30 दिसंबर, 2023

मीठा भरम - -

कुछ अश्क ए मोती बिखरे हुए सिरहाने से मिले,

आईना था लाजवाब मुद्दतों बाद दीवाने से मिले,


अक्स ए जुनूं था या अहद ए बर्बादी मालूम नहीं,
रूह से उतर कर शम'अ आख़िर परवाने से मिले,

आईन ए ज़माना, संगसारी से ज़्यादा क्या करेगा,
हज़ार पर्दों से बाहर, न जाने किस बहाने से मिले,

आसां नहीं है दिलों का एक दूजे में तहलील होना,
रहने दो मीठा भरम कि दिल हाथ मिलाने से मिले,

हर सिम्त है ख़ुद को राजा कहलवाने का मुक़ाबला
हर्ज़ क्या ताज ओ तख़्त झूठी क़सम खाने से मिले,

नक़्श ए दुनिया में उसी की तूती बोलती है हर तरफ़
कौन देखता है कि ओहदा ए ख़ास बरगलाने से मिले,
- - शांतनु सान्याल

29 दिसंबर, 2023

ख़्वाबों की ताबीर - -

नक़्श ए जीस्त मेरा हमेशा ही बेतरतीब रहा
बारहा भुलाया जिसे बारहा वो नज़दीक रहा

ज़ीनत ए फ़लक़ में यूँ तो हैं सितारे बेशुमार
अमावस में भी वो अंदर तक मेरे शरीक रहा

ख़्वाबों के घर, बिखरे ताश के पत्तों की तरह
कभी ख़ुशी बेशुमार कभी उजड़ा नसीब रहा

किसी और का था वो गुमशुदा कोई ख़ज़ाना
उम्र भर वो तोहफ़ा दिल के बहुत क़रीब रहा

मोतियों का सफ़र रहा साहिल से ताज तक
रेत की दुनिया में इक तन्हा बेजान सीप रहा

बहुत कठिन है जीवन में ख़्वाबों की ताबीर
दास्तां ए इश्क़ दिलकश के संग अजीब रहा
- - शांतनु सान्याल

27 दिसंबर, 2023

रात की उतराई - -

जराजीर्ण देह के साथ उतरती है रात, घाट की सीढ़ियों से सधे पांव, स्थिर नदी की गहराइयों में, बूढ़ा पीपल का पेड़ 
अंधेरे में तलाशता है एक मुश्त 
रौशनी, एकांत की गहन
तन्हाइयों में । न जाने
कितने ही रहस्य 
खुलने से
पहले
ही
दफ़न हो जाते हैं सीने के अंदर, सूख जाती
हैं भावनाएं अनाम मरूबेल की तरह, 
वक़्त अपना महसूल, वसूल कर
जाता है नक़ली मेघ की 
परछाइयों में, बूढ़ा
पीपल का पेड़ 
अंधेरे में 
तलाशता है एक मुश्त रौशनी, एकांत की गहन तन्हाइयों में । फ़र्श में बिखरे पड़े
रहते हैं प्रेम - घृणा के श्वेत - श्याम 
मोहरें, कुछ कांच के लिबास,
खण्डित मोह के रेशमी
धागे, उतरे हुए
मुखौटे, और
निर्वस्त्र
संदली काया, निमज्जित सूर्य तब चाहता है रात की क़ैद से मुक्त होना, सुबह हम
तलाशते हैं ज़िन्दगी को रहस्यमयी
कहानियों में, जराजीर्ण देह के 
साथ उतरती है रात, घाट 
की सीढ़ियों से सधे 
पांव, स्थिर नदी 
की गहराइयों 
में ।
- - शांतनु सान्याल

 

26 दिसंबर, 2023

मूकाभिनय

सब कुछ ढक देती है शब्दहीन मुस्कुराहट,
भीगे पलकों में उभर आते हैं असंख्य
जल कण, स्थिर अपनी जगह
हिमांक बिंदु की ओर
अग्रसर, बहुत
कुछ न
चाह
कर भी हलक़ के पार उतारने का नाम ही
है ज़िन्दगी, कोई परछाई रौंद जाती
है वजूद को बार बार बेरहमी के
साथ, फिर भी हम नहीं
मरते, जी उठते हैं
बार बार, सिर्फ़
याद रहती
है दूर जाती हुई ख़ौफ़नाक सरसराहट, सब
कुछ ढक देती है शब्दहीन मुस्कुराहट।
दरअसल हम ज़रूरत से अधिक
प्रत्याशा लिए बैठे होते हैं
जबकि वक़्त की तेज़
रफ़्तार में छूट
जाते हैं
सभी
परिचित चेहरे, जनशून्य स्टेशन में तब - -
हमारे सिवा कोई नहीं होता, कोहरे
में ढके होते हैं जंगल - पहाड़,
नदी झरने, हदे नज़र
गुम होती हुईं रेल
की बेजान
पटरियां,
फिर
भी हम लौट आते हैं सुबह सवेरे उसी जगह
जहाँ मद्धम ही सही, लेकिन आती है
जीने की आहट, सब कुछ ढक
देती है शब्दहीन
मुस्कुराहट।
* *
- - शांतनु सान्याल

25 दिसंबर, 2023

अपरिभाषित मीठापन - -

मध्य रात के साथ शब्द संधान, समुद्र तट पर
उतरती है भीनी भीनी ख़ुश्बू लिए चाँदनी,
काले चट्टानों को फाँदता हुआ जीवन
छूना चाहता है परियों का शुभ्र
परिधान, इक सरसराहट
के साथ खुलते हैं
ख़्वाबों के बंद
दरवाज़े,
निःशब्द कोई रख जाता है ओस में भीगा हुआ
गुलाब, उन्मुक्त देह करता है गहन स्नान,
जीवन छूना चाहता है परियों का शुभ्र
परिधान। कभी कभी हमारे मध्य
ढह जाते हैं सभी सेतु बंध,
प्रणय प्रवाह में बह
जाते हैं सभी
प्रतिबंध,
और
कभी जाग उठता है अन्तर्निहित अभिमान, -
जीवन छूना चाहता है परियों का शुभ्र
परिधान। कुछ झिलमिलाते रेत
कण सोख लेते हैं जीवन
का खारापन, कुछ
आर्द्र अधर में
चिपके रहते
हैं कुछ
अपरिभाषित मीठापन, आँखों की गहराइयों
से गुज़र कर, हृदय छोर से हो कर, जारी
रहता है रूह तक शब्द विहीन महा
अभियान, जीवन छूना चाहता
है परियों का शुभ्र
परिधान।।
- - शांतनु सान्याल 
   

21 दिसंबर, 2023

ख़ुद से बाहर - -

इक बूंद पे ठहरी हुई ये ज़िंदगानी है,

बिलाउन्वान, सांसों की ये कहानी है,  

जज़्बात रहें दिल में, ख़ामोश दफ़न

मुस्कुराता चेहरा न आंखों में पानी है,

ज़िंदगी, ख़ुद तक महदूद नहीं होती 

फ़र्ज़ निभाना ही इंसां की निशानी है,

आईने से बेवजह है, हमें बदगुमानी

किरदार हमारा अक्स ए मेहरबानी है,

दिलो जाँ पे है क़ाबिज़ इश्क़ उनका

ये जज़्बात लेकिन मौजों की रवानी है,

कांच का है आशियाना, ग़ुरूर कैसा

पलभर की ख़ुशी ज़रा सी शादमानी है,

- - शांतनु सान्याल



 



20 दिसंबर, 2023

हाल ए दिल याद आया - -

बहुत कुछ कहना था उसके जाने के बा'द हाल ए दिल याद आया,

जब मझधार में डूबी चाहतों की कश्ती तब संग ए साहिल याद आया,

किस ने किस को दर किनार किया अब सोचने से फ़ायदा कुछ नहीं,

शीशा ए ख़्वाब टूटते ही, हद ए नज़र वो गुज़िश्ता कल याद आया,

वो मुहोब्बत जो रूह की गहराइयों तक पहुंचाए अमन की ने'मत,

आइने में अक्स लगे धुंधला सा तब ज़िंदगी का हासिल याद आया,

 - - शांतनु सान्याल


19 दिसंबर, 2023

ख़ामोशी मुसलसल - -

 

ज़रूरी नहीं हर इक मोड़ पे मनचाहा रहनुमा मिले,
मतलूब चाहतों के ख़ातिर धरती ओ आसमां मिले,

उठ गए रात ढले सितारों के रंगीन झिलमिलाते
ख़ेमे, कोहरे में बहोत मुश्किल है, गुज़रा हुआ
कारवां मिले, 

शहर वीरान है, दिल का सराय भी
उजड़ा उजड़ा सा, ज़रूरी नहीं हर किसी को दिलकश
कोई गुलिस्तां मिले,

ताउम्र भटकते रहे हम समंदर
के किनारे किनारे दूर तक, न कोई पता - ठिकाना
न ही रेत पर क़दमों के निशां मिले, 

ज़रूरी नहीं हर
इक मोड़ पे मनचाहा रहनुमा मिले ।
- - शांतनु सान्याल


18 दिसंबर, 2023

कहीं दूर निकल जाएं - -

कुछ इस तरह से रूह को छू लो 

कि ज़िन्दगी तासीर ए संदल हो जाए,

बियाबां के सुलगते राहों में इक दस्त

ए शफ़्फ़क़त भरा आँचल हो जाए,

इक अधूरी लकीर ए तिश्नगी, जो 

गुज़रती है दिल की राहों से कहीं दूर,

ग़र संग चलो हमराही बन कर तो

ज़िन्दगी का सफ़र मुक्कमल हो जाए,

खोजता हूँ नाहक़ अपने आसपास

बिखरे हुए नक़ली मोतियों की चमक,

ख़ुद के अंदर झांकते ही तमाम 

उलझनें अपने आप ओझल हो जाए,

रेत पे लिखे इबारतों की तरह इक

दिन मिट जाएंगे सभी रिश्तों के बेल,

लोग पुकारते रहें जिस्म चुपचाप 

उफ़क़ के पार दूर कहीं निकल जाए ।

- - शांतनु सान्याल

 




17 दिसंबर, 2023

मन्नतों का दरख़्त - -

आरती से घुमाई गई हथेली माथे पर आ रुक
जाए, रोज़ रात उतरना चाहता हूँ दिल
की गहराइयों में, क़दम बढ़ाते
ही कोहरे में चाँद है कि
छुप जाए, भीगे
पन्ने में
तलाशता हूँ जल - रंग शब्दों की अबूझ
पहेलियाँ, कुछ ख़्वाब रात के गहन
अंधेरे में टिमटिमाते रहे, कुछ
अपने आप ही बुझ जाए,
आरती से घुमाई
गई हथेली
माथे
पर आ रुक जाए । निःशब्द गिरती रही
रात भर ओस की बूंदें, इक
अजीब सी ख़ामोशी रही
दरमियां अपने, इक
गंध कोष जिस्म
के बहोत
अंदर
खुल के बिखरता रहा रात भर, मन्नतों
का दरख़्त काश ! दहकते सीने में
कुछ और झुक जाए, आरती
से घुमाई गई हथेली
माथे पर आ
रुक जाए ।
- - शांतनु सान्याल

16 दिसंबर, 2023

किसी मोड़ पे - -

 

न जाने कितने मरहलों पे हम जीत के हार गए,
मेंहदी की तरह सूनी हथेली की उम्र संवार गए,

अंधेरों से है जन्मों की निस्बत जलते रहे बूंद बूंद,
कुछ भी न था हमारा लिहाज़ा सब कुछ वार गए,

इक दरिया की तरह बहती रही ज़िंदगी रफ़्ता रफ़्ता,
डूबते उभरते सांसों के, इस पार कभी उस पार गए,

वक़्त के साथ, ख़ौफ़ ए मौत भी चला जाता है,
हज़ारों चाहतें थी, हज़ार बार ख़ुद को मार गए,

न जाने कितने मरहलों पे हम जीत के हार गए ।

- - शांतनु सान्याल

13 दिसंबर, 2023

कुछ तो था दरमियां अपने - -

 

नजूमी ने ज़िन्दगी भर, कई ख़्वाब दिखाए,

शदीद प्यास के आगे, गहरा सराब दिखाए,

सीलन भरे कमरे में तन्हा दीया बुझता रहा,

शबनमी बूंदों में, अक्स ए माहताब दिखाए,

जब कभी हम ने इक ख़ुशगवार लम्हा चाहा,

मज़हबी ठेकेदार ने पोशीदा अज़ाब दिखाए,

हर रोज़ ज़िन्दगी ने नई उम्मीद से दस्तक दी,

रात फिर पुराने बोतल में नया शराब दिखाए,

कुछ तुम थे ज़रा बरहम कुछ हम गुमसुम से,

फिर भी वक़्त ने इश्क़ को लाजवाब दिखाए,

- - शांतनु सान्याल

11 दिसंबर, 2023

कोई राज़दां नहीं - -

कहने को लोग मिलते रहे लेकिन कोई दर्द शनासा न मिला,
जिसे समझे राज़दां अपना वही आख़िर में अजनबी निकला,

अजीब सी वो लफ़्ज़ों की पहेली उलझा गई ख़ुलूस ए ज़िन्दगी,
नुक़्ता ए आग़ाज़ पे लौट कर आता रहा वो वहम ए सिलसिला,

अक़ीदतों की कमी ज़रा भी न थी जाने क्यूँ वो अनसुना ही रहा,
बेमानी रही उम्र भर की कोशिशें वो पत्थर था ज़रा भी न हिला,

कहने को लोग मिलते रहे, लेकिन कोई दर्द शनासा न मिला ।

- - शांतनु सान्याल






09 दिसंबर, 2023

कोई शिकायत नहीं - -

उतर चला है चेहरे से रंग ओ रोगन,
अब आईने से शिकायत भी न रही,

न कशिश बाक़ी, न कोई बेक़रारी, अब
पहली सी वो मुहोब्बत भी न रही,

वो तमाम सब्ज़ पत्तों का ठिकाना पूछता
है पतझर का एक तन्हा मुसाफ़िर,

बहुत मुश्किल है उसके दर तक पहुंचना
दरअसल अब वो सदाक़त भी न रही,

किस पे करें यक़ीन, हर एक मोड़ पर हैं
हज़ार स्वांगों का बढ़ता हुआ जुलूस,
मन्नतों के पत्थर दरख़्त पे हैं
बेजान से लटके दिलों में
वो सच्ची नियत भी
न रही, उतर
चला है
चेहरे से रंग ओ रोगन, अब आईने से
शिकायत भी न रही ।

- - शांतनु सान्याल

06 दिसंबर, 2023

ख़मोशी के उस पार - -

 

सूरज डूबते ही, जाग जाती है वहशी रात,

बस दिन ही गुज़रा, जस के तस हैं हालात,


लुकाछुपी का खेल ही तो है जीने का फ़न,

ख़मोशी के उस पार है पुरअसरार की बात,


शिकारी की निगाह है नुक़्ता ए मक़सद पर,

आसां नहीं पाना, ओझल जालों से निजात,


शीशा टूटे या जिस्म आवाज़ जाती है बिखर,

अंदरुनी ज़ख्मों को, भर नहीं पाती बरसात,


धुंधली सी दूरी रहती है समानांतर चलते भी,

कहने को चलते रहे, उम्र भर हम साथ साथ,

- शांतनु सान्याल

04 दिसंबर, 2023

तलाश - -

बहुत कुछ हो कर भी कुछ भी न था हमारे
दरमियां, चंद लफ़्ज़ों का था अफ़साना,
उम्र भर खोजते रहे जिसका उन्वान,
दूर रह कर भी बहुत गहरी थीं
दिल की नज़दीकियां ।
हमने निभाई है हर
एक मोड़ पे
ज़िन्दगी
से हमआहंगी, ये दिगर बात है कि हर
क़दम में पे पाई है नाकामी, कोई
तिलस्म सा है उसकी आंख
की गहराई में, मुझे
मरने नहीं देतीं
उस ख़ामोश
चेहरे की
पहेलियां, बहुत  कुछ हो कर भी कुछ
भी न था हमारे
दरमियां ।

- शांतनु सान्याल


बिन शीशे का आईना - -

 

इक रहगुज़र जो अपनी जगह है मुस्तकिम
कहने को उम्र ए क़ाफ़िला कब का गुज़र
चुका, ढूंढता हूँ अक्स अपना बिन
शीशे के आइने में, अब मरहम
ए रौशनी का क्या करूं जब
गहरा दर्द वक़्त के साथ
कब का भर चुका,
कहने को उम्र
ए क़ाफ़िला
कब का
गुज़र
चुका ।
धुँधभरे पर्दों के पार कहीं बहती है वादी
ए उम्मीद की नदी, आज भी रात
ढले खिलते हैं कुछ बेनामी
फूल, यूँ तो मुद्दत हुए
अहाते  वाला
मोगरे का
पौधा
मर चुका, कहने को उम्र ए क़ाफ़िला
कब का गुज़र चुका ।

- शांतनु सान्याल

24 नवंबर, 2023

शून्य हिस्सा - -

 तक़सीम का दायरा था हद ए नज़र के पार,

बिखरना लिखा था तक़दीर में हर एक बार,


कुछ भी न रहा नज़दीक इक सांस के सिवा,

चिराग़ बुझ चले हैं न रहा किसी का इंतज़ार,


वादियों में बिछ चले हैं, सुदूर गुलों के चादर,

किसी के लिए नहीं रुकता रस्म ए कारोबार,


हर किसी की होती है अलग अलग तरजीह,

भला बुरा जो भी हो, हम ख़ुद हैं जवाबदार, 


कोई वादा नहीं निभाता सभी रिश्ते हैं रस्मी,

यहां किसी को नहीं किसी से कोई सरोकार,


सभी सच जान कर, भी ज़िंदगी रुकती नहीं,

निरंतर आसमां में सजता है तारों का दरबार,


- शांतनु सान्याल

23 नवंबर, 2023

विदूषक की तरह - -

किसी अंधकूप की तरह, सीने में सुबह की धूप छुपा रखी थी,
प्रेम था या अथाह अंधकार नम आँखों में दीप जला रखी थी,

अदृश्य फैली हुई बाहें थीं, या झूलती मोह की जर्जर सीढ़ियां,
जीवन - मरण के मध्य कुछ ही पलों की दूरत्व बना रखी थी,

मद्धम रौशनी ऐसी जिसे परिभाषित करना भी साध्य के परे था,
सत्य मिथ्या के रंगों को उस ने, इस तरह एकत्र मिला रखी थी,

आवेश के वो क्षण, जो दिग्भ्रमित कर जाएं मायामृग की तरह,
शिकारी ने सूखे पत्तों के नीचे, जानलेवा ज़ंजीर बिछा रखी थी,

किसी और के हाथों है डोर, नियति को कोसती रही कटी पतंग,
ज़हर बुझे तीरों के मध्य, इक बूंद जीने की चाह मिला रखी थी,

ज़िन्दगी भर यूँ तो चलता रहा, जीत हार का अंतहीन सिलसिला,
विदूषक की तरह, हम ने भी चेहरे पर कुछ जलरंग लगा रखी थी।
- शांतनु सान्याल
 

21 नवंबर, 2023

जीने की चाह - -

 न जाने कितने अभियोग, न जाने कितनी

सज़ाएं, हज़ार कोड़ों के अदृश्य

निशान, फिर भी जीने की 

चाहत कम नहीं होती,

पैरों में जकड़े हों 

चाहे जितने

भी जंज़ीर

ज़िन्दगी

के रास्ते हैं अंतहीन अपनी जगह, असंख्य

विश्वासघात, मृगतृष्णा के कुहासे हैं दूर

तक, कांच के टुकड़ों पर नाचती

है ज़िन्दगी लहूलुहान क़दमों

से, फिर भी दिल की

झोली से शबनमी

राहत कम नहीं

होती, फिर 

भी जीने 

की 

चाहत कम नहीं होती ।

- - शांतनु सान्याल


11 नवंबर, 2023

प्रीत के दीये - -

हिसाब किताब अर्थहीन सभी अंतमिल हैं  बेमानी,

सूखे रिश्तों के बेल, दूर तक है, छायी हुई वीरानी,

ताहम दिल को रहता है, रौशन शाम का इंतज़ार,

दीये जलाओ प्रीत के, लहरों में बसी है ज़िंदगानी,

न जाने किस बूंद पे है ठहरा हुआ तुम्हारा ग़ुरूर,

कौन रहा अनंतकाल तक बस कुछ पल की है रवानी,

- शांतनु सान्याल

04 नवंबर, 2023

चाहतों का असर - -

चाहे कोई कितना भी
उठ जाए आसमां 
की ओर,
हर हाल में उसे लौटना
है इक दिन धूसर
जहां की
ओर।
वो तमाम रंग रोगन,
रफ़्ता-रफ़्ता हो
चले हैं फ़ीके,
ज़िन्दगी
बढ़ चली है फिर आज,
किसी अदृश्य
मेहरबां
की
ओर। तुम्हारी चाहतों
का असर है जो
अपनी उम्र
लम्बी
हो गई, वरना कब से
हम भी गुज़र
जाते
सुदूर जाते कारवां की
ओर।
* *
- शांतनु सान्याल


03 नवंबर, 2023

कोई तुझसा नहीं - -

गुज़िश्ता रात की बारिश,
और आख़री पहर में
यूँ नींद का टूट
जाना,
कोई दस्तक गुमशुदा
अक्सर हमें सोने
नहीं देता।
हमारे
इतराफ़ है हर इक चीज़
यूँ तो ख़ूबसूरत और
दिलकश, फिर
भी न
जाने क्यूँ दिल है कि
किसी और का
होने नहीं
देता।
ये तुम्हारे चाहत का
जुनून है, या
परवाने
की आख़री उड़ान, हर
हाल में हमें यूँ धुंध
में खोने नहीं
देता।
अक्सर मैं लौट आता
हूँ यूँ ही ख़ाली हाथ
बाग़ ए अर्श से,
तेरा इश्क़
बेनज़ीर,
कोई और फूल, दिल
की धड़कनों में
पिरोने नहीं
देता। 

* *
- शांतनु सान्याल

02 नवंबर, 2023

कहीं वो ही न हो - -

फिर पा जंज़ीर चल
पड़ा हूँ तनहा,
सुना है
तेरी रौशन गली में
है तहरीक ए
अंधेरा।
फिर सज चले हैं
मीनाबाज़ार
शाम
ढले, फिर मुझे
तमाशबीनों
ने आ के
है घेरा।
बिछी है तमाम
रास्ते शतरंज
ए बिसात,
मोहरों
में कौन है सांप
और कौन
सपेरा।
कहना है मुश्किल
कहीं वो  ही
न हो
मेरा क़ातिल, जिसने
मुद्दतों से मेरे
आस्तीं पे
बना
रखा है अपना डेरा।

* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/

13 अक्तूबर, 2023

मानवता ही सत्य धर्म है - -

ये कैसी अजीब सी संवेदना है जो अपने
बच्चों तक आ कर रुक जाती है, ये
कैसी बर्बरियत है जो धर्म के
नाम पर दूसरों के बच्चों
का करते हैं क़त्लेआम,
ये कैसी इंसानियत
है जो निरीह
लोगों
की निर्मम हत्या करने के बाद उत्पीड़न
का रोना रोते हैं, ये कैसा अहंकार है
जो सारी पृथ्वी को अपना दास
बनाना चाहे, आम लोगों
के शवों को रौंध
कर शांति का
पाठ पढ़ाए,
सम्पूर्ण
विश्व
को चाहिए ऐसे आसुरी शक्ति से मुक्ति -
हर एक मानव को चाहिए जीने का
अधिकार, और इन पाशविक
शक्तियों से लड़ने के
लिए उन सभी
धर्मों को
एक
छत्र होना ही पड़ेगा ताकि इस दुनिया की
ख़ूबसूरती बनी रहे, जो मासूम बच्चों
का गला काटे वो मानव नहीं
नर पिचाश है उसका
अंत निश्चित
है - - -
- - शांतनु सान्याल


04 अक्तूबर, 2023

मिलन निश्चित है - -

फिर लौट आएंगे ठीक उसी जगह,

जहां शारदीय आकाश गले
मिलता है सफ़ेद कांस
फूलों से, कगार
से दूर धीरे
धीरे
नदी खिसकती जाती है छोड़ कर
रेत का अतीत, देह की गहनता
में कहीं आज भी धंसा हुआ
है लंगर शूल, विलुप्त
जंज़ीर कदाचित
पा जाए दूर
अटके
हुए
नाव को, फिर लौट आएंगे उसी
जगह एक दिन जहां घाट की
आख़री सीढ़ी पर तुमने
कहा था अलविदा,
अंतर्यात्रा का
कोई अंत
नहीं
बस पोशाक का है अनवरत बदलाव,
तुम प्रतीक्षा करो या न करो, लेकिन
तै है कहीं किसी अज्ञात मोड़ पर
हम ज़रूर मिल जाएंगे किसी
और रूप में, किसी और
योनि में, कदाचित
कुहासे भरे
बिहान
में सुदूर उड़ते हुए सारस बन कर या
आंगन में बिखरे हुए पारिजात
के मध्य विलीन ओस बूंद
बन कर, लेकिन
मिलना तो
निश्चित
है ।
- शांतनु सान्याल









30 सितंबर, 2023

स्पर्शानुभूति - -


कोई बहाना चलो खोंजे, मधुमास की
वापसी में है, बहुत देर अभी, इक
अहसास जो भर जाए रिक्त
ह्रदय में हरित स्पर्श,
फिर है मुझे
तेरी
आँखों में कोई तलाश, किसी रास्ते में
यूँ ही चलें दूर तक, शायद कहीं न
कहीं मिल जाए ओस की
बूंदों का लापता
ठिकाना
या
कहीं से इक टुकड़ा सजल मेघ, उड़ -
आए, और कर जाए सिक्त
तृषित अंतरतम, चलो
खेलें बचपन के
विस्मृत
खेल,
फिर बाँध जाओ, स्नेह भरे हाथों से
मेरी आँखों में अपने आँचल की
छाँव, और दो आवाज़
धुंध भरी वादियों
से बार बार,
कुछ
तो जीवन में आये पुनः आवेग तुम्हें
नज़दीक से छूने की - -

* *
- शांतनु सान्याल


कहीं न कहीं - -

हर इक नज़र को चाहिए ख्वाबों की 
ज़मीं, हर इक के दिल में होता 
है, सहमा सहमा सा 
बचपना कहीं 
न कहीं, 
बुरा इसमें कुछ भी नहीं, कोई लम्हा 
जो बना जाए ज़रा सा जुनूनी !
हर इक वजूद में होता है, 
गिरना सम्भलना 
कहीं न 
कहीं, कोई नहीं दुनिया में इंसान - -
कामिल, हर शख्स चाहता है 
छद्म मुखौटे से निकलना

कहीं न कहीं, 
फ़लसफ़ों 
की वो 
उलझन भरी बातों से ज़िन्दगी नहीं 
गुज़रती, हर दिल चाहता है 
यहाँ,ज़रा सा बहकना 
कहीं न कहीं !

* * 
- शांतनु सान्याल 
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
dreamy pastel

25 सितंबर, 2023

ख़िराज ए शायरी - -

दुनिया की निगाहों से बच के निकलना
है बहोत आसां, मुश्किल हो बहोत
जब, अक्स चाहे सूरत ए हिसाब
अपना, वो आदमी जो
उम्र भर ओढ़ता
रहा जाली
चेहरा, आख़री वक़्त था बहोत बेबस - -
इक वाक़िफ़ आईने के लिए,
दरअसल, हम ख़ुद ही
लिखते हैं अपने
लिए ख़िराज
ए शायरी !
ज़िन्दगी भर का किरदार रहता है दर्ज,
नमूंदार आख़रीन नफ़स में - -

* *
- शांतनु सान्याल  

دنیا کی نگاہوں سے بچ کے نکلنا
ہے بهوت آساں ، مشکل ہو بهوت
جب، عکس چاہے صورت حساب
اپنا، وہ آدمی جو
عمر بھر اوڑھتا
رہا جعلی
چہرہ، آخری وقت تھا بهوت بے بس - -
اک واقف آئینے کے لئے،
دراصل، ہم خود ہی
لکھتے ہیں اپنے
لئے خراج
اے شاعری!
زندگی بھر کا کردار رہتا ہے درج،
نمودار آخرین نفس میں - -

