुझे बहुत दूर, जहाँ
ऊसर भूमि के
सीने पर
उगी
हुई हैं नागफनी की शुभकामनाएं । आठ
रस्ता चौक में जब होता है ट्रैफ़िक
जाम, रंगीन चश्में के उस
पार देखता हूँ मैं, एक
धूसर शैशव, जो
बेच रहा है
 नक़ली
फूलों
के गुच्छे, उसके बेतरतीब बालों के जटों
में, विलुप्त से हैं जीवन के सभी
परिभाषाएं, ऊसर भूमि के
सीने पर उगी हुई हैं
नागफनी की
शुभ -
कामनाएं । फुटपाथ पर चल रहा हूँ मैं, -
मध्य सड़क के ऊपर गुज़र रही
है प्रायः ख़ाली मेट्रो रेल,
उसके बहुत ऊपर
से गुज़र रहा है
कोई विदेश -
गामी
विशाल विमान, इन तीन स्तरों में बहुत -
कुछ है, फिर भी कुछ लोग, अभी
तक तलाश रहे हैं अपना
एक अदद निवास -
स्थान, अपने
ही देश में
वो हो
चुके हैं अनजान, सोचता हूँ मैं उन वंचित
चेहरों को क्या कभी मिल सकेगा, इक
निरापद भविष्य का वरदान, लौट
आता हूँ मैं अपने अंदर, ले
कर सजल भावनाएं,  
ऊसर भूमि के
सीने पर
उगी
हुई हैं नागफनी की शुभकामनाएं - - - -

* *
- - शांतनु सान्याल

15 दिसंबर, 2022

 रेखांकित ख़बर - -

चेहरों के साथ मुखौटों का भी होता है निरंतर
बदलाव, रात के सीने पर बढ़ता जाता है
रहस्य का गहरा जमाव, हमारी
तलाश सिर्फ़ नारी पुरुष तक
आ कर जाती है सिमट,
नेपथ्य में कहीं खो
सा जाता है
इंसान,
अनुपचारित रह जाता है अंतरतम का घाव, -
रात के सीने पर बढ़ता जाता है रहस्य
का गहरा जमाव । बेसुध सा पड़ा
रहता है महानगर, सुनसान
सा राज पथ लगे घातक
जैसे कोई अजगर,
हर कोई यहाँ
रहता है
इक
दूजे से जानबूझ कर बेख़बर, बहुत कुछ रहता
है अमुद्रित, कोई नहीं पढ़ता रेखांकित
ख़बरों के बाहर, झिलमिलाहट
तक सिमित रहते हैं सभी
नज़रें, अपने आप
आख़िर बुझ
जाते हैं,
सीने
के धधकते हुए अलाव, रात के सीने पर बढ़ता
जाता है रहस्य का गहरा जमाव ।
* *
- - शांतनु सान्याल


 

14 दिसंबर, 2022

अनुगच्छतु प्रवाहं - -

महाशून्य में बहे जा रहे हैं ग्रह नक्षत्र, सुबह
शाम, सुख दुःख, प्रेम घृणा, धूप छांव  
जल थल, जन्म मृत्यु, समस्त
ब्रह्माण्ड, हर चीज़ है यहाँ
चलायमान, इस महत
स्रोत के दोनों तट
पर चलते हैं
नियति
चक्र,
कभी शंख ध्वनि, कभी मौन क्रंदन, जीवन
करता है हर हाल में सहर्ष अभिनन्दन,
महोत्सव के नेपथ्य में छुपा रहता
है उत्थान पतन, जो कुछ इस
पल में हो हासिल, समझें
उसे अदृश्य मुख का
अप्रत्याशित
अनुदान,
हर
चीज़ है यहाँ चलायमान । सरकते जाते हैं -
शेष प्रहर में हर वस्तु, पीछे जैसे कोई
उन्हें खींच रहा हो तेज़ी से, हम
होते हैं तब अनजान सफ़र
के यात्री, वृक्ष, पल्लव,
फूलों से लदी
नाज़ुक
टहनियां, पक्षियों के झुण्ड, विशाल नदी का
पुल, डूबता हुआ सूरज, स्मृति खंडहर
सब कुछ पीछे छूट कर हो जाते हैं
सुदूर विलीन, किसी सम्मोह
की तरह हम बढ़ते जाते
हैं आगे महा प्रवाह
के संग, सिर्फ़
कानों में
रह रह
कर
गूंजती है लौह घंटियों की आवाज़, उतरने के
पहले दीर्घ रात्रि का होता है अवसान,
हर चीज़ है यहाँ चलायमान ।
* *
- - शांतनु सान्याल

