हिन्दुकुश से लेकर म्यांमार तक हमने
देखा है, वही मासूम चेहरे चीखते
हुए, कांटेदार तारों के बीच
हाथ बढ़ा कर जीवन
की भीख मांगते
हुए, उड़ते
विमान
से
नीचे गिरते हुए, ख़ैबर दर्रे से निकल
कर हो सुदूर मलय प्रदेश, वही
मानवता का शव उठा कर
लोगों ने फेंका है बारम्बार,
हमने देखा है निरीह
लोगों का महा
निष्क्रमण,
रेल की
पटरियों में बिखरे हुए अंग प्रत्यंग,
गंगा के किनारों पर उभरी हुई
क़ब्रें, जली हुई झोपड़ियां,
टूटी हुई हांड़ी, बिखरे
हुए अध पके
चांवल,
हमने देखा है शुभ्र वस्त्रों में लोगों
का वीभत्स अट्टहास, वो
बामियान हो, या
उत्तर कोलकाता
मूर्ति तोड़ने
वाले
कहाँ नहीं मौजूद, हमने देखा है - -
स्वभाषा न होने का दंश,
वही लोग जो देते हैं
राष्ट्रभक्ति,
स्वधर्म
का
हुंकार, राजत्व की ख़्वाहिश में वही
चेहरे, अपनी ही जाति पर करते
हैं अत्याचार, हमने देखा है,
बहुत कुछ लघु जीवन
में, फिर भी हम
देखना चाहते
हैं एक
बंधन मुक्त भीगा सा प्रभात, जहाँ
हर चेहरा लगे शबनमी
गुलाब - -
* *
- - शांतनु सान्याल
23 अगस्त, 2021
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 23 अगस्त 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंजय मां हाटेशवरी.......
जवाब देंहटाएंआपने लिखा....
हमने पढ़ा......
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें.....
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना.......
दिनांक 25/08/2021 को.....
पांच लिंकों का आनंद पर.....
लिंक की जा रही है......
आप भी इस चर्चा में......
सादर आमंतरित है.....
धन्यवाद।
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंकाश! हम जल्द ही देख पाते स्वर्णिम प्रभात मुक्ति का । मर्मस्पर्शी भाव सृजन ।
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंमरर्मिक रचना
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
जवाब देंहटाएंदेखना चाहते
जवाब देंहटाएंहैं एक
बंधन मुक्त भीगा सा प्रभात, जहाँ
हर चेहरा लगे शबनमी
गुलाब - -
काश कि इस विभत्सता के बाद भी बंधनमुक्त प्रभात दिखे
बहुत ही मर्मस्पर्शी सृजन।
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंहृदयस्पर्शी सृजन।
जवाब देंहटाएंसादर
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएं