03 अगस्त, 2023

दो लफ्ज़ - -

नज़र के परे भी वो मौजूद, निगाह के 

रूबरू भी ! इक अजीब सा ख़याल
है, या कोई हक़ीक़ी आइना !
ज़िन्दगी हर क़दम 
चाहती है ख़ुद -
अज़्म की 
गवाही, कोई कितना भी चाहे, नहीं -
मुमकिन क़िस्मत से ज़ियादा
हासिल होना, मुस्तक़िल
है मंज़िल, फिर क्यूँ 
परेशां है ये नज़र 
की आवारगी।
- शांतनु सान्याल   
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
 ख़ुद - अज़्म - स्व आकलन 
मुस्तक़िल - स्थायी 

9 टिप्‍पणियां:

  1. ज़िन्दगी हर क़दम
    चाहती है ख़ुद -
    अज़्म की
    गवाही....

    अच्छा लगा आपका यह ब्लॉग

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०६-०८-२०२३) को 'क्यूँ परेशां है ये नज़र '(चर्चा अंक-४६७५ ) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  3. चाहती है ख़ुद -
    अज़्म की
    गवाही
    वाह!!!
    बहुत सुन्दर...

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