13 दिसंबर, 2022

निगाहों का तिलिस्म - -

कोई नक़ाबपोश चेहरा, निगाहों से सलाम दे गया,
ख़ुश्बुओं की तरह, बिखरने का इक पयाम दे गया,

मुहाजिर परिंदों के मानिंद उड़ते थे सरहदों के पार,
मबहम दायरों में कोई, मुस्तक़िल मक़ाम दे गया,

ख़ानाबदोशों की तरह थी, इस ज़िन्दगी की रवानी,
तोहफ़े में ग़ार ए नशीनी, कोई सुबह  शाम दे गया,

यूँ तो आइना है, अपनी जगह बरसों से मुस्तक़ीम,
अक्स को तलाशने का, इक नया सा काम दे गया,

तन्हाइयों में अक्सर, अपने से बात किया करते हैं,
दीवानगी हद से बढ़े, इस की दुआएं तमाम दे गया,
* *
- - शांतनु सान्याल 

 कहीं दूर - -

ईंट कंक्रीट के जंगल से कहीं दूर है, इक
कुहासे में लिपटा हुआ, ऊंघता सा
गांव, ऊंचे दरख़्तों में, शाम
ढले लगता है, परिंदों
का सांध्यकालीन
पाठशाला,
इक
नदी जो गुज़रती है उस के क़रीब से हो -
कर, जिस के सीने पर टिमटिमाते
हैं जुगनुओं की तरह सांझ -
बाती, सुदूर इक रेत के
टीले से बंट जाती
है नदी दो
पृथक
हिस्सों में, कदाचित वो दोनों कही दूर -
जा मिलते हों आपस में दोबारा,
परिश्रांत देह को जैसे मिल
जाए कोई रात्रि पड़ाव,
ईंट कंक्रीट के
जंगल से
कहीं
दूर है, इक कुहासे में लिपटा हुआ, ऊंघता
सा गांव । ज़िन्दगी चाहती है कुछ
दिनों का निःशर्त अवकाश,
वो लौटना चाहती है उस
धूसर ज़मीं पर जहाँ
फैला रहता है
धरती माँ
का
आंचल बारह मास, धान की बालियों में
ओस कण लिख जाते हैं सजल
कविता, आम्र मुकुल से
झरते हैं सुरभित
निःश्वास,
जैसे
मिल जाए मुद्दतों बाद ममतामयी किसी
अनाम वृक्ष की छांव, ईंट कंक्रीट
के जंगल से कहीं दूर है, इक
कुहासे में लिपटा हुआ,
ऊंघता सा
गांव ।
* *
- - शांतनु सान्याल



12 दिसंबर, 2022

 पुनर्वास - -

जीवन नामक किताब का कोई भी पृष्ठ
नहीं होता अंतिम, बस शब्दों के
उतार चढ़ाव जाते हैं बदल,
जैसे कोस कोस पर
पानी, अर्क पात
पर लिखी
होती
है इक बूंद ओस की कहानी, परित्यक्त
यहाँ कुछ भी नहीं रहता, दूरत्व के
बढ़ते ही रिक्त स्थानों को
लोग कर जाते हैं दख़ल,
कोई भी पृष्ठ नहीं
होता अंतिम,
बस शब्दों
के उतार
चढ़ाव
जाते हैं बदल । बहुविध रूप में उभरते हैं
जीवन मंच पर जाने अनजाने पात्र,
बहुधा, दर्शक-वीथी के कोलाहल
से हम निकलना चाहते
हैं सुदूर किसी
शून्य में,
जहाँ
केवल हम ही हों एक मात्र, चाहते हैं - -
जीना शांति के साथ, लेकिन हर
बार हम लौट आते हैं ख़ाली
हाथ, इक अनदेखा सा
बंधन हमें खींचता
है दर असल,
कोई भी
पृष्ठ
नहीं होता अंतिम, बस शब्दों के उतार - -
चढ़ाव जाते हैं
बदल ।
* *
- - शांतनु सान्याल



 अहाते की धूप - -

बरामदे की नरम धूप जो हम आहंग है
तुम्हारी तरह, उठ के आएं भला
कैसे उस तस्सवुर ए सुकूं से,
इक अजीब सी क़ैफ़ियत
होती है जब कभी
लौटते है हम
बंद कमरे
के अंदर
कि
हम छोड़ आए हैं कोई अनमोल लम्हा  
दर अतराफ़ तुम्हारे, हमें फ़ुर्सत
ही नहीं मिलती कम्बख़्त
इश्क़ ए जुनूं से, उठ
के आएं भला कैसे
उस तस्सवुर
ए सुकूं
से ।
यूँ तो ज़िन्दगी की त्रिकोणमिति होती
है अपने आप में उलझी हुई, फिर भी
हम ढूंढते हैं जटिल समीकरणों
का हल एक दूसरे के अंदर,
इक अदृश्य रसायन
जो जोड़े रखता
है हमारा
वजूद,
निःस्तब्ध रात के सुदूर गहन अरण्य में
टिमटिमाते हैं कुछ आस भरे जुगनू
से, हमें फ़ुर्सत ही नहीं मिलती
कम्बख़्त, इश्क़ -
ए जुनूं
से ।
* *
- - शांतनु सान्याल

11 दिसंबर, 2022

रेशमी वृत्त - -

फ़र्श पे गिरा है कोई रेशमी रिश्तों का लच्छा,
जितना खींचे नज़दीक अपने, उतना ही
वो उलझता जाए, सर्द रात है सितारों
की लौ भी है कुछ धुंधलायी
सी, चाँद भी है कुछ नील
मद्धम, बुझ चुके हैं
जलते अलाव,
न कुरेदो
दिल
की बस्ती को यूँ बेरहमी से, कि अपने अंदर -
कहीं वो बेपनाह सुलगता जाए । जितना
खींचे नज़दीक अपने, उतना ही वो
उलझता जाए। कुछ शबनमी
ख़्वाब, बोझिल पलकों पे
बूंद बूंद कोई रख
जाए, झर
चुके हैं
सभी गुल ए शबाना, मिल जाए ज़ख़्मी हिरण  
को, इक रात का महफूज़ ठिकाना, लब
ए साहिल पे उठ रहें हैं कोहरे के घने
बादल, सुबह से पहले, दिल की
बात कहीं, मेरे दिल ही में
न रह जाए, बिन जले
ही वजूद ए शमा
तमाम रात
क़तरा -
क़तरा, यूँ ही न पिघलता जाए, फ़र्श पे गिरा
है कोई रेशमी रिश्तों का लच्छा,
जितना खींचे नज़दीक
अपने, उतना ही
वो उलझता
जाए - -
* *
- - शांतनु सान्याल

 वायुहीन गुब्बारे - -

उड़ चले हैं कुछ सप्तरंगी गुब्बारे, ऊपर
है खुला आसमान, नीचे बल खाता
हुआ गहरा समंदर, साहिल से
तकते हुए कुछ मुश्ताक़
निगाहें, किस का है
कितना परवाज़,
या तो हवा,
या फिर
ख़ुदा
जाने, सांसों की डोर लिए हाथों में कौन
जा रहा है दूर किनारे किनारे, उड़ चले
हैं कुछ सप्तरंगी गुब्बारे । बूढ़े
बरगद के नीचे है पुरातन
घाट, कुछ नाव खड़े
हैं लंगर डालें, झर
रहे हैं पीले
पत्ते,
कुछ दूर नदी तट पर जल रहा है किसी
का राजपाट, प्राचीन देवालय के
अहाते से सटा हुआ है रेल का
पुल, कुछ देर में गुज़रेगी
दनदनाती हुई सुदूर -
गामी रेल, फिर
निःस्तब्ध
रात्रि
खेलेगी अपना मायावी खेल, नीरव हैं -
टहनियों के कलरव, देवता है बंद
कपाट के अंदर, कुछ देर में
ही जाग उठेगा शीत -
निद्रित हिंस्र
बवंडर,
शेष प्रहर में बिखरे पड़े मिलेंगे वायुहीन
रंगीन गुब्बारे, ख़ामोश है अपनी
जगह आलोक स्तंभ, सड़क
पर बिखरे पड़े हैं पंख -
विहीन ख़्वाब
ढेर सारे ।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

10 दिसंबर, 2022

 कोई अदृश्य साया - -

सघन अंधकार से उभर चला है तिर्यक
प्रतिबिंब, बे जिस्म सा कोई साया
उतरा है बदन से अभी अभी,
वो मुझ में रह कर करता
रहा मुझे ही खोखला,
उसके इश्क़ का
जुनूं उतरा
है ज़ेहन
से अभी अभी, बे जिस्म सा कोई साया
उतरा है बदन से अभी अभी । शून्य
दृष्टि पथ हो चला है कांच सा,
पूरी तरह स्पष्ट, कितनी
गहराई और है बाक़ी,
कि देख पाएं
हम डूबते
सूरज
को
बेहद क़रीब से, सौगातों की कोई कमी
न थी, बस अपना दामन रहा ख़ाली
अपने नसीब से, लहरों में तैरते
हैं अनगिनत रौशनी के
जल विभाजिकाएं,
कदाचित, चाँद
उतरा है
नंगे
पांव, सितारों भरे गगन से अभी अभी,
बे जिस्म सा कोई साया उतरा है
बदन से अभी अभी ।  
* *
- - शांतनु सान्याल

 अक्स के रुबरु - -

कड़ुए सत्य को हलक के नीचे उतारना सहज
नहीं, स्याह परछाइयों के नीचे दबा रहता
स्व - संघर्ष का इतिहास, पाप - पुण्य
के मध्य जीवन, झूलता रहता
है उम्र भर, किसी बंद
स्नानागार का
आइना जो
देखता
है सारे उन्मुक्त देह को गहराई से, हालांकि
हमें लगता हैं कि हमारे सिवा वहां कोई
नहीं, उन घनीभूत पलों में कोई
अदृश्य नेत्र मांगता है हम
से हमारा ही हिसाब,
हम छुपाना
चाहते है
तब
अपने रक्तिम नख उंगलियों के अंदर किंतु
रहते हैं विफल, इक ख़ामोश तरंगित
आवाज़ गूंजती रहती है हमारे
आसपास, स्याह परछाइयों
के नीचे दबा रहता
स्व - संघर्ष का
इतिहास ।
* *
- - शांतनु सान्याल


09 दिसंबर, 2022

मृगतृष्णा - -

 


अक्सर दो चेहरे घूम जाते हैं विपरीत दिशाओं में,
एक लम्बे अंतराल के बाद, दोनों तरफ रहते हैं
ख़ामोश से शून्य दीवार, अदृश्य उकताहट
की जड़ें फैल जाती हैं अंदर तक, हम
भूल जाते हैं साझा जीवन, असल
में हम ख़ुद ही गढ़ने लगते हैं
अपने भीतर सीमाबद्ध
कारागार, दोनों
तरफ़ रहते
हैं - -
ख़ामोश से शून्य दीवार । ज़रूरत से अधिक की
चाह में हम भटकते रहते हैं मृगतृष्णा के
देश में, उस दौड़ धूप में खो देते हैं
अपने हिस्से की परछाई, एक
दूसरे के प्रति बनते जाते
हैं उदासीन, यहाँ तक
कि भूल जाते हैं
हम खुल के
मुस्कुराना,
धीरे धीरे
घेर
लेती है हमें अंतहीन तनहाई, शिकार की चाह में
ख़ुद ही हो जाते हैं शिकार, दोनों तरफ़ रहते
हैं ख़ामोश से शून्य दीवार ।
* *
- - शांतनु सान्याल

पारदर्शी इत्रदान - -

ख़ुश्बुओं का सफ़र अपनी मंज़िल तक जा
पहुंचा, मेज़ पर था बहुत तनहा,शीशे
का वो इत्रदान, बंजारे शब्दों को
मिल चुका है कोरे पन्नों
का मुसाफ़िरख़ाना,
सूखा हुआ इक
गुलाब का
फूल,
किताब से गिर कर खोजता है लापता -
ठिकाना, अपना चेहरा भी कभी
कभी लगता है अक्स से बेहद
अनजान, मेज़ पर था
बहुत तनहा, शीशे
का वो इत्रदान।
कुछ चीज़े
होते हैं
बहुत
ख़ूबसूरत, छूने से उंगलियों में कर जाते
हैं गहरे सुराख़, छुअन की जुस्तजू
बढ़ा जाती है सिद्दत ए तिश्नगी,
अनबुझ जैसे जंगल की
शदीद आग, पलक
झपकते जो कर
कर जाए
दूर
तक हर शै को ख़ाक, क्या ज़मीं और क्या
आसमान, मेज़ पर था बहुत तनहा,
शीशे का वो इत्रदान।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

08 दिसंबर, 2022

दिल के किनारे - -

 


