बहुत कुछ बदला है इस शहर में, हरे कपड़ों
से ढके हुए झुग्गियों के घर, ज़ेब्रा क्रॉसिंग
के दोनों किनारे झूल रहे हैं लोभनीय
विज्ञापन के आदमक़द बैनर,
चमचमाते हुए मेट्रो ट्रेन,
आधुनिक मॉल की
झिलमिलाती
सीढ़ियां,
सब्ज़
कपड़ों के नेपथ्य में ज़िन्दगी आज भी है वही,
सदियों से जिस जगह थी, बस तारीख़
बदल रहे हैं कैलेण्डर में, बहुत कुछ
बदला है इस शहर में । विकास,
विप्लव - विद्रोह, काया -
कल्प, रुपातन्तरण
सब कुछ छुपा
रहता है
सिर्फ़
काग़ज़ कलम में, वही रास्ता वही संघर्षरत -
चेहरे, वही टूटी हुई चप्पल जिसे हम
सिलवाते हैं बारम्बार, हर तरफ
हैं झूलते हुए रंगीन फीतों
से सजे हुए उपहार
के डिब्बे, जिसे
खुलते हुए
किसी
ने कभी नहीं देखा, फिर भी हर बार मंत्रमुग्ध
हो कर, अपनी उंगलियों में काला चिन्ह
लगवा कर लौट आते हैं उसी जगह
जो ढका हुआ है सब्ज़ कपड़ों
से, ताकि विदेशी मेहमान
ग़लती से न पहुंच
जाएं इस सत्य
के खंडहर
में, बहुत कुछ बदला है इस शहर में - -
* *
- - शांतनु सान्याल
21 दिसंबर, 2022
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
उस अदृश्य कुम्हार के दिल में, जाने क्या था फ़लसफ़ा, चाहतों के खिलौने टूटते रहे, सजाया उन्हें जितनी दफ़ा, वो दोपहर की - - धूप थी कोई मुंडेरों से...
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 22 दिसंबर 2022 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
असंख्य आभार आपका ।
हटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंअसंख्य आभार आपका ।
हटाएंbahut sundar
जवाब देंहटाएंअसंख्य आभार आपका।
हटाएंअपनी उंगलियों में काला चिन्ह
जवाब देंहटाएंलगवा कर लौट आते हैं उसी जगह
जो ढका हुआ है सब्ज़ कपड़ों
से, ताकि विदेशी मेहमान
ग़लती से न पहुंच
जाएं इस सत्य
के खंडहर
में, बहुत कुछ बदला है इस शहर में - -
वाकई बहुत कुछ बदलता है शहरों में बस नहीं बदलते वहाँ रहने वालों के हालात
वाह!!!
बहुत सटीक ।
असंख्य आभार आपका।
हटाएंएक तबके के तो बिल्कुल नहीं बदलते हालात । सामाजिक सरोकार की रचना ।
जवाब देंहटाएंअसंख्य आभार आपका।
हटाएं