इस कंक्रीट अरण्य में अभी तक हैं बाक़ी
कुछ वयोवृद्ध, कटे - छंटे अश्वत्थ
के पेड़, ठूंठ की टहनियों में
ढूंढता हूँ मैं, गुमशुदा
कोलाहल, कुछ
जल रंग
छवि
तैरते हैं सजल नयन के तीर, सुदूर कहीं
वादियों में कदाचित हो निर्वासित
पंछियों का शिविर, शब्दों के
कलरव में खोजता हूँ
मैं अपने प्रश्नों
का उत्तर
सरल,
ठूंठ की टहनियों में ढूंढता हूँ मैं, गुमशुदा
कोलाहल। कुछ चाँद के टुकड़े बिखरे
से पड़े हैं उड़ान सेतु के नीचे,
कुछ टूटे प्रहर के ख़्वाब
दौड़े भागे जा रहे
हैं मेट्रो रेल
के पीछे,
तुम
आज भी हो सिमटे हुए दस गुणा बारह
के अंदर, लोग न जाने कहाँ से कहाँ
पहुँच गए, तुम अपनी जगह
यथावत हो सदियों से
अचल, ठूंठ की
टहनियों में
ढूंढता
हूँ मैं,
गुमशुदा कोलाहल।
* *
- - शांतनु सान्याल
04 सितंबर, 2021
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