एक ही छत के नीचे रह कर भी दिल के किनारे
नहीं मिलते,उम्र भर की नज़दीकियां भी
जोड़ नहीं पातीं एहसासों के टूटे तार,
नजूमी ने हाथ मिलाया था हमारा
बहोत हिसाब किताब के साथ,
हाथ के लकीर मिल भी
जाएं आपस में कहीं,
लेकिन रूठे हुए
सितारे नहीं
मिलते,
दिल
के किनारे नहीं मिलते । हर चीज़ नहीं होती मन
माफिक, ज़िन्दगी का दूसरा नाम है अधूरापन,
फिर भी मुक्कमल पाने की चाह नहीं
मिटती, दरअसल ख़्वाहिशों की
प्यास कभी नहीं बुझती, हम
यूँ तो ख़रीद लें बहुत कुछ,
बचपन के दोस्त, गली
चौबारे, जीते हुए
कंचे ढेर सारे
नहीं मिलते,
सब कुछ
मिल
भी जाएं लेकिन दिल के किनारे नहीं मिलते ।
* *
- - शांतनु सान्याल

 रेशमी लिहाफ़ - -

वादियों में बहुत दिनों बाद खिली है
नरम धूप, भीगे पंखों को इक
ताज़गी भरा एहसास
मिले, गुलाब की
पंखुड़ियों में
हैं बिखरे
हुए
शबनमी मोती, ज़िन्दगी को भी क्यूं
न दोबारा खिलने का अंदाज़
मिले। दरिया ए बर्फ़
के नीचे हैं छुपे
हुए अनगिनत
राहत के
बहाव,
ख़्वाहिशों में रहे शामिल सितारों भरा
आस्मां, सर्द हौसलों को असीम
परवाज़ मिले, ज़िन्दगी
को भी दोबारा
खिलने का
अंदाज़
मिले। पश्मीना लिहाफ़ों में हैं बंद जिस्म
ओ रूह के दास्तां ए पुरअसरार,
कौन सी थी वो ज़मीं या
या बेल बूटों का था
कोई तिलस्मी
फ़लक,
किस
दुनिया का था वो ख़ूबसूरत दयार, उन
शब्दहीन पलों को इक बुलंद
आवाज़ मिले, ज़िन्दगी
को भी दोबारा
खिलने का
अंदाज़
मिले।
* *
- - शांतनु सान्याल

07 दिसंबर, 2022

काग़ज़ के फूल - -

लम्बा सा फ़ासला होता है हाशिए से उन्वान तक,
हर चीज़ यहां बिक जाए आदमी से भगवान तक,

हर चौक पे यूँ ही मिल जाएंगे ताबीज़ बांधने वाले,
हसीन चारा फेंक फ़र्श से ले जाएंगे आसमान तक,

हर तरफ है लूट खसोट, क्या मंदिर क्या शून्यालय,
ख़रीद फ़रोख़्त है यूँ ही रवां, जनम से श्मशान तक,

जोगी भोगी सभी हैं यहां, एक ही पथ के मुसाफ़िर,
खनकते सिक्कों के आगे, भुला दें वो पहचान तक,

बोगनबेलिया की तरह हैं सभी रिश्ते फ़िके फ़िके से,
ले जाते हैं लोग ज़िन्दगी को शहर से रेगिस्तान तक,
* *
- - शांतनु सान्याल

आसमानी बिम्ब - -

दोनों  किनारे है सुबह शाम के एक से मंज़र,
इक डूबे, इक उभरे, आराम किसे आठ पहर,

इक नदी बहती है अक्स ए फ़लक पहन कर,  
उतरता है कोई दम ब दम मेरी रूह के अंदर,

इक सड़क जो दूर उफ़क़ तक जाती है तन्हा,
सुदूर  मृग तृष्णा है,या अंतहीन नील समंदर,

हद ए नज़र  पर  है कोई  टिमटिमाता जज़ीरा,
आधी रात, जागता सा लगे है शीशे का शहर,

शीशे की है ज़मीं, मोम सा  पिघलता आस्मां,
न जाने कौन है वजूद घेरा हुआ अंदर - बाहर,

भीगी चांदनी  है राज़दां, नदी सा है जिस्म तेरा,
दिल में ज़रा उतार  तो लें  अक्स तेरा ठहर कर,

ज़िन्दगी का खारापन रहता है बरक़रार हमेशा,
जागते रहते हैं रात भर, न जाने कितने साग़र ।
* *
- - शांतनु सान्याल



 
 
 
 

