शर्तों में ही सही, उसने साथ जीने की क़सम
खाई है, फिर वहीँ से चल पड़े हम जहाँ
पे कभी उसने साथ छोड़ा था, न
जाने क्यूँ उसी मक़ाम पर
आते ही उसकी
उँगलियाँ
ख़ुद ब
ख़ुद
छोड़ जाती हैं हाथ मेरा, शायद उसे ऊँचाइयों
से डर लगता है, लेकिन इन्हीं घाटियों
से मिलती है प्रेरणा मुझ को, वो
खौफ़ जो उसे रखती है दूर,
उन्हीं कांपती सांसों में,
ज़िन्दगी उसे थाम
लेती है सीने से
लगा कर,
बरबस !
ये कौन सी अदा है उसकी अक्सर सोचता हूँ
मैं, जब कभी वो क़रीब आये इक
ख़मोश खुमारी भी साथ लाये,
बहकना या डगमगाना
ये आदत तो आम
है लेकिन
उनकी
आँखों का नशा है जाने क्या, जब भी देखा
उन्हें डूब कर, ज़िन्दगी मुक़म्मल
बेहोश नज़र
आये ----
--- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
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