नज़्म
अजनबी सी है रात गुज़री, तकती रहीं
ख़ामोश निगाहें, वो ख़्वाब थे या
हकीक़त किसे हम ये राज़
बताएं, खंडहर से पड़े
हैं हर सिम्त ये
जज़्बात
के ज़खिरे, ये दर्दे क़दीम अपना, दिखाएँ
भी तो किसे दिखाएँ, कभी राह थी
इस जानिब, कभी चाह थी
उनकी आसमां से
आगे, अब
टूटते
सितारों को कैसे पलकों में हम बिठाएं - -
- शांतनु सान्याल
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