बहुत क़रीब से दिल के गुज़रे मगर छू न सके
अंतर्मन, असमय मेघ की भांति ठहरे
ज़रूर शिखर पर, चाह कर भी वो
बारिश की बूंदों में तब्दील
हो न सके, तपती
घाटियों की
तरह
अतृप्त भावनाएं, बादलों का यूँ गुज़रना
देखती रही, विगत रात न जाने
क्या हुआ, आकाशगंगा के
किनारे सभी ख़्वाब
बैठे रहे मातमी
चेहरा लिए !
हमने
बहुत चाहा, आँखों में बसाना उनको, वो
आये ज़रूर नज़र हमको लेकिन
तासीर में शायद कुछ कमी
थी, वर्ना उनका अक्स
उभर कर निगाहों
से यूँ फिसलता
नहीं - - -
- - शांतनु सान्याल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें