अदम्य जिजीविषा हर एक वृत्त से
निकल कर, उन्मुक्त हो कर
हर एक परिधि लांघ
जाती है, उस
केंद्र बिंदु
में रह
जाते हैं सिर्फ अवसाद भरे दिन, इस
अंधकार से मुक्ति दिलाता है
केवल अपना अंतर्मन,
शुष्क नदी पथ पर
होते हैं दूर तक
प्रस्तर खंड,
लेकिन
इन्हीं
के नीचे होते है भूगर्भस्थ जल स्रोत -
नदी सूखने से पूर्व अपने सीने
के अंदर एक झील बांध
जाती है, ज़िन्दगी
उन्मुक्त हो
कर हर
एक
परिधि लांघ जाती है। न जाने कितनी
बार मृत्यु को पुकारा मैंने, न
जाने कितने बार जीवन
ने डूबने से उबारा
मुझ को, हर
एक की
होती
है अपनी अलग अहमियत, सहज पथ
कहीं भी नहीं, दिवा निशि चलता
रहता हैं लेन देन, ये जान
कर भी कि कुछ भी
नहीं रहता है
हमेशा,
फिर
भी लोग चाहते हैं ज़रूरत से अधिक - -
संचय, काश अंदर का दीप जला
पाता, किसे ख़बर पुनर्जन्म
मिले न मिले दोबारा
मुझ को, न जाने
कितने बार
जीवन
ने
डूबने से उबारा मुझ को।
* *
- - शांतनु सान्याल
28 सितंबर, 2021
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बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर लेखन।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर सारगर्भित सृजन।
जवाब देंहटाएंसादर