08 अगस्त, 2021

सीमाहीन परिधि - -

कांच के चौकोरों को बांध रखा है हमने
सुरभित काठ के फ्रेमों में, ताकि
दिखा पाएं अपने अंदर का
ऐश्वर्य सारे जग को,
कांच तो आख़िर
कांच ही है
टूट -
जाएगा एक दिन, टूट जाएंगे निःशब्द -
सभी मृत्तिका के निर्जीव खिलौने,
हम तलाशते फिरेंगे अपना
बिखरा हुआ अस्तित्व
फ़र्श के कोनों में,
कांच के
चौकोरों को बांध रखा है हमने सुरभित
काठ के फ्रेमों में। दरअसल ज़िन्दगी
का फ़लसफ़ा कुछ भी नहीं,
बेवजह हम सो नहीं
पाते रात भर,
किताबों
में
खोजते रहते हैं खुश रहने के नुस्ख़े - -
चाहत की परिधि को हमने
तान रखा है आकाश
तक, हासिल
करना
चाहते हैं ज़रूरत से कहीं अधिक वैभव,
भूल जाते हैं आत्म शांति की
रहगुज़र, बांट जाते हैं
अपना वजूद
असंख्य
ख़ेमों
में,  
कांच के चौकोरों को बांध रखा है हमने
सुरभित काठ के
फ्रेमों में।

* *
- - शांतनु सान्याल

 

12 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (०९-०८-२०२१) को
    "कृष्ण सँवारो काज" (चर्चा अंक-४१५१)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. बहुत सुंदर रचना ,सही है कांच के
    चौकोरों को बांध रखा है हमने सुरभित
    काठ के फ्रेमों में।
    आत्मवंचना का भुलावा,
    खुद से ही चल है, जो किते जा रहे हैं ।
    सुंदर।

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  3. बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना

    जवाब देंहटाएं

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