* *
-  شانتنو سانیال



11 सितंबर, 2023

प्रवाहमान - -

रुख़्सत हो चुका अदृश्य तूफ़ान,
साहिल पे छोड़ कर बर्बादी के
निशान, फिर लौट आएंगे
इक दिन बेघर परिंदे,
मौसम बदलते
ही खुल
जाएगा बंद ख़्वाबों का आसमान,
पुनः लगेंगे नदी किनारे मेले,
बूढ़े बरगद की शाखों में
फिर सजेंगे नए घरौंदे,
ऋतु चक्र कभी
रुकता नहीं,
किसी
के रहने या न रहने से कारोबार ए
दुनिया थमता नहीं, मंदिर के
सांध्य प्रदीप के साथ ही
सुबह का होता है
नया आह्वान,
कोई न
कोई
रहता है अदृश्य तत्पर ख़ाली स्थान
भरने के लिए, ज़िन्दगी पूरा
मौक़ा देती है बिखर कर
दोबारा संवरने के लिए,
नदी के जलधार सदा
रहते हैं प्रवाहमान ।
रुख़्सत हो चुका
अदृश्य तूफ़ान,
साहिल पे
छोड़
कर बर्बादी के निशान ।
- शांतनु सान्याल 

न बुझाओ चश्म ए शमा - -

न बुझाओ चश्म ए शमा इतनी जल्दी, 

सितारों की महफ़िल में है कुछ 
विरानगी अब तलक, न 
गिराओ राज़ ए 
पर्दा इस 
तरह वक़्त से पहले कि गुलों में हो 
वहशत बेवजह, अभी तो इक 
तवील ख़ुश्बुओं का सफ़र 
है बाक़ी, हमने कहाँ 
सिखा है अभी 
तक इक 
मुश्त मुस्कुराना, रहने दो यूँ ही बूंद 
बूंद इश्क़ ए नूर का टपकना, कि 
तपते ज़िन्दगी को कुछ 
तो संदली अहसास 
हो, खुले रहें 
कुछ देर 
और तुम्हारे निगाहों के दरीचे कि -
ज़िन्दगी महकना चाहती है 
आख़री पहर तक यूँ 
ही मद्धम - मद्धम,
लम्हा - लम्हा,
दम ब 
दम सुबह होने तलक, न बुझाओ 
चश्म ए शमा इतनी जल्दी, 
सितारों की महफ़िल 
में है कुछ विरानगी अब तलक - - -

* * 
- शांतनु सान्याल 
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07 सितंबर, 2023

दुनिया की सच्चाई - -

सजल पलकों के किनारे, ये कैसा
शहर बसा गया कोई। सरहद
पार करने की तमन्ना
निकली बहोत ही
महलक,
सुबह से पहले, चारों तरफ़  कँटीले
तार, लगा गया कोई। उमर
इन ख़्वाबों की कभी
लम्बी होती
नहीं
कांच की तरह, रेशमी पंख ओढ़ने -
से पहले जिस्म ओ जां जगा
गया कोई। ये सर ज़मीन
ही मेरा है, पहला और
आख़री पनाहगाह,
आईने की
तरह
बेबाक, मयार ए  हैसियत बता - -
गया कोई। मुझे अपने
तजुर्बा ए ज़िन्दगी
पे बेहद नाज़
था लेकिन -
चंद
बूंदों में सिमटी हुई, दुनिया की
सच्चाई दिखा गया कोई।

* *
- शांतनु सान्याल




 

01 सितंबर, 2023

अशेष अंतर्यात्रा - -

समयानुसार हर चीज़ होते जाती है आवरणविहीन,
वयोवृद्ध वृक्ष, जीर्ण पत्तों का करते हैं परित्याग,
प्रकृत सत्य है परिवर्तन, ऋतु हो या अहिराज,
जन्म - मृत्यु के इस चक्र में एक रेखा
रहती है बहुत ही नाज़ुक सी
महीन, समयानुसार हर
चीज़ होते जाती है
आवरणविहीन।
कमर बंध
में गुथे
रहते हैं मोह के कानी कौड़ी, निर्वस्त्र देह से लिपटे
रहते हैं अतृप्त, अदृश्य अग्नि कण, हृदय कोण
में छुपे रहते हैं अनगिनत अभिलाषों के
अंधकार, अतिरिक्त चाह के लिए
अंतरतम करता है हाहाकार,
तमाम रात्रि अविराम
यात्रा, फिर भी
सुबह का
नहीं मिलता
कोई
सुराग, सब कुछ मिलने के बाद भी -
शून्यता करती है विराज, दरअसल हम
ख़ुद से ख़ुद को नहीं कर पाते हैं
आज़ाद, अंतर्यात्रा रहती है
यथावत अंतहीन,   
समयानुसार
हर चीज़
होते
जाती है आवरणविहीन - -
- शांतनु सान्याल
 

30 अगस्त, 2023

मुसाफ़िर - -

कहीं न कहीं हम सभी हैं
मुसाफ़िर इक रात के,
कभी रुपहली
शब में
और कभी ज़ुल्मात में - -
किसे ख़बर क्या
मानी रहे
अपनी
 मुलाक़ात के। कुछ
तिश्नगी ऐसी
 कि बुझाए
तो उम्र
गुज़रे - - कुछ आग
रहे ताउम्र ज़िंदा
गुजिश्ता
बरसात के। तुम्हारी
निगाह में जो
हम इक
बार क़ैद हुए - - अब
दीन ओ दुनिया,
फ़क़त हैं मौज़ू
जज़्बात
के।

