15 अगस्त, 2021

पचहत्तर साल बाद - -

रक्तिम किले के प्राचीर से काश देख
पाते हम, नंगे पांव बालक का
मुरझाया हुआ चेहरा, जो
फुटपाथ में कहीं
बेच रहा है
काग़ज़ी
तिरंगा, संसद के रण मंच से काश हमें
दिखता सुदूर आदिवासी गांव का
कच्चा रस्ता, चारपाई पर
लोग ले जाते हुए
अंतःसत्त्वा,
सिर्फ़
दूरबीन से हम देखते हैं कुछ एक नगर
में तेज़ सरसराती हुई चमकीली
रेलगाड़ियां, अट्टालिकाओं
के ऊपर से उड़ते हुए
उड़न खटोले,
लेकिन
अफ़सोस हम नहीं देख पाते नज़दीक -
का गांव, जो पचहत्तर साल के
बाद भी वैसा ही है रंगहीन
बेढंगा,  काश देख
पाते हम, नंगे
पांव बालक
का
मुरझाया हुआ चेहरा, जो फुटपाथ में
कहीं बेच रहा है काग़ज़ी
तिरंगा।
* *
- - शांतनु सान्याल
 
 
 
 

9 टिप्‍पणियां:

  1. सही कहा शांतनु भाई की गांव देहातो की तस्वीर आज भी ज्यादा नही बदली है। लेकिन फिर भी अब बदलाव आ रहा है।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत बहुत सुन्दर देश का चित्र प्रस्तुत करती रचना

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही सुन्दर विषय पर सुंदर लेखन

    जवाब देंहटाएं
  4. आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।

    जवाब देंहटाएं
  5. काश देख
    पाते हम, नंगे
    पांव बालक
    का
    मुरझाया हुआ चेहरा, जो फुटपाथ में
    कहीं बेच रहा है काग़ज़ी
    तिरंगा।
    बेहद हृदयस्पर्शी सृजन।

    जवाब देंहटाएं

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past