30 सितंबर, 2021

विलुप्त नदी - -

तृण शीर्ष पर कुछ ओस बूंद, देते
हैं आख़री सहारा झरते हुए
पारिजात को, दूरत्व
तो होता है बस
एक बहाना,
हर कोई
चाहता है ज़िन्दगी को नए सिरे से
सजाना, मीठी सी धूप ग़र
पसरी पड़ी हो अहाते
में दूर तक, कौन
याद रखता
है लौटी
हुई
बरसात को, तृण शीर्ष पर कुछ ओस
बूंद, देते हैं आख़री सहारा झरते
हुए पारिजात को। सुदूर
क्षितिज की ओर एक
सूखी सी नदी जा
मिलती है
किसी
अनाम मरु देश में, किनारे पर खड़े हैं
प्रागैतिहासिक पल्लव विहीन
वृक्ष साधुओं के वेश में,
पद चिन्हों के
जीवाश्म
भूल
चुके हैं सदियों पुरानी याद को, तृण
शीर्ष पर कुछ ओस बूंद, देते
हैं आख़री सहारा झरते
हुए पारिजात
को।
* *
- - शांतनु सान्याल

 

28 सितंबर, 2021

आत्म दीपो भवः - - -

अदम्य जिजीविषा हर एक वृत्त से
निकल कर, उन्मुक्त हो कर
हर एक परिधि लांघ
जाती है, उस
केंद्र बिंदु
में रह
जाते हैं सिर्फ अवसाद भरे दिन, इस
अंधकार से मुक्ति दिलाता है
केवल अपना अंतर्मन,
शुष्क नदी पथ पर
होते हैं दूर तक
प्रस्तर खंड,
लेकिन
इन्हीं
के नीचे होते है भूगर्भस्थ जल स्रोत -
नदी सूखने से पूर्व अपने सीने
के अंदर एक झील बांध
जाती है, ज़िन्दगी
उन्मुक्त हो
कर हर
एक
परिधि लांघ जाती है। न जाने कितनी
बार मृत्यु को पुकारा मैंने, न
जाने कितने बार जीवन
ने डूबने से उबारा
मुझ को, हर
एक की
होती
है अपनी अलग अहमियत, सहज पथ
कहीं भी नहीं, दिवा निशि चलता
रहता हैं लेन देन, ये जान
कर भी कि कुछ भी
नहीं रहता है
हमेशा,
फिर
भी लोग चाहते हैं ज़रूरत से अधिक - -
संचय, काश अंदर का दीप जला
पाता, किसे ख़बर पुनर्जन्म
मिले न मिले दोबारा
मुझ को, न जाने
कितने बार
जीवन
ने
डूबने से उबारा मुझ को।  
* *
- - शांतनु सान्याल
 

  

25 सितंबर, 2021

तट रेखा का इतिहास - -

अंधकार में सो जाते हैं जब सभी स्मृति
अरण्य, हम तलाशते हैं झींगुरों के
मध्य, जुगनुओं की बस्तियां,
तमाम रात शंखमय  
अस्तित्व बहता
चला जाता
है तट
की
ओर, कौन किस की ख़बर रखता है यहाँ,
डूब जाती हैं मझधार में, न जाने
कितनी ही अनजान कश्तियां,
हम तलाशते हैं झींगुरों
के मध्य, जुगनुओं
की बस्तियां।
बुनते हैं
हम
अपने अदृश्य खोल के अंदर असंख्य -
छद्म परिधान, अंदर में दूर तक
होता है खोखलापन का
साम्राज्य, लेकिन
हम दिखाते
हैं बाहर
लोगों
को, अभिजात्य की मिथ्या आन - बान,
समय सब कुछ धीरे धीरे निगल
जाता है, ढह जाते हैं एक दिन
शानदार महल हो या
रंगीन हवेलियां,
इतिहास के
पृष्ठों में
खो
जाते हैं तथाकथित महान हस्तियां, हम
तलाशते हैं झींगुरों के मध्य,
जुगनुओं की
बस्तियां।
* *
- - शांतनु सान्याल   
 
 
 

24 सितंबर, 2021

आगंतुक - -

स्तब्धता के अंदर भी हैं अनेक स्तब्धता,
अश्वत्थ पल्लवों के अदृश्य सिहरन
में है कहीं, छुपे हुए आगंतुक
समीरण की दिशा, सब
कुछ घटता जाता
है प्रकृत लय
के साथ
कभी
हैं सुहावना दिन और कभी जीवन से - -
दीर्घ होती है महा निशा, अदृश्य
सिहरन में है कहीं, छुपे हुए
आगंतुक समीरण की
दिशा। किसी से
मिलने की
चाह में
हम
कई बार करते हैं चहलक़दमी रात भर,
और कई दफ़ा, मिल कर भी हम
रहते हैं बेहद उदास, जीवन
के इस ग्राफ में बहुधा
छूट जाते हैं कुछ
हाशिए के
बिंदु
जिन्हें हम ढूंढते हैं उम्र भर अपने आस -
पास, आख़िर में हम समेट लेते हैं
बचा - खुचा उपलब्ध हिस्सा,
अदृश्य सिहरन में है कहीं,
छुपे हुए आगंतुक
समीरण की
दिशा।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

23 सितंबर, 2021

जागृत कुरुक्षेत्र - -

सुदूर तलहटी में ऊँघता सा है पुरातन
शहर, धीरे धीरे दिमाग़ से उतर
रहा है अफ़ीम का असर,
बिखरे हुए हैं, हर
तरफ राजसी
उतरन,
लोग
देख रहे हैं मुद्दतों से खुशहाल दिनों का
सपन, कौन किसे समझाए, हर
एक मोड़ पर है नशेड़ियों की
जमात, होशवाले बस
भटक रहे हैं दर
ब दर, धीरे
धीरे
दिमाग़ से उतर रहा है अफ़ीम का असर।
मुश्किल है विकल्प की खोज यहाँ,
लेकिन नामुमकिन नहीं, बस
दिलों में चाहिए कुछ कर
गुज़रने की आस,
वक़्त नहीं
लगता
उतारने में, सम्राट के मूल्यवान पोशाक,
दिलों में कहाँ सोता है कुरुक्षेत्र आठ
प्रहर, धीरे धीरे दिमाग़ से उतर
रहा है अफ़ीम का
असर।   
* *
- - शांतनु सान्याल

 
 

21 सितंबर, 2021

हारी हुई बाज़ी - -

कई बार रास्ता भूल कर भी हम,
आख़िरकार लौट आते हैं उसी
जगह, और लौट आती
है हमारे संग, देह
से लिपटी हुई
धूप छाँव,
कई
बार न चाह कर भी हम जीते हैं
किसी और के लिए, इस
सोच में कि हमारे
खोने से कहीं
उजड़ न
जाए
किसी और का सपनों का गांव, - -
लौट आती है हमारे संग, देह
से लिपटी हुई धूप छाँव।
कई बार हम बिन
चश्मे के यूँ
ही देखना
चाहते
हैं नज़दीक के चेहरे, ताकि लोगों -
का नाटकीय अपनापन नज़र
न आए, अजीब सा मोह
होता है ज़िन्दगी में,
पलकों में होते
हैं घनीभूत
मेघ, और
हम
चाहते हैं कि टूट कर बूंद कहीं - -
चेहरे पर बिखर न जाए,  
हम जान बूझ कर
हार जाते हैं
हर बार
वो
ख़ुश होते हैं बाज़ीगर की तरह - -
खेल कर बच्चों वाला दांव,
लौट आती है हमारे
संग, देह से
लिपटी
हुई
धूप छाँव।
* *
- - शांतनु सान्याल
 
 
 


20 सितंबर, 2021

अंतर्नाद - -

मुहाने पर जा कर नदी भूल जाती है
समस्त अहंकार, सुदूर पीछे
छूट जाते हैं, झाऊ वन,
धसते हुए नाज़ुक
किनारे, घाट
के अध
डूबी
सीढ़ियां, सांध्य आरती, देवालय के
शीर्ष से उठता हुआ रास पूर्णिमा
का चाँद, विलीन होती हुई
गौ कंठी रुनझुन, सिर्फ़
सामने होता है एक
अंतहीन नील
पारावार,
मुहाने
पर
जा कर नदी भूल जाती है समस्त
अहंकार। सागरीय गर्भपथ से
हो कर जीवन करता है
अनवरत गहन
अंध यात्रा,
असंख्य
युगों
की तृष्णा लिए प्राण खोजता है उस
अतल में मुक्ति दायिनी मोती,
निमज्जित प्रवाल द्वीपों
में कहीं कदाचित हो
लुप्तप्राय विरल
प्रणय की
ज्योति,
फिर
भी कहाँ बुझ पाता है अभ्यंतरीण -
हाहाकार, मुहाने पर जा कर
नदी भूल जाती है समस्त
अहंकार।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

19 सितंबर, 2021

निष्पलक दृष्टि - -

यथारीति, गंध बिखेर कर निशि पुष्प
झर गए रात के तृतीय प्रहर में,
उड़ चले हैं जाने कहाँ सभी
रतजगे विहग वृन्द,
हमारे दरमियां  
ठहरा हुआ
सा है
निःस्तब्ध, समय का घूमता आईना,
निष्पलक देखता हूँ मैं, तुम्हारी
आँखों में अपना, उभरता
डूबता हुआ प्रतिबिम्ब,
खो रहे हैं न जाने
कितने ही
लहर
अधर तीर के शहर में, यथारीति,
गंध बिखेर कर निशि पुष्प
झर गए रात के तृतीय
प्रहर में। थम गया
है आकाश में
आलोक
पर्व,
डूबने को है बस बिहान का सितारा,
तुम तलाशते हो मेरे बहुत
अंदर तक पहुँच कर
पुरसुकून कोई
मरुद्यान,
मैं भी
खोजता हूँ तुम्हारे दिल में उतर कर  
जीवन नदी का किनारा, काश
मिल जाते कुछ पीयूष
बूँद वास्तविकता
के ज़हर में,
यथारीति,
गंध
बिखेर कर निशि पुष्प झर गए रात
के तृतीय प्रहर में।
* *
- - शांतनु सान्याल 

18 सितंबर, 2021

कांच का ताजमहल - -

कांच के गुम्बदों में कहीं उतरा होगा
किसी नील चंद्र का प्रतिबिम्ब,
हर किसी को कहाँ मिलता
है सपनों का ताजमहल,
अदृश्य स्तम्भों
के ऊपर है
सितारों
का
शामियाना, हमारी इस मिल्कियत
में आलोक स्रोतों की है अंतहीन
हलचल, हर किसी को कहाँ
मिलता है सपनों का
ताजमहल। तुम
हो लुब्धक
तारक,
खोजते हो हर एक मोड़ पर बिल्लौरी
खदान ! हम तलाशते हैं सूखी
मिट्टी में विलुप्त वृष्टि के
निशान, रुग्ण सरोवर
के वक्ष स्थल पर
हर हाल में
लेकिन
खिलता है शतदल, हर किसी को कहाँ
मिलता है सपनों का ताजमहल।
* *
- - शांतनु सान्याल



 


17 सितंबर, 2021

चश्मे के उस पार - -

इतिहास के पृष्ठों में गुम है कहीं सूखा
हुआ गुलाब, उधड़ी हुई कमीज से
ज़िन्दगी पोछती है, घिसे हुए
चश्मे के कोर, कहीं से
काश, नज़र तो
आए ओस
में डूबी
हुई
सुबह कोई लाजवाब, इतिहास के पृष्ठों
में गुम है कहीं सूखा हुआ गुलाब।
वक़्त है बड़ा अहमक, बच्चों
की तरह पैरों से मिटा
जाता है चाहतों
के रंगोली,
कोई जा
उसे
समझाए, अंतिम प्रहर तक रात खेलती
सप्त रंगों की होली, मैं आज भी
बुनता हूँ, रेशमी धागों के
नाज़ुक ख़्वाब, इतिहास
के पृष्ठों में गुम है
कहीं सूखा हुआ
गुलाब। अब
कुछ भी
नहीं
है शेष, जो कुछ था संचय वो सब कुछ
तुम्हें दे चुका, फिर भी जीने के
लिए तलबगार ज़रूरी है,
तुम्हारे अंतहीन
चाहतों की
सूचि
में,
जन्म जन्मांतर तक सिर्फ मेरा नाम
आना, यूँ ही बारम्बार ज़रूरी है,
ये और बात है कि धुएं के
साथ धूप गंध उड़
जाते हैं आकाश
पथ की ओर,
पड़ा रहता
है पृथ्वी
पर
भग्न मंदिर का प्रवेश द्वार, बिखरे
पड़े रहते हैं, मख़मली आसन,
पुष्प - पल्लव, अपठित
खुली हुई किताब,
इतिहास के
पृष्ठों में
गुम है
कहीं
सूखा हुआ गुलाब।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

