09 अगस्त, 2021

अंतःस्थल का उपवन - -

तुम्हें संवारने की चाह में हज़ार बार
उजड़ा है मेरे अंदर का उपवन,
न जाने किन रास्तों से
हो कर गुज़री है
ज़िन्दगी,
कभी
वक़्त मिले तो देख लेना प्रणय कुंड
का चिर दहन, तुम्हारी चाहत
में हज़ार बार मैंने छोड़ी
है अपनी मधुरिम
काया, और
धारण
की,
अपने अन्तःस्थल में केवल तुम्हारी
ही छाया, फिर भी एकाकी ही
रहा मेरा जीवन, तुम्हें
संवारने की चाह
में हज़ार बार
उजड़ा है
मेरे
अंदर का उपवन। तुमने चाहा कि -
सभी संग्रहित सुखों का हो
परित्याग, सुतराम्
अपरिग्रह के
पथ पर
हो
अग्रसर, मैंने गहन अरण्य को बोया
अपने अंदर, फिर भी मैं अकेला ही
रहा, कहने को हम सभी के
भीतर बहती हैं असंख्य
स्रोतस्विनी, जो
एक दूजे से
मिल कर
भी
कभी नहीं मिलती, मृगजल के सिवा
कुछ भी नहीं होता उस अंत्यमिल
बिंदु पर, फिर भी देता है ये
निःसीम सुख, अंतर का
कालजयी समर्पण,
तुम्हें संवारने
की चाह
में हज़ार बार उजड़ा है मेरे अंदर का -
उपवन - - -

* *
- - शांतनु सान्याल  

   
   





4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत दर्द है इस कविता में। जो ऐसे दर्द से गुज़रा हो, वही इसके भाव को ठीक से समझ सकता है।

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  2. बहुत सुन्दर शब्द चयन , सुन्दर भाव पूर्ण रचना

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