लहरों के बहते ख़्वाब थे रेत पर आ कर बिखर गए,
किसी की याद में, बारहा डूबे, बारहा हम उभर गए,
साहिल के किनारे बसा हुआ था कोई कांच का घर,
हर सिम्त थे हज़ारों अक्स ए महबूब, हम जिधर गए,
इब्तदा ए ख़िज़ाँ से, आख़िर मायूसी भला क्यूँ करें,
कितने ही सूखे दरख़्त, सब्ज़ दुआओं से निखर गए,
हर इक को गुज़रना होता है उतार चढ़ाव के ग्राफ से,
मंज़िल नहीं आएगी कभी ग़र अपने ही में ठहर गए,
मुख़्तसर सा है सफ़र ए ज़िंदगानी, हर पल है नफ़ीस,
किसे ख़बर बिन क़र्ज़ उतारे ही हम जहां से गुज़र गए,
* *
- - शांतनु सान्याल
17 दिसंबर, 2022
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आपकी लिखी रचना सोमवार 19 दिसंबर 2022 को
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
असंख्य आभार आपका।
हटाएं'मुख़्तसर सा है सफ़र ए ज़िंदगानी, हर पल है नफ़ीस,
जवाब देंहटाएंकिसे ख़बर बिन क़र्ज़ उतारे ही हम जहां से गुज़र गए,'- बहुत सही फरमाया बंधुवर! अपने परिवार, अपने समाज, अपने देश और स्वयं अपनी आत्मा का कर्ज़ हुआ करता है हम पर। जाएं तो एकदम हल्के हो कर, तब ही इस दुनिया में हमारा आना सार्थक सिद्ध हो सकता है। ... नायाब पेशकश
असंख्य आभार आपका।
हटाएंहर इक को गुज़रना होता है उतार चढ़ाव के ग्राफ से,
जवाब देंहटाएंमंज़िल नहीं आएगी कभी ग़र अपने ही में ठहर गए
वाह!!!!,
असंख्य आभार आपका।
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