जीवन नामक किताब का कोई भी पृष्ठ
नहीं होता अंतिम, बस शब्दों के
उतार चढ़ाव जाते हैं बदल,
जैसे कोस कोस पर
पानी, अर्क पात
पर लिखी
होती
है इक बूंद ओस की कहानी, परित्यक्त
यहाँ कुछ भी नहीं रहता, दूरत्व के
बढ़ते ही रिक्त स्थानों को
लोग कर जाते हैं दख़ल,
कोई भी पृष्ठ नहीं
होता अंतिम,
बस शब्दों
के उतार
चढ़ाव
जाते हैं बदल । बहुविध रूप में उभरते हैं
जीवन मंच पर जाने अनजाने पात्र,
बहुधा, दर्शक-वीथी के कोलाहल
से हम निकलना चाहते
हैं सुदूर किसी
शून्य में,
जहाँ
केवल हम ही हों एक मात्र, चाहते हैं - -
जीना शांति के साथ, लेकिन हर
बार हम लौट आते हैं ख़ाली
हाथ, इक अनदेखा सा
बंधन हमें खींचता
है दर असल,
कोई भी
पृष्ठ
नहीं होता अंतिम, बस शब्दों के उतार - -
चढ़ाव जाते हैं
बदल ।
* *
- - शांतनु सान्याल
12 दिसंबर, 2022
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