रात भर अंतःकरण के साथ चलता रहा
मीमांसा रहित कथोपकथन, कुछ
नोक झोंक, निशांत पलों का
मान मनौवल, आख़िर
रात ढले, झर गए
हरसिंगार,
उनींद
आँखों में था एक जागता हुआ उपवन,
फिर भी अशेष ही रहा स्वयं से
कथोपकथन। कभी शिखर
पर चढ़ते ही, एक ही
पल में शून्य
पर थी
ये ज़िन्दगी, समय के हाथों उलटता
रहा पासा, नियति खेलती रही
सांप - सीढ़ी, कोई काम
न आ सकी जादू
की काठी,
वही
पोशाक परिवर्तन, वही निःस्तब्ध -
मंच पर एकांकी प्रहसन, कुछ
भी न था अपना, एक
खोखला अहसास
और धुएं में
उठता
हुआ
ज़माने का अपनापन, रात भर - - -
अंतःकरण के साथ चलता
रहा मीमांसा रहित
कथोपकथन।
* *
- - शांतनु सान्याल
30 अगस्त, 2021
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आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 31 अगस्त 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (31-8-21) को "कान्हा आदर्शों की जिद हैं"'(चर्चा अंक- 4173) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
------------
कामिनी सिन्हा
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंउनींद
जवाब देंहटाएंआँखों में था एक जागता हुआ उपवन,
फिर भी अशेष ही रहा स्वयं से
कथोपकथन
–शानदार चित्रण
उम्दा सृजन
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंवाह!लाजवाब!
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंवाह!बेहतरीन सृजन हमेशा की तरह।
जवाब देंहटाएंसादर
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
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