07 दिसंबर, 2022

काग़ज़ के फूल - -

लम्बा सा फ़ासला होता है हाशिए से उन्वान तक,
हर चीज़ यहां बिक जाए आदमी से भगवान तक,

हर चौक पे यूँ ही मिल जाएंगे ताबीज़ बांधने वाले,
हसीन चारा फेंक फ़र्श से ले जाएंगे आसमान तक,

हर तरफ है लूट खसोट, क्या मंदिर क्या शून्यालय,
ख़रीद फ़रोख़्त है यूँ ही रवां, जनम से श्मशान तक,

जोगी भोगी सभी हैं यहां, एक ही पथ के मुसाफ़िर,
खनकते सिक्कों के आगे, भुला दें वो पहचान तक,

बोगनबेलिया की तरह हैं सभी रिश्ते फ़िके फ़िके से,
ले जाते हैं लोग ज़िन्दगी को शहर से रेगिस्तान तक,
* *
- - शांतनु सान्याल

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