15 सितंबर, 2021

उतराई के चेहरे - -

दूरत्व रेखा अदृश्य बढ़ती गई, अंततः
सभी मिलन बिंदु हो गए ओझल,
ज़िन्दगी खेलती है नियति
के साथ आंख मिचौली,
शैशव से बार्धक्य
की यात्रा हर
एक के
लिए
है ज़रूरी, कुछ मुक़ाम पर थे खिले हुए
बोगनबेलिया के फूल, कुछ पड़ाव
थे झरे हुए गुलमोहर, आईने
के किसी कोने पर हम
खोजते हैं खोया
हुआ यौवन,
आरोहण
से पूर्व
हर
एक चेहरा था जिज्ञासु, वादियों में थी
बिखरी हुई कोहरे की चादर, कुछ
अनाम अरण्य पुष्पों के रंगीन
झालर, समय की पटरियों
पर झुका कर चेहरा,
ज़िन्दगी खोजती
है दूर सरकती
हुई सांसों
की
गुंजन, शाम ढले तलहटी पर थे सभी
चेहरे गहराई तक बोझिल, दूरत्व
रेखा अदृश्य बढ़ती गई,
अंततः सभी मिलन
बिंदु हो गए
ओझल।
* *
- - शांतनु सान्याल

14 सितंबर, 2021

अध खुला दरवाज़ा - -

बहुत भुरभुरे से थे वो सभी मोह के
रिश्ते, ज़रा सी ठेस क्या लगी
हवाओं में बिखर गए,
ख़ुद से निकल कर
मैं अक्सर ख़ुद
को ढूंढता हूँ,
शहर भी
वही
है, लोग भी जाने पहचाने, आख़िर
मेरे चाहने वाले, जाने किधर
गए, ज़रा सी ठेस क्या
लगी हवाओं में
बिखर गए |
सड़क
भी
वही है, गली चौबारे भी हैं अपनी
जगह यथावत, बस बिजली
के तार हैं ग़ायब, फिर
भी रौशनी में डूबा
हुआ है ये
मायावी
शहर,
हर
एक अध खुले दरवाज़ों से झांकते
हैं जैसे हैरान सी आँखे, ले कर
अपना पहचान पत्र हम
जिधर गए, बहुत
भुरभुरे से थे
वो सभी
मोह
के रिश्ते, ज़रा सी ठेस क्या लगी
हवाओं में बिखर गए |
* *
- - शांतनु सान्याल

 
 

 

13 सितंबर, 2021

नारीत्व का मूल्य - -

एक अजीब सा भयाक्रांत शैशव हम
छोड़ जाते हैं पीपल के नीचे, न
जाने कितने गल्प और
कहानियों को बाँट
जाते हैं लिंग
भेद के
मध्य,
लड़कियों को प्रेत की कथा, और -
लड़कों को सुनाते हैं सिंह
शावक से खेलने की
महा शौर्य गाथा,
असल में
जन्म
से ही हम दिखाते हैं लड़कियों को
चौखट पर खड़ा कुपित दुर्वासा,
बस, उसी दिन से शुरू हो
जाती है पंख कतरने
की आदिम प्रथा,
फिर भी, ये
कल्प -
बेल की तरह बढ़ती जाती हैं नए -
नए दिगंत की ओर, रचती
हैं पृथ्वी पर अभिनव
रूपरेखा, उनके
गर्भगृह से
जन्म
लेते हैं हर युग में बारम्बार महान
विश्व पुरोधा - -
* *
- - शांतनु सान्याल  
 

07 सितंबर, 2021

बेरंग आकृति - -

मानचित्र अपनी जगह पड़ा हुआ है
यथारीति, नदी, पर्वत, पेड़ -
पौधे, कुहासे में तैरते
हुए तितलियों
के झुण्ड,
सब
कुछ हैं ख़ूबसूरत, फिर भी न जाने
क्या चाहता है तुम्हारे अंदर
का वन्य आदमी, तुम
देना नहीं चाहते
हो समरूप
जीने
की
स्वीकृति, मानचित्र अपनी जगह
पड़ा हुआ है यथारीति। न जाने
किस आकाश पार की ख़ुशी
चाहिए तुम्हें, नियति
के हथेलियों में
हैं बंद एक
बूंद भर
की
ज़िन्दगी, इस पल में है शामिल
कई जन्मों की नेमत, जो
हाथ से छूट जाए तो
न मिल पाए ये
दोबारा कभी,
सब कुछ
है शून्य
सा
इस जगत में, अगर दिल में न हो
तुम्हारे मानवीय प्रीति, मानचित्र
अपनी जगह पड़ा हुआ है
यथारीति। न जाने
किस धर्म कर्म
की वो बात
करते
हैं
अपने उच्च अभिलाष की ख़ातिर
मासूमों का नर संहार करते हैं,
चाहे क्यूँ न जीत ले हम
सारी पृथ्वी, ग़र न
जीत पाए दिल
की नाज़ुक
ज़मीं
तो
है दुनिया केवल बेरंग बेजान एक
अभिशप्त आकृति, मानचित्र
अपनी जगह पड़ा हुआ है
यथारीति।
* *
- - शांतनु सान्याल