* *
- शांतनु सान्याल


26 अगस्त, 2023

हम और आप - -


हर शख़्स कहीं न कहीं होता
है ज़रा सा वादा ख़िलाफ़,
अपने अंदर से बाहर
निकल आना,
इतना भी
नहीं आसां, हर इक वजूद - -
रखता है अपना ही
पोशीदा लिहाफ़ !
न दोहराओ,
फिर वही
उम्र भर जीने मरने की बातें,
पल भर की मुलाक़ातों
से नहीं मुमकिन,
यूँ रूहों का
मिलाप।
ये नेह के नाज़ुक बंधन हैं या
रस्म ए दुनिया की जंज़ीरें,
इक अनजाने
रस्साकसी
में जकड़े हुए से हैं हम और - -
आप।

* *
- शांतनु सान्याल 


19 अगस्त, 2023

इस छोर से उस अंत तक - -


सूरज की है अपनी ही -
मजबूरी, शाम से
पहले उसका
डूबना है
ज़रूरी। जीवन की नाव,
और अंतहीन बहाव,
फिर भी घाट
तक
पहुंचना है ज़रूरी। जले
हैं मंदिर द्वार के
दीप, गहन
अंधकार
है बहुत समीप, फिर भी,
किसी तरह से अंतर्मन
को छूना है
ज़रूरी।
मल्लाह और किनारे के
दरमियान, शायद था
कोई अदृश्य
आसमान,
इस
छोर से उस अंत तक,
हर हाल में जीवन
का बहना है
ज़रूरी।

* *
- शांतनु सान्याल

13 अगस्त, 2023

ज़रा सी ज़िन्दगी

इक आहट, जो दूर किसी ख़ामोश
गुफाओं से निकल कर, दिल
पे दस्तक सी दिए जाती
है, कुछ मासूम चेहरे,
हसरत भरी
निगाहों से -
से तकतें हैं, छलकती बूंदों में
कहीं, शाखों से फूल  के
शक्ल  में खुशियाँ  
बरसती  हैं, जी  
करता  है-
बिखेर  
दें,
वो  तमाम  ख़्वाब जो कभी  
हम ने  बुनी  थीं ख़ूबसूरत
ज़िन्दगी के लिए, इक
हलकी सी मुस्कराहट
में उम्र भर का
हासिल
तलाश करें और क्या बहोत
चाहिए इस ज़रा सी ज़िन्दगी
के लिए -
- - शांतनु सान्याल

 

11 अगस्त, 2023

काग़ज़ की नाव

बहा दिए हम ने वो सभी काग़ज़ की कश्तियां,
साहिल में टूटी पड़ी हुई हैं ख़्वाबों की रस्सियां,
मिट्टी के खिलौने बिखरे पड़े हैं दूर तक
बेतरतीब,
मुंडेर पर रोज़ उतरता है चांद, शीशे की
हैं सीढ़ियां,
फिर लौट कर उसी जगह पे काश हम
पहुंच पाते,
जहां पर आज भी हैं आबाद जुगनुओं
की बस्तियां,
बीते लम्हों के मोती जलते बुझते से हैं
नदी किनारे,
राहत ए जां है उम्र की ढलान में इश्क़
की परछाइयां ।
- शांतनु सान्याल


उन्मुक्त उड़ान - -

निर्बंध भावनाएं चाहती हैं उन्मुक्त 

उड़ान, रहने दे कुछ देर और 
ज़रा, यूँ ही खुला अपनी 
आखों का ये नीला 
आसमान !
निःशब्द अधर चाहे लिखना फिर 
कोई अतुकांत कविता, बहने 
दे अपनी मुस्कानों की,
अबाध सरिता, 
टूटते तारे 
ने बिखरते पल में भी रौशनी का 
दामन नहीं छोड़ा, ये और 
बात है कि अँधेरे की 
थी अपनी कोई 
मजबूरी,
उन अँधेरों से निकल ज़िन्दगी फिर 
चाहती है नए क्षितिज छूना।

* * 
- शांतनु सान्याल 

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09 अगस्त, 2023

चाँद तारों की महफ़िल - -

जब उठी रात ढलते, चाँद तारों की
महफ़िल, जब झरे शाख़ों से
आख़री गुल ए शबाना,
तब तलक जलते
रहे दिल में
नूर अज़
दरिया के मानिंद, इश्क़ ए फ़ानूस,
न पूछ ऐ दोस्त, कैसे गुज़रे
वो महलक लम्हात !
हर सांस में हो
गोया इक
नया अहसास ए ज़िन्दगी, हर इक
नज़र को हो जैसे सदियों की
प्यास ! ये सच है कि
तुम न थे कल
रात यूँ तो
मेरे साथ, फिर भी न जाने क्यूँ, यूँ
लगता है तुम ज़रूर थे मेरे
आसपास चाँदनी में
तहलील, जब
उठी रात
ढलते, चाँद तारों की महफ़िल - - -

* *
- शांतनु सान्याल


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by Marilyn Hageman Contemporary Floral Art

06 अगस्त, 2023

अपना बना गया कोई

मजरूह साँस रुके तो ज़रा ऐ दोस्त,
बेख़ुदी में न जाने क्या कह गया कोई,
किसी की आँखों में थी ज़िन्दगी
सरे बज़्म वसीयत बयाँ कर गया कोई,
झुकी पलकों में लिए राज़ गहरा
घावों को फिर परेशाँ कर गया कोई,
कच्ची दिल की हैं मुंडेरें हमदम
सीड़ियों में आसमां बिछा गया कोई,
बेरंग दीवारें जैसे नींद से हैं जागे
फूलों के चिलमन सजा गया कोई,
उम्र भर की हसीं लड़खड़ाहट है
या यूँ ही अपना बना गया कोई,
बेख़ुदी में न जाने क्या कह गया कोई ।
-- शांतनु सान्याल

03 अगस्त, 2023

दो लफ्ज़ - -

नज़र के परे भी वो मौजूद, निगाह के 

रूबरू भी ! इक अजीब सा ख़याल
है, या कोई हक़ीक़ी आइना !
ज़िन्दगी हर क़दम 
चाहती है ख़ुद -
अज़्म की 
गवाही, कोई कितना भी चाहे, नहीं -
मुमकिन क़िस्मत से ज़ियादा
हासिल होना, मुस्तक़िल
है मंज़िल, फिर क्यूँ 
परेशां है ये नज़र 
की आवारगी।
- शांतनु सान्याल   
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 ख़ुद - अज़्म - स्व आकलन 
मुस्तक़िल - स्थायी 

31 जुलाई, 2023

स्व - प्रतिबिम्ब !

उभरते हैं हृदय कमल से कुछ मौन - -

पंखुड़ियां, लिए अंतर में नव 
मंजरियाँ, खिलते हैं 
बड़ी मुश्किल 
से अश्रु 
जल में डूबे सुरभित भावनाएं, जिनमें 
होती हैं अनंत गंध मिश्रित कुछ 
कोमल अभिलाषाएं, एक 
ऐसी अनुभूति जो 
जग में फैलाए 
मानवता 
की असीम शीतलता, जो कर जाए - -
भाव विभोर हर एक वक्षस्थल,
जागे आलिंगन की पावन 
भावना, मिट जाएँ 
जहाँ अपने 
पराए 
का चिरकालीन द्वंद, दिव्य सेतु जो 
बांधे नेह बंध, जागे हर मन में 
विनम्रता की सुरभि, हर 
चेहरा लगे स्व -
प्रतिबिम्ब !
* * 
- शांतनु सान्याल 
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29 जुलाई, 2023

जीवन अनुवाद - -

कुछ और भी
हैं बांध्य भूमि, अधखिले जीवन,
बबूल से बिंधे कई झूलते पतंग, तुम्हारे 
व मेरे मध्य छुपा हुआ सामीप्य -
जो आवधिक है शायद जिसे 
अनुभव तो किया जा
सके देखना हो 
कठिन, 
देह से निकल कर सोच कहीं गुम न हो जाए, -
जीवन चाहता है बहुत कुछ जानना, 
महसूस करना, तुम वो गंतव्य 
नहीं जहाँ आवाज़ तो जाए 
मगर दस्तख़त कर, 
यूँ ही लौट आए 
सहसा, 
चाहता है मन सजल मेघ अणु बनना, उन 
कुम्हलाये पंखुड़ियों से है पुरानी
प्रतिबद्धता, भावनाओं का 
अनुबंध, मानवीय -
संधि, मैं नहीं 
चाहता 
किसी तरह भी प्रेम में संधिविग्रह, ये सच है 
की मेरी साँसें अब भी उठती हैं किसी 
के लिए बेचैन हो कर किन्तु वो 
तुम ही हो ये कोई ज़रूरी नहीं,
आँखों के परे जो दर्पण 
है खड़ा एकटक, वो 
कोई नहीं मेरा 
ज़मीर है,
जो दिलाता है याद, करता है हर पल 
जीवन अनुवाद।

--- शांतनु सान्याल  





25 जुलाई, 2023

ख़ूबसूरत भरम - -


मिलो कुछ इस तरह खुल के, कि देर
तक महके दिलों के दरीचे, वो
अपनापन, जिसमें हो
अथाह पवित्र
गहराई !
खिलो कुछ इस तरह दिल से, कि - -
मुरझा के भी रहे ख़ुश्बूदार,
नाज़ुक जज़्बात !
तमाम रास्ते
यकसां
ही नज़र आए जब कभी देखा दिल की
नज़र से, ये बात और थी, कि
ज़माने ने लटकाए रखी
थी मुख़्तलिफ़
तख़्ती !
लेकिन, हमने भी दर किनार किया वो
सभी ख़्याल ए ईमान, इक
इंसानियत के सिवा,
तुम मानो या
न मानो,
इक यही सच्चा धरम है, बाक़ी कुछ भी
नहीं ये जहां, इक ख़ूबसूरत भरम
के सिवा।

* *
- शांतनु सान्याल




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painting  by Ann Mortimer

23 जुलाई, 2023

निर्लज्ज सभासद - -

वही चिर परिचित द्युतसभा, वीभत्स अट्टहास,
पश्चिमान्त से ले कर उत्तर पूर्वान्त,
अंधत्व रहता है यहाँ बारह मास,
भीड़ के चेहरे भिन्न रंगों में
हैं सरोबार, कभी गेरुआ
कभी तीन रंगों में
है वो एकाकार,
भीष्म हो
या धृतराष्ट्र, हर युग में द्रौपदी का ही होता है - -
निर्मम शिकार, अंधत्व और नीरवता के
मध्य मेरुदंड विहीन समाज में
अथक जीने का प्रयास,
वही चिर परिचित
द्युतसभा,
वीभत्स
अट्टहास। इस साम्राज्य की अपनी अलग ही है
विशेषता, कहने को सारा विश्व है अपना
लेकिन पांवों तले कोई ज़मीं नहीं,
दीवारों पर लिखे उपदेश
पलस्तर के संग
उतर गए,
आईना
दूसरों को दिखाने वाले ख़ुद अपना अक्स भूल
गए, वक़्त के साथ विशाल बरगद की
टहनियों से सभी पत्ते निःशब्द
झर गए, बाक़ी रहा सिर्फ़
दोषारोपण का
बकवास,
वही चिर परिचित द्युतसभा, वीभत्स अट्टहास।
- शांतनु सान्याल  

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