06 दिसंबर, 2022

स्पर्श - -

ख़ामोशी बड़ी बुरी शै है बढ़ा जाती है दूरियां,
गिरह इस तरह से न बाँधी जाए कि उन्हें
खोलने में एक उम्र गुज़र जाए, हर
कोई इस जहां में पारस नहीं
होता कि छूने भर से
जिस्म, कुन्दन की
तरह निखर
जाए ।
इस ज़िन्दगी का हासिल ज़रूरी नहीं कि जीतें
हर बार हम, चौसठ योगिनियों का है खेल
सारा, जाने किस ख़ाने पर आ कर
सांस हमारी ठहर जाए । झुलसा
जाती है अक्सर आग्नेय
चाहत बहुत अंदर
तक, जीना
हो जाए
मुहाल,
मरना भी मुश्किल, किसे पता, कब और कैसे
मुहोब्बत का ये संगीन असर जाए ।
* *
- - शांतनु सान्याल

ख़्वाब है लाफ़ानी - -

ख़्वाब के बिना सब कुछ हैं आधे अधूरे - -
दरख़्तों के बेजान ढांचे, उजड़े हुए
परिंदों के बिखरे हुए बसेरे,
आंखों में है परवाज़ की
चाहत, जिस्म है
टूटे पंखों की
ज़ुबानी,
ख़्वाबों के बग़ैर बियाबां सी है ये ज़िंदगानी ।
निगाहों में ग़र ख़्वाब हैं ज़िंदा, तो सब
कुछ में है मुहोब्बत की परछाई,
तुम ढूंढते हो मेरी नज़र के
अंदर इक ख़ूबसूरत
सी मंज़िल, जो
दे सके तुम
को इक
पुरसुकूं आशियाना, तुम्हारे इस ख़्वाब में है
शामिल शफ़ाफ़ झरने की रवानी, ख़्वाबों
के बग़ैर बियाबां सी है ये ज़िंदगानी।
ख़्वाब हैं क़रीब तो, गुलाब को
है सुबह का इंतज़ार, जिस
तरह तुम्हें हो मुझ से
बेइंतहा प्यार,
ख़्वाब ले
जाते हैं
हमें
अंधेरे से उजाले की ओर, ख़्वाब ग़र टूट भी
जाए तो कोई बात नहीं, शर्त ये है कि
हम उस का साथ न 
छोड़ें, बाक़ी
सब कुछ तो है आनी -
जानी, ख़्वाबों के
बग़ैर बियाबां
सी है ये
ज़िंदगानी ।    
* *
- - शांतनु सान्याल
 

 

05 दिसंबर, 2022

पतझर की कहानी - -

स्मृति आलोक दीर्घायु नहीं होते, बहुत जल्द
लोग भूल जाते हैं झरते पत्तों की कहानी,
सूखे पलों को कोई नहीं चाहता है
सहेजना, टहनियों में कोंपलें
उभरते हैं रिक्त स्थानों
को भरते हुए, हिम
परतों के नीचे
सदैव रहता
है जमा
हुआ
पानी, लोग भूल जाते हैं झरते पत्तों की कहानी ।
जिल्द चाहे जितना भी हो रंगीन, श्वेत श्याम लकीरों में लिखी रहती हैं ज़िन्दगी की
दास्तां, हर एक को गुज़रना होता
है एक दिन तपते हुए धरातल
से, अक्सर बेबस होता है
उन लम्हों में नीला
आसमां, कोई
नहीं उठाता
ख़ुद के
सिवा
ज़िन्दगी की परेशानी,  बहुत जल्द लोग भूल जाते हैं झरते पत्तों की कहानी ।
* *
- - शांतनु सान्याल

 आगे बढ़ने का हुनर - -

निर्बंध हवाएं अपने ही शर्तों पर बहती हैं,
वो किसी का निर्देश नहीं सुनतीं, हमें
पाल समायोजित करने का तरीक़ा
खोजना होगा, अंधेरे में भी हम
उम्मीद की सुबह देख सकते
हैं, भले ही हमारे पास कुछ
भी न हो, फिर भी इस
अमूल्य जीवन को
मुस्कराहटों के
साथ, जैसा
है वैसा ही क़ुबूल करना होगा, हमें पाल 
समायोजित करने का तरीक़ा खोजना
होगा । अन्तःस्थल का सौंदर्य ही
प्रकृत सुंदरता है, जो काँच
की तरह है पारदर्शी,
अरण्य निर्झर
की तरह
बहती
हैं
उन्मुक्त भावनाएं, उसे जिसने नियंत्रित
कर लिया वही शख़्स है मुक्कमल
ख़ूबसूरत, जब हम अपनी  
मानसिकता को अपने
वश में कर लें तब
खुलने लगते हैं
सफलता
के बंद
कपाट, हर एक क़दम में छुपा होता है नए
गंतव्य का ठिकाना, आगे बढ़ने का
हुनर हर हाल में सीखना होगा,  
हमें पाल समायोजित
करने का तरीक़ा
खोजना
होगा।  
* *
- - शांतनु सान्याल

