नज़र के परे भी वो मौजूद, निगाह के
रूबरू भी ! इक अजीब सा ख़याल
है, या कोई हक़ीक़ी आइना !
ज़िन्दगी हर क़दम
चाहती है ख़ुद -
अज़्म की
गवाही, कोई कितना भी चाहे, नहीं -
मुमकिन क़िस्मत से ज़ियादा
हासिल होना, मुस्तक़िल
है मंज़िल, फिर क्यूँ
परेशां है ये नज़र
की आवारगी।
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
ख़ुद - अज़्म - स्व आकलन
मुस्तक़िल - स्थायी
ज़िन्दगी हर क़दम
जवाब देंहटाएंचाहती है ख़ुद -
अज़्म की
गवाही....
अच्छा लगा आपका यह ब्लॉग
आपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीया मित्र
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०६-०८-२०२३) को 'क्यूँ परेशां है ये नज़र '(चर्चा अंक-४६७५ ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंबहुत सुंदर 🙏
जवाब देंहटाएंआपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंचाहती है ख़ुद -
जवाब देंहटाएंअज़्म की
गवाही
वाह!!!
बहुत सुन्दर...
आपका हृदय तल से आभार ।
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