वो एकाकी सांध्य प्रदीप हूँ जिसे
जला के किसी ने यूँ ही भूला
दिया। मुद्दतों से, इक
अदृश्य आग लिए
सीने में, जल
रहा हूँ मैं
किसी
अनबुझ प्यास की तरह आठ - -
पहर, ये और बात है कि
ज़माने ने, श्रेय सारा
पुरोहित को दे
दिया। और
मेरा
अस्तित्व रहा यथावत ऊसर भूमि
की तरह उपेक्षित, पतझर के
पत्तों से आच्छादित,
लेकिन इन्हीं मृत
पत्तों से होता
है सृष्टि
का
नव सृजन। जलना है मुझे यूँ ही -
अंतहीन अंधकार में सतत,
जब तक है मौजूद ये
पृथ्वी और गहन
आकाश।
* *
- शांतनु सान्याल
जला के किसी ने यूँ ही भूला
दिया। मुद्दतों से, इक
अदृश्य आग लिए
सीने में, जल
रहा हूँ मैं
किसी
अनबुझ प्यास की तरह आठ - -
पहर, ये और बात है कि
ज़माने ने, श्रेय सारा
पुरोहित को दे
दिया। और
मेरा
अस्तित्व रहा यथावत ऊसर भूमि
की तरह उपेक्षित, पतझर के
पत्तों से आच्छादित,
लेकिन इन्हीं मृत
पत्तों से होता
है सृष्टि
का
नव सृजन। जलना है मुझे यूँ ही -
अंतहीन अंधकार में सतत,
जब तक है मौजूद ये
पृथ्वी और गहन
आकाश।
* *
- शांतनु सान्याल