20 जनवरी, 2012

सूर्य की प्रथम किरण

भाषाहीन आँखें तकती रहीं एकदृष्ट
आंसुओं में तैरतीं वो भावनाएं,
कोई श्रावणी संध्या जिसने
भिगोया था हमें सुदूर
मालविका वन में,
कभी तुमने
जलाया
था बरगद तले मिटटी का दीपक
साँझ ढले, कभी तुमने
पुकारा था उपनाम
से मुझे जिसे
सुनने को
तरसती रहीं निगाहें, उन घाटियों
के उसपार शायद है कोई
तितलियों का शहर
अक्सर आधी
रात, उड़
आतें हैं रंगीन सपनों के टूटे पंख,
खिड़कियों के कांच में प्रायः
दिखाई दे जाते हैं कुछ
घनीभूत प्रणय
बूंद के झालर,
मैं बेचैनी से आज भी सुबह की
प्रतीक्षा करता हूँ, तू सूर्य
की प्रथम किरण बन
कर ह्रदय के अर्ध
विकसित फूल
को फिर इक बार खिला जाए,
ज़िन्दगी में पुनः रंग
भर जाए - - -

-- शांतनु सान्याल

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