29 अगस्त, 2021

जी भर के देखा ही नहीं - -

मुख़्तसर सी ज़िन्दगी कभी हो जाती है
कई शताब्दियों सी लम्बी, कभी
यूँ लगता है जी भर के तुम्हें
देखा ही नहीं, न जाने
कितने जन्मों से
भटक रहा
है ये
चाहतों का अश्वत्थामा ले कर अनंत -
अनुभूति, अनगिनत हिस्सों में
हैं रिसते हुए घाव फिर भी
अविरल जीवनदायी
है ये महा पृथ्वी,
न जाने क्यूँ
लगता है
कभी
कभी, कि तुम्हारे बग़ैर कुछ बचा ही
नहीं, कभी यूँ लगता है जी भर
के तुम्हें देखा ही नहीं। बस
वही पल अमर हो गए
जो हमने थे साथ
गुज़ारे, बाक़ी
थे ओस -
बूंद
पत्तियों के किनारे, आ कर जाने कहाँ
खो गए, कहने को यूँ तो, हाथ पर
रहे, असंख्य मोह के लचीले
छल्ले, तुम्हें जो चाहा
एक बार किसी
और को
हमने
यूँ मिट कर चाहा ही नहीं, कभी यूँ - -
लगता है जी भर के तुम्हें
देखा ही नहीं।
* *
- - शांतनु सान्याल

 

 

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