04 दिसंबर, 2022

अंतरतम का प्रवास - -

 
असमाप्त ही रहता है अन्तरतम का प्रवास,
रास्ते के पड़ाव, ख़ामोशी से देखते रहते
हैं दृश्यों का बदलाव, हर एक मोड़
पर ज़िन्दगी बदल जाती है
अपना बहाव, समय
मोड़ लेता है वजूद
अपने शर्तों पर,
हम चाह कर
भी रहते
हैं असहाय, शून्यता के सिवाय कुछ भी नहीं
रहता हमारे पास, असमाप्त ही रहता है
अंतरतम का प्रवास । कभी कभी जान
बूझ कर हम हार जाते हैं अपना
दांव, किसी और के चेहरे में
खोजते हैं राहत भरी
छांव, दरअसल
हम चाहते
हैं उस
का
प्यार बेपनाह, उसे परिपूर्ण पाने के लिए हम
हो जाते हैं लापरवाह, कोई हमारी छोटी
मोटी ग़लतियों पर झिड़के, रोके टोके,
हम जाने अनजाने में बढ़ा जाते
हैं उसकी गहरी चाह, उसे
निकट से निकटतम
लाने का होता
है असल में
एक मधुर
प्रयास,
असमाप्त ही रहता है अंतरतम का प्रयास ।
फिर भी बनी रहनी चाहिए ज़िन्दगी में
परिपूर्ण जीने की अतृप्त प्यास ।
* *
- - शांतनु सान्याल


03 दिसंबर, 2022

मोम का सांचा - -

अक्स कुछ बदला सा नज़र आए, मोम का सांचा था, निःशब्द अपने आप के संग

मिला गया कोई, एक विचित्र सी

अनुभूति है देह के बहुत अंदर, 

अभिशप्त पत्थरों को पुनः

जिला गया कोई । उस

प्रणय पिंजर के

मध्य हैं न

जाने 

कितने ही अंध मोहपाश, हृदय पट पर रहते

हैं फंसे सहस्त्र अदृश्य फांस, उम्र भर जो

देते हैं मीठे दर्द का एहसास, बंजर

भूमि में सहसा, अनगिनत फूल

खिला गया कोई, निःशब्द

अपने आप के संग 

मिला गया 

कोई ।

- - शांतनु सान्याल


 उम्मीद की लौ - -

अंधकार घिरने से पहले, न कोई अफ़सोस,
न ही कोई शिकायत रही, हर एक के पास
है प्राथमिकता की अपनी सूचि,
शून्य अपेक्षा ही होती है
सर्वोत्तम संतुष्टि,
जंग लगे दर
ओ दीवार
पर है
लटकती हुई शब्द विहीन नाम की तख़्ती,
अध खुले दरवाज़े से झांक कर चाँद
की रौशनी जताती है अपनी
उपस्थिति, हर एक के पास
है प्राथमिकता की
अपनी सूचि !
रंगहीन,
गंध -
विहीन सूखे फूलों का कोई नहीं तलबगार,
आत्मीयता का बहाव सर्वदा होता है
निम्नमुखी, सुबह और शाम के
मध्य कितना कुछ बह जाता
है केवल साक्षी रहता है
एक मात्र नमनीय
सूरजमुखी,
रिक्त
स्थानों को भर जाता है मौसम का पहिया,
अतीत के भित्ति पर ज़्यादा दिन नहीं
ठहरते कांच के यादगार, रंगहीन,
गंध विहीन सूखे फूलों का
कोई नहीं तलबगार !
फिर भी ज़िन्दगी
हर हाल में
देखती
है आइना, पुनर्रचना के लिए खोजती है -
नए गंतव्य, रंगीन क्षितिज, भरना
चाहती है रंगों से घिसा पीटा
धूसर कैनवास,कदाचित
मरुभूमि को भिगो
जाए अनाहूत
सांध्य वृष्टि,
हर एक के
पास है प्राथमिकता की अपनी सूचि, शून्य
अपेक्षा ही होती है सर्वोत्तम
संतुष्टि - - -
* *
- - शांतनु सान्याल


 


02 दिसंबर, 2022

दूसरे जहान में - -

 

विखंडित पलों को जोड़ती हुई ज़िन्दगी बढ़

जाती है एक नए सफ़र के लिए, अभी

अभी गुज़री है कोई दूरगामी रेल,

पटरियों के दोनों तरफ है एक

अजीब सी थरथराहट भरी

ख़ामोशी, गहराती रात

के साथ हम गुज़रते

हैं नींद के सुरंग

से हो कर

किसी

अनजाने शहर के लिए, ज़िन्दगी बढ़ जाती है

एक नए सफ़र के लिए । मुंडेर से उतर कर

चाँदनी, अलिंद पर ठहरती है कुछ देर के

लिए, निढाल देह पर गिरते हैं बूंद -

बूंद ओस, खुलते हैं परत दर 

परत ख़ुश्बुओं के स्पर्श, 

नज़दीकियां ले जाती

हैं हमें सितारों के

उस पार किसी

और ही 

जहान

में, हम बुनते हैं रेशमी स्वप्न परस्पर में डूब कर,

ज़िन्दगी ढूंढती है कोई न कोई नया विकल्प

गुज़र बसर के लिए, ज़िन्दगी बढ़ जाती

है एक नए सफ़र के लिए ।

- - शांतनु सान्याल 









तर्जुमा ए ख़्वाब - -

हर बार लौट आता है, पिंजरे का परिंदा अपनी जगह,
दुनिया है हैरां, देख कर मुझ को  ज़िंदा अपनी  जगह,

उस अहाते की शबनमी चाँदनी आती है मेरे घर तक,
ख़ुश्बू ए गुल बदन बनी रहती है, आहट ए सहर तक,

लौट आता हूँ मैं ख़ला ए अज़ीम से किसी की चाह में,
तलाशता हूँ मैं अनमोल मोती, किसी गहरे  निगाह में,

दहलीज़ पे कोई अक्सर रख जाता है, म'अतर  रुमाल,
एहसास ए लम्स है या कोई ओढ़ा जाए कश्मीरी शाल,

नरम धूप को बुलाता है धीरे से अधखिला सुर्ख़ गुलाब,
नम पंखुड़ियों में है छुपा कहीं  अदृश्य तर्जुमा ए ख़्वाब,
* *
- - शांतनु सान्याल
 

01 दिसंबर, 2022

 संदली छुअन - -

अंजाम ए ख़्वाब जो भी हो, सुबह का इंतज़ार करें,
मुख़्तसर है ये ज़िन्दगी, कुछ और ज़रा प्यार करें,

हज़ार एहतियात के बाद भी  बिखरेगा ख़ाक बदन,
बिखरने से पहले, दिल की  गहराई से इज़हार करें,

आस्मां के नीचे है दूर दूर तक सहरा का ख़ालीपन,
जादुई पलों में क्यूँ न दिल का  चमन गुलज़ार करें,

ग़फ़लत में पड़े रहते हैं, सभी चाहतों  के  फ़ेहरिश्त,
बारहा जो पल दे चुभन उसे ख़ुद से दर किनार करें,

वो छुअन जो पतझर में भी ले जाए वादी ए गुल में,
रूह की गहराई से, उस दुआ'गो हाथ पे ऐतबार करें,  
 * *
- - शांतनु सान्याल
 
 

 आख़री छोर पे - -

तस्लीम ए जुर्म के सिवा उसके  पास  कोई चारा न था,
जीने की शदीद चाह तो थी, सुदूर  कोई किनारा न था,

अपने ही फ़सील से ताउम्र  चाह कर भी न निकल पाए,
ख़ुद फ़रेबी ही सही, सिवा इसके कोई  भी सहारा न था,

जाते  भी आख़िर हम कहाँ, हर सू थे  घूमते हुए आइने,
चेहरे थे  मुद्दतों से आशना, फिर भी  कोई हमारा न था,

दिन चढ़ते  ज़िन्दगी की जद्दोजहद, वही  शाम  बोझिल,
उम्र से लम्बी रातें, हिस्से में  कोई  जश्न ए बहारां न था,

गुज़रते रहे  बेबस  उदास चेहरे, शाहराह पांव बंधे ज़ंजीर,
बेशिकन थे तमाशबीन इस से बेहतर  कोई नज़ारा न था,

भीड़ घेरी हुई थी शख़्स को जो जा चुका  मुल्क ए अदम,
कौन सोचे वो कैसे मरा दरअसल वो कोई तुम्हारा न था ।  
* *
- - शांतनु सान्याल

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