30 जनवरी, 2012


हमने भी जीना सीख लिया 

तपते राहों से गुज़रना था लाज़िम,
परछाइयों ने वक़्त देखते ही 
रुख़ अपना बदल लिया, 
ज़िन्दगी ने भी हर
मोड़ पर ख़ुद को 
मोड़ना, सीख 
लिया, 
वो ख़्वाब जो कभी झूलते थे 
रस्सियों में, भीगे कपड़ों 
की तरह, साँझ से 
पहले उन्हें 
हमने 
भी सहेज कर छत से, तह करके 
सरहाने सजा के रखना, देर 
से सही लेकिन आख़िर 
सीख लिया, वो 
मुहोब्बत जो 
देता रहा 
फ़रेब मुझको, वक़्त के साथ दिल 
भी उस इश्क़ से खुबसूरत
किनाराकशी करना 
सीख लिया. 
ज़माना अब कहे चाहे जो मर्ज़ी 
हमने भी सायादार दरख्तों 
को दोस्त बनाने का 
हुनर सीख लिया.

-- शांतनु सान्याल
 http://sanyalsduniya2.blogspot.com/



22 जनवरी, 2012


अलाव की तरह 

न दिला, याद वो वहशी रात का आलम,
मैंने ख़ुद को है, जलाया अलाव की तरह,

उजाला जो दे जाय, इक हलकी सी हंसी,
जीवन को है बिखेरा मैंने बहाव की तरह,

चाह कर भी छू न सके वो दामन मेरा -
बाअज़ बढ़ाया हाथ हमने नाव की तरह, 

कोई पहलु उसे अक्सर उलझाये रहा,वो  
अक्सर मुझसे मिला भटकाव की तरह,

वादी की ख़ामोशी रही बरक़रार मुद्दतों 
अपना रिश्ता यूँ रहा धूप छांव की तरह,

आज भी देखता है शिफ़र आँखों से मुझे,
दिल में है इश्क़ किसी ठहराव की तरह, 

-- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/





20 जनवरी, 2012

सूर्य की प्रथम किरण

भाषाहीन आँखें तकती रहीं एकदृष्ट
आंसुओं में तैरतीं वो भावनाएं,
कोई श्रावणी संध्या जिसने
भिगोया था हमें सुदूर
मालविका वन में,
कभी तुमने
जलाया
था बरगद तले मिटटी का दीपक
साँझ ढले, कभी तुमने
पुकारा था उपनाम
से मुझे जिसे
सुनने को
तरसती रहीं निगाहें, उन घाटियों
के उसपार शायद है कोई
तितलियों का शहर
अक्सर आधी
रात, उड़
आतें हैं रंगीन सपनों के टूटे पंख,
खिड़कियों के कांच में प्रायः
दिखाई दे जाते हैं कुछ
घनीभूत प्रणय
बूंद के झालर,
मैं बेचैनी से आज भी सुबह की
प्रतीक्षा करता हूँ, तू सूर्य
की प्रथम किरण बन
कर ह्रदय के अर्ध
विकसित फूल
को फिर इक बार खिला जाए,
ज़िन्दगी में पुनः रंग
भर जाए - - -

-- शांतनु सान्याल

18 जनवरी, 2012

नज़्म - - अंदाज़े वफ़ा है जुनूनी

तू वही है जो अँधेरे में भी दिखाई दे जाए,
इस रात की उफनती सांसों में मेरा
भी ज़िक्र हो शायद, तू फिर
कहीं से आये थाम ले
मेरी बाहें,  डूबने
से पहले
उबार ले जाए,लोग कहते हैं  मेरा अंदाज़े
 वफ़ा  है जुनूनी, पिघलते रेत की
मानिंद है मेरा वजूद
बेमिशाल, किसी
की चाहत में
ज़िन्दगी
ढलती है गर्म भट्टियों से गुज़र कर, यूँ
कांच की तरह खुबसूरत, ग़र
हाथ से फिसल जाए,
तो उम्र भर टूटने
का सदमा
बना रहे,  
डूबते तारों ने दिया था तेरे घर का ठिकाना !
तेरी इक झलक में यूँ ज़माना गुज़र
गया हमें ख़बर ही नहीं, हम
आज भी वहीँ हैं खड़े
जहाँ से ज़िन्दगी
तुम्हारे
हमराह हो गई, आज भी मुन्तज़िर है संगे
साहिल  तेरे इक लम्स के लिए, आज  
भी दिल को है अज़ाब से उभरने
की ख्वाहिस, तपते ज़मीं
से उठीं हैं दुआएं,
 कभी तो हो
तेरी नज़र
मेहरबां, कभी तो मेरी अक़ीदत यक़ीं पाए,   
जिस्मानी मेल से उठ कर है कहीं
उस मुहोब्बत के मानी, कभी
तो उसे क़बूल करे, कभी
तो मेरी ज़ात का दम
भरे, कुछ पल के
लिए ही सही,
मज़लूम ज़िन्दगियों को तेरे साए में राहत मिले !

- - शांतनु सान्याल  





14 जनवरी, 2012

नज़्म - - अंतर्मन,

बहुत क़रीब से दिल के गुज़रे मगर छू न सके 
अंतर्मन, असमय मेघ की भांति ठहरे 
ज़रूर शिखर पर, चाह कर भी वो 
बारिश की बूंदों में तब्दील 
हो न सके, तपती 
घाटियों की 
तरह 
अतृप्त भावनाएं, बादलों का यूँ गुज़रना
 देखती रही, विगत रात न जाने 
क्या हुआ, आकाशगंगा के 
किनारे सभी ख़्वाब
बैठे रहे मातमी 
चेहरा लिए !
हमने 
बहुत चाहा, आँखों में बसाना उनको, वो 
आये ज़रूर नज़र हमको लेकिन 
तासीर में शायद कुछ कमी 
थी, वर्ना उनका अक्स 
उभर कर निगाहों 
से यूँ फिसलता 
नहीं - - - 

- - शांतनु सान्याल 
 

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