परावर्तन पूर्व
वो पुरोधा कोई या मीर ए कारवां जो भी हो
उस दिगंत से हो कर गुज़रना है अभी
बाक़ी, किताबी बातों से कहीं
गहरी है ज़िन्दगी की
वास्तविकताएं,
कभी अपने
अग्नि
वलय से बाहर निकल कर देखें; हर क़दम
पर खड़ें हैं छद्मवेशी रावण, क्षितिज
रेखाओं पर दौड़ते हैं स्वर्ण -
मृगिय आभास, हर
कोई खड़ा है
लिए
शून्य पात्र, सिर्फ एक मौक़े की है उन्हें -
तलाश, जो जिसे छल जाए यहाँ
नहीं कोई नैतिकता का
प्राचल, यहाँ कोई
राघव नहीं
जो आए अकस्मात् कर जाये जीर्णोद्धार !
स्वयं को करनी है सत्यता की
खोज, कोई नहीं यहाँ
जो कर जाये
अंतर्मन
प्रबुद्ध सहसा, एक युद्ध खुद से पहले फिर
करें परावर्तन की चाह - - -
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
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