रंगीन पैबंदों से जड़े लबादे, वो पागल
सहजिया पंथ के अनुयायी, गाते
थे अपने ही सुरों में जीवन
की रागिनी, गुज़रते थे
एक ही पथ से हो
कर जहाँ
कभी
मिलती थी दो नदियां, गूंजते थे दोनों
तटों पर अदृश्य मन्त्र रूहानी, न
जाने कैसे, क्यूँ कर टूट गए
सभी मेल बंधन, संगम
के सीने पर उभर
आए नुकीले
कांटे
तार के सरहद, तोड़ दिए गए एक ही
झटके में शताब्दियों की कहानी,
एकतारा अब भी बजता है
दोनों किनारे, लेकिन
मिलते कभी नहीं
टूटे हुए सितारे,
नदियों का
अब
हो चुका नवीन नामकरण, गेरुआ व
सब्ज़ ! रेल पटरियों के समानांतर
ज़िन्दगी गुज़रती जा रही है,
जो परस्पर साथ चल
कर भी कभी एक
दूजे से नहीं
मिलतीं,
इक
ख़ौफ़ के सिवाय कुछ भी नहीं हमारे
बीच, कहने को एक सी है हम
सभी की ज़िंदगानी - -
* *
- - शांतनु सान्याल
23 दिसंबर, 2022
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