 

 

04 सितंबर, 2021

१० x १२ के अंदर - -

इस कंक्रीट अरण्य में अभी तक हैं बाक़ी
कुछ वयोवृद्ध, कटे - छंटे अश्वत्थ
के पेड़, ठूंठ की टहनियों में
ढूंढता हूँ मैं, गुमशुदा
कोलाहल, कुछ
जल  रंग
छवि
तैरते हैं सजल नयन के तीर, सुदूर कहीं
वादियों में कदाचित हो निर्वासित
पंछियों का शिविर, शब्दों के
कलरव में खोजता हूँ
मैं अपने प्रश्नों
का उत्तर
सरल,
ठूंठ की टहनियों में ढूंढता हूँ मैं, गुमशुदा
कोलाहल। कुछ चाँद के टुकड़े बिखरे
से पड़े हैं उड़ान सेतु के नीचे,
कुछ टूटे प्रहर के ख़्वाब
दौड़े भागे जा रहे
हैं मेट्रो रेल
के पीछे,
तुम
आज भी हो सिमटे हुए दस गुणा बारह
के अंदर, लोग न जाने कहाँ से कहाँ
पहुँच गए, तुम अपनी जगह
यथावत हो सदियों से
अचल, ठूंठ की
टहनियों में
ढूंढता
हूँ मैं,
गुमशुदा कोलाहल।  
* *
- - शांतनु सान्याल
 

 

02 सितंबर, 2021

धुएं की ज़द में - -

चोर दरवाज़ा कहीं न था, हर तरफ गुंथी
हुई थी जालीदार झालर, तुम्हारे
सामने मेरा आत्म समर्पण
के अलावा कोई उपाय
न था, वो कोई
प्रेम था या
तृषाग्नि
अब
सोचने से क्या फ़ायदा, धुएं की ज़द में
थी ये धरती, धुंधला सा आसमान,
महाशून्य में थे देह- प्राण, वहां
कोई भी हमारे सिवाय
न था, तुम्हारे
सामने
मेरा
आत्म समर्पण के अलावा कोई उपाय
न था। वो महा यज्ञ था, या कोई
सुप्त अनल उत्सव, हलकी
सी छुअन से जो हो गए
सृष्टि पूर्व के तपन,
अब अवशिष्ट
भष्म में
कुछ
भी नहीं पद चिन्ह, जो गुज़र गए नंगे
पांव, मुश्किल है उनका अनुसरण,
जीवन की त्रिकोणमिति में
हम तलाशते हैं एक
अदृश्य सुख का
अणु बिंदु,
जो
पाप पुण्य के घेरे से हो मुक्त, लेकिन
आसान नहीं है ज्वलंत अग्निपथ
का अनुकरण, जो गुज़र गए
नंगे पांव, मुश्किल है
उनका अनुसरण।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

   

 
 

01 सितंबर, 2021

विलुप्त संवाद - -

नदी पहाड़ का खेल खेलते हुए, बचपन
में कहीं मिला था एक घिसा हुआ
कांच का टुकड़ा, किसी दूर -
बीन से टूट कर गिरा
था शायद, बस
वहीं से
धुंधला गई थी ये पृथ्वी, आकाश बन -
गया था चिर धूसर, मिट्टी के घर
बनाते हुए कहीं मिला था
कभी एक स्फटिक
का टुकड़ा बस
वहीं से
चाहतों को, कदाचित लगा था एक - -
अभिशप्त ग्रहण, आजन्म जिस
से न मिल सकी मुक्ति,
आँख मिचौली के
उस खेल में
कौन,
किस, कोने में जा छुपा, आज तक - -
कुछ भी पता न चला, बस वहीं
से शुरू हुई थी अंतर्यात्रा,
कभी किसी अलस
दोपहरी में हम
ने किया
था
माचिस फोन का आविष्कार, मोह - -
का धागा बांधा था अपने दरमियां,
बस वहीं से ज़िन्दगी ढूंढ रही
है विलोपित शब्दों का
अर्थ - -
* *
- - शांतनु सान